तमसो मा ज्योतिर्गमय

March 1988

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.... की सघन तमिस्रा में हाथों हाथ नहीं सूझता। प्रकाश के अभाव में आँख काम नहीं देती। वस्तुओं का सही स्वरूप दृष्टिगोचर नहीं होता। कुछ के बदले कुछ दीखता है। ऐसी दशा में कोई क्रिया कलाप सही बन पड़ना संभव नहीं होता। न लेखक लेख लिख सकते हैं और न शिल्पी अपने औजारों का उपयोग वहाँ कर सकते है जहाँ उन्हें प्रयुक्त किया जाना चाहिए। घसियारे अपनी खुरपी उठा कर रख देते है क्योँकि अनुमान के आधार पर वह खुदाई भी नहीं हो सकती। साँप, बिच्छू भी उंगली दे सकते है। पथिक भी रास्ता नहीं चलते। राह भूल जाने, काँटे लगने कंकड़ चुभने और ठोकर लगने की आशंका रहती है न दुकानदार दुकान खोलते हैं और न व्यापारी व्यापार करते है। अंधेरे में भूले होते रहने का खतरा स्पष्ट रहता है। वातावरण का तापमान सूर्य के अस्त होने पर प्रकाश के अभाव में घट जाता है। शरीर भी उससे प्रभावित होता है। फलतः सुस्ती घेर लेती है, थकान चढ़ दौड़ती है और आलस आने लगता है। बढ़ते बढ़ते वह खुमारी की स्थिति में जा पहुँचता है और नींद आ घेरती है। सर्वत्र सन्नाटा छा जाता है। चारों का भय बढ़ता है। दरवाजे बन्द करने पड़ते हैं। जहाँ अधिक खतरा होता है। वहाँ पहरेदार, चौकीदार की व्यवस्था करनी पड़ती है। अंधकार निष्क्रियता का निस्तब्धता का प्रतीक है। उसके खतरे तो बढ़ते ही है साथ ही चोर उचक्के व्यभिचारी, नशेबाज, दस्यु तस्कर भी अपनी गतिविधियाँ तेज करते हैं। असुरक्षा भयानकता, निष्क्रियता निस्तब्धता जैसे न जाने क्या क्या संकट सामने आ खड़े होते है।

रात्रि में फूल खिलना बन्द कर देते हैं। वृक्ष, वनस्पतियों तक की बढ़वार रुक जाती है। प्रकाश ही जीवन है। उसकी जितनी कभी पड़ती जायेगी, उतनी ही प्रगति अवरुद्ध होती जायेगी। रेय का साम्राज्य बदलेगा, सपनों की दुनिया गति पकड़ेगी। कोई किसी की सहायता न कर सकेगा। यहाँ तक कि सद्ग्रंथ भी अक्षर दीख न पड़ने के कारण अपना मार्ग-दर्शन कर सकने में समर्थ न हो सकेंगे। निशाचरों की बन पड़ती है। हिंस्र जंतु इसी अवसर पर आखेट के लिए निकलते हैं।

ऋषि के शब्दों में सार्वभौम अन्तरात्मा के प्रार्थना की है कि तमसो माँ ज्योतिर्गमय अर्थात् - हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल। प्रकाश में वस्तुओं का स्पष्ट रूप दर्शाने की क्षमता तो होती ही है, इसके अतिरिक्त उसमें ऊर्जा भी सन्निहित रहती है। यही कारण है कि सूर्य के उदय होते ही सर्वत्र गतिशीलता का प्रादुर्भाव होता है। पक्षी अपने घोंसले से निकल कर फुदकने, चहकने लगते है। पशु बाड़ा छोड़ कर भोजन की तलाश में निकलते है। सोने वाले नींद छोड़ कर नित्य-कर्म से निपटते और नये दिन के कार्य आरंभ करते हैं। किसान, शिल्पी, कलाकार व्यवसायी, विद्यार्थी सभी अपना अपना काम आरंभ कर देते है। उपार्जन, उत्पादन, निर्माण, उत्थान का क्रम सभी का अपने अपने ढंग से चल पड़ता है। प्रकाश की गरिमा ही ऐसी है। उसके साथ उत्कर्ष, अभ्युदय का क्रम अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। प्रकाश ही जीवन है और अन्धकार ही मरण। संसार की हर जड़ चेतना इकाई जीवन के प्रति उत्सुक रहती और मरण के प्रति अनिच्छुक। इसलिए उसे प्रकाश का आश्रय लेना पड़ता है। अन्धकार से जूझने के लिए दीपक से लेकर शक्तिशाली विद्युत बल्बों तक का प्रबन्ध करना पड़ता है। यदि ऐसी व्यवस्था न बन पड़े तो यह कल्पना करना कठिन हो जाता है कि रात्रि किस प्रकार कटेगी और उस निविड़ता के बीच निर्वाह कैसे बन पड़ेगा।

भौतिक जगत में जो स्थान प्रकाश का है, ऊर्जा का है, वहीं सम्मिश्रित प्रभाव अध्यात्म-जगत में सद्ज्ञान का है। इसलिए श्रुति परिकर में स्थान स्थान पर सद्ज्ञान रूपी दिव्य प्रकाश की उपलब्धि के लिए परब्रह्म से भाव भरी प्रार्थनाएं की गई है। गायत्री महामंत्र में इसी विभूति उपलब्धि को हस्तगत करने का तारतम्य है। सर्वोपरि इस दिव्य वरदान की प्राप्ति के लिए आत्मा ने अपनी प्रबल आकाँक्षा से अभिव्यक्ति की है। इसे प्राप्त कर सकने का विधान, प्रयोग भी उसमें सन्निहित है। इसी कारण गायत्री को वेदमाता, देवमाता, विश्व माता आदि नामों से अलंकृत किया गया है। उसी दिव्य-ज्ञान को भूमा, प्रज्ञा, प्राण सम्वेदना आदि नामों से पुकारा गया। उसे पाकर और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। जिसके हाथ में चिन्तामणि पहुँचती है वह इसी जीवन में स्वर्ग मोक्ष और सिद्धि का आनन्द प्राप्त करता है। अलंकारित भाषा में उसे अमृत कल्पवृक्ष और पारस नाम से निरूपित किया जाता है।

शिक्षा और विद्या का अन्तर स्पष्ट है शिक्षा की परिधि में भौतिक दुनियादारियों का समुच्चय आता है। उसके आधार पर चतुर, अनुभवी क्रिया कुशल बना जाता है और धनोपार्जन से लेकर यशस्वी पदाधिकारी, सफल सम्मानित आदि बना जाता है। इन प्रत्यक्ष लाभों को देखते हुए सरकारी और गैर सरकारी शिक्षण संस्थाओं की धूम है। वे छोटे बड़े रूपों में स्थान स्थान पर विनिर्मित है। व्यक्तिगत परामर्श और आदान प्रदान से भी यह क्रम पारिवारिक वातावरण से लेकर समाज संरचना के अनेक क्षेत्रों में उत्साहपूर्वक चलता रहता है। अगणित पुस्तकें अनेकानेक भाषाओं में प्रायः इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु लिखी जाती, छपती और बिकती है। रेडियो, दूरदर्शन, फिल्म, अखबार, पत्रिकाएं आदि भी इसी प्रयोजन की पूर्ति होती है। यह शिक्षा-तंत्र अत्यन्त विशद् और विस्तृत है। इसी के आधार पर मनुष्य अनेकानेक विषयों में प्रवीण, पारंगत बनता है। भौतिक सफलताओं और उपलब्धियों का बहुत कुछ आधार प्रशिक्षण प्रक्रिया के साथ जुड़ा हुआ है। इसलिए उसे उपयोगी भी समझा जाता है और इस दिशा में अधिकाधिक प्रवेश पाने के लिए प्रयत्नरत भी रहा है। यह सर्वविस्तृत और सर्वनिमोदित प्रक्रिया है, जो अपने ढंग से प्रतिष्ठित भी है और गतिशील भी।

विद्या इससे आगे की उच्चस्तरीय उपलब्धि है, उसके अंतर्गत आत्म-चिन्तन और आत्म मनन आता है। चिंतन का तात्पर्य है-वस्तुस्थिति का अध्ययन, अवगाहन। मन का तात्पर्य है-विकृतियों के परिशोधन और सत्प्रवृत्तियों संवर्धन की विचारणा, योजना और संभावनाओं का अभिनव स्थापना। विद्या का शुभारंभ आत्मिक क्षेत्र चिंतन मनन से प्रारंभ होता है। इससे आगे आत्मा समीक्षा, आत्म सुधार, आत्म निर्माण और आत्म विकास के ऊर्ध्वगामी चरण उठते है। ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ आत्म चेतना से सम्बन्ध बिठाने और दोनों के बीच आदान–प्रदान का द्वारा खोलने का उपक्रम आरंभ होता है।

भौतिक और आत्मिकी का अपना अपना क्षेत्र उपयोग एवं महत्व है। भौतिकी साँसारिक जीवन में साधन सम्पन्न जुटाने और उनका समुचित उपयोग करके सुरम्य बनाने का पथ प्रशस्त करती है। इसलिए उसकी आवश्यकता सहज समझ में आ जाती है। उसे समर्थन प्रश्रय भी मिलता है, पर आत्मिकी का क्षेत्र गुह्य है। शरीर और उससे सम्बन्धित वैभव प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है और उसके लाभ भी हाथों हाथ उपलब्ध होते है। इसलिए हम कोई उसे चाहता है। साधन सामग्री की प्रचुरता की आकाँक्षा को भी वहीं पूरा करती है। चतुर लोग अपने के गौरवान्वित अनुभव करते और विलास की सामग्री उपलब्ध करके प्रसन्नता अनुभव करते है। किन्तु आत्मिकी का क्षेत्र अप्रत्यक्ष है। उसे इन्द्रियातीत कहा गया है। अन्तर्मुखी होने की विद्या जिन्हें आती है, वे ही इसके स्वरूप समझने और लाभ उठाने में समर्थ होते है।

पेड़ का तना, पल्लव, बारबार फूलों फलों का समुच्चय प्रत्यक्ष दीख पड़ता है पर उन सबको जीवन तथा विकास देने वाली जड़ें जमीन के अन्दर रहती है। वो सामान्यतया दीख नहीं पड़ती फिर भी विचारशील निश्चयपूर्वक जानते हैं कि जड़ें ही वृक्ष की प्रगति एवं स्थिरता का आधारभूत कारण है। उनके सुदृढ़ होने पर ही वृक्ष की स्थिरता अवलम्बित है। यदि जड़ें सूख जाए, उन्हें दीमक चर जाए तो समझना चाहिए कि वृक्ष का जीवन समाप्त हुआ। वह सूखेगा और हवा के किसी बड़े झोंके में धराशायी हो जायेगा। व्यक्ति को एक वृक्ष समझा जा सकता है, उसका बाह्य वैभव भौतिकी और जड़ों वाला अदृश्य पक्ष आत्मिकी। साधारण बुद्धि आत्मिकी का अर्थ नहीं समझती, वह भौतिकी को ही सब कुछ मान बैठती है। इतने में पर भी तथ्य यथास्थान रहते है। सद्गुणों के बिना मनुष्य मात्र अनगढ़ ही बना रहता है। उसके गुण कर्म, स्वभाव में ऐसी प्रखरता उत्पन्न नहीं होती कि वह साधारण कार्यों को भी सांगोपांग ढंग से सम्पन्न कर सके। कोई बड़ी सफलता प्राप्त कर सकना तो उसके लिए किसी भी प्रकार शक्य नहीं हो पाता। पेट प्रजनन के कोल्हू में बैल की तरह चलते तो हैं, पर शालीनता के अभाव में वे उसे भी ठीक तरह पूरा नहीं कर पतों। आये दिनों उलझनों में उलझते और संकटों का सामना करते हैं, यह प्राणि सुलभ क्षेत्र में उनके लिए ऐसा जाल जंजाल बन जाता है, जिसके लिए अनेकों संकट सहने और अनर्थ करने पड़ते है। जिनकी जड़ों को पोषण नहीं मिला, वे किसी प्रकार जिन्दगी के दिन तो पूरे करते है। पर काले फूलते वृक्ष जैसा प्रश्रय, गौरव कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते वृक्ष जैसा प्रश्रय, गौरव कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते। पुण्य परमार्थ की बात तो उनके चिन्तन तक में प्रवेश नहीं कर पाती और उस प्रयोजन को कार्य रूप में परिणत कर सकना तो बन ही कैसे पड़े?

ज्ञान की गरिमा ‘आत्म-ज्ञान’ के रखने के जाती है। जीवन का स्वरूप, उद्देश्य, सदुपयोग का बोध जैसे सांगोपांग नहीं हु और वह न आदर्शों के साथ जुड़ पाता है और न शालीनता, उत्कृष्टता की राह समझने, उस पर चलने की विधि व्यवस्था से परिचित होता है। ऐसी दशा में व्यक्तित्व में उत्कृष्टता का शालीनता का समावेश तो हो ही सकता है। इस अभाव के कारण स्थिति अस्त–व्यस्त, अनगढ़, असंस्कृत जैसी ही बनी रहती है। जिस आधार पर उच्चस्तरीय प्रगति बन पड़ती है। स्नेह सहयोग, सद्भाव मिल सकता है, वह सूत्र हाथ ही नहीं आता। ऐसी दशा में पिछड़ेपन की हेय स्थिति ही घेरे रहती है। उस दल दल में से उबर कर मानवी गरिमा के अनुरूप कोई श्रेय सुयोग हाथ ही नहीं लग पाता। आत्मिकी से अनजान रहने का यही दुःखद परिणाम निरंतर सामने खड़ा रहता है।

भौतिकी के क्षेत्र में प्रकाश का अर्थ है-रोशनी,ऊर्जा। यही है वह मौलिक शक्ति जिसके आधार पर संसार का समस्त जड़ चेतन गतिशील हो रहा है। आगे से और बढ़ रहा है। आत्मिकी के क्षेत्र में यही ज्योति ऊर्जा महाप्रज्ञा के नाम से जानी जाती है। चूँकि यह सचेतन आवश्यकताएं परब्रह्म से उद्भव होती है। इसीलिए इसे अखण्ड-ज्योति भी कहते है। जिसका भावार्थ है-चेतनात्मक दिव्य प्रेरणा। ऐसी ऊर्जा जो मनुष्य के अन्तराल तक प्रवेश कर सकने का मार्ग बनानी है और उस क्षेत्र की रहस्यमय परतों का उभार कर उजागर करती है। इतना उजागर कि मनुष्य अपने में देव स्तर का अवतरण होते प्रत्यक्ष देख सके।

यही है वह प्रकाश जिसे प्राप्त करने पर मनुष्य अपने निर्धारित पक्ष को देख सकता है। उस पर बिना लड़खड़ाए चल सकता है और अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँच सकता है


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