भावना और विवेकशीलता

March 1988

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बाइबिल के जैनेसिग 27 में प्राणियों एवं मनुष्य की आत्मा को पृथक-पृथक नामों से संबोधित किया गया है। एक को ‘सोल’ तो-प्रकृति के प्रत्येक जीवित एवं श्वास लेते हुए जीवन धारियों में विद्यमान रहती है। इसका संबंध रक्ताभिषरण प्रक्रिया से जुड़ा हुआ माना गया है। किन्तु ‘स्पिरिट’ ऐसी आत्मा है जिसका विकास केवल मनुष्य में ही हो सकता है, वह जानवरों को कदापि नहीं हो सकती।

मनुष्य के इस ज्ञान को तीन भागों में विभक्त किया गया है। - पहला ईश्वरानुभूति, दूसरा अन्याय लोगों के बारे में जानकारी, तीसरा है-वस्तुओं और पदार्थों के उपयोग का ज्ञान।

प्रकारान्तर से इन्हें ही भावना और विवेकशीलता कह सकते हैं। आत्मा का पुंज है भावना। इसमें अपनी ही आत्मा देखना तथा औरों के साथ वह व्यवहार करना जो हम अपने लिए औरों से चाहते हैं। यही भावना का वास्तविक स्वरूप है। दूसरों के दुखों को बाँट लेना और अपने सुखों का बाँट देना यह मात्र भावनाशीलों से ही बन पड़ता है।

बुद्धि की उत्कृष्टता विवेक है। इसी को ‘स्प्रिट’ कहते हैं। साधारण बुद्धि तो प्रायः स्वार्थ साधन में ही प्रवृत्त रहती है। कभी-कभी वह अपराधी बनने और दुष्कर्म करने में भी प्रवृत्त होती है और ऐसे उपाय सोचती है। जिसमें निंदा और दंड से बच निकलने की चतुरता कारगर हो सके। दूसरों की मजबूरियों का लाभ उठाने और उन्हें आकर्षण भरे तर्क देकर बहकाने में यह चतुरता ही काम आती है। आमतौर से लोग इसी क्षमता को विकसित करते है और सभी लाभों का अपनी कुशलता का परिणाम बताते हैं चाहे उनमें अनीति का ही प्रयोग क्यों न किया गया हो?

ऐसे लोग मानव समुदाय में कम नहीं है। जेलखानों में लाखों व्यक्ति इसी स्तर के भरे पड़े हैं, जिनने औचित्य की ओर से आँख बंद करके अनीतिपूर्वक धन कमाया और स्वार्थ साधा। ऐसी बुद्धिमत्ता को विज्ञान समाज में सराहा न जा सकता।

पशु-प्रवृत्ति इसी को कहते हैं बिना भविष्य का परिणाम सोचे अपने तात्कालिक लाभ के लिए कुछ भी करने लगे जिसे दूसरों के हित अनहित का ध्यान नहीं उन्हें नर पर ही कहा जा सकता है। जंगली सुअर और भैंसे किसी का .... खेत उजाड़ सकते हैं, भले ही उस कारण किसी अपने असहाय के परिवार को भूखों ही क्यों न मरना पड़े या चतुरता है जो केवल स्वार्थ साधना ही जानती है।


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