समर्थ और प्रसन्न जीवन की कुँजी

March 1988

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हर व्यक्ति अपनी स्वतंत्र ईकाई है। उसे अपनी समस्यायें सुलझाने और प्रगति की व्यवस्था बनाने का ताना बाना स्वयं ही बुनना पड़ता है। कठिनाइयाँ आती और चली जाती है। सफलता मिलती और प्रसन्नता की झलक झाँकी कर देने के उपरान्त स्मृतियाँ छोड़ जाती है। दिन और रात की तरह यह चक्र चलता ही रहता है। कोई जीवन ऐसा नहीं बना जिसमें ज्वार भाटे न आते हो। निष्क्रियता की तरह निश्चिंतता भी मरण का चिन्ह है। जीवन एक संग्राम है जिसमें एक एक कदम पर गुत्थियों को सुलझाते हुए चलना पड़ता है। पहाड़ों की चोटियों पर जम जाने के उपरान्त दूसरे के लिए जगह बनाने की सोचते है। नीचे कितनी गहरी खाई रह गई, इसे देखने से डर लग सकता है, ऊपर कितना चढ़ना बाकी है यह जानने के लिए चोटी की ऊंचाई आँकना हैरानी उत्पन्न करेगा।

इस यात्रा के लिए अटूट धैर्य और साहस की आवश्यकता है, इससे भी अधिक इस बात की कि हर हालत में सन्तुलन बना रहे। सन्तुलन डगमगा जाना आधी सफलता हाथ से गवाँ देना और वजन को दूना बढ़ा लेना है। हर समझदार आदमी को हर गाँठ बाँध रखनी चाहिए कि जन्म के समय वह अकेला आया था। मरने के समय भी चिता पर अकेले ही सोना है। अपना खाया ही अंग लगता है। अपने पढ़ने से ही शिक्षित बना जाता है। यह काम किसी और से नहीं कराये जा सकते। अपने बदले में किसी और को सोने के लिए नौकर रखा जाए तो नींद की आवश्यकता पूरी नहीं हो सकती। रास्ता अपने पैरों ही चल कर पार करना पड़ता है। रोग की व्यथा स्वयं ही सहनी पड़ती है। पड़ोसी और संबंधी, सहायता करने के जो काम है।, उन्हें कर सकते है पर चढ़ी हुई बीमारी को सहन करने के लिए अपने ऊपर नहीं ले सकते। इसलिए स्वावलम्बी बनने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। स्वावलम्बन से ही स्वाभिमान की रक्षा होती हैं। नौकरों और सहायकों की बहुलता काम सरल तो बना सकती है पर उन पर सब कुछ छोड़कर निश्चित हो जाना भूल है। इंजन बुझा दिया जाए और डिब्बों को दौड़ते हुए आगे स्टेशन पर जा पहुँचने का हुक्म देना समझदारी नहीं है।

यों प्रत्यक्ष काम तो हाथ पैर ही करते है, पर वास्तविकता यह है कि उनके पीछे जुड़ी रहने वाली मन की शक्ति ही अधिकाँश जुगाड़ बिठाती है। इसलिए छोटा बड़ा जो भी काम करना हो उसमें मन को सही स्थिति में संलग्न होना आवश्यक है। मन डगमगाया तो समझना चाहिए कि नाव का संतुलन बिगड़ा। बुद्धिमान वे है जो अपने मन को सही स्थिति में रखे रहते है। सड़क पर मोटर के पहिये दौड़ते है और सवारियाँ सीटों पर बैठती है, पर ढक्कन के नीचे लिया हुआ इंजन ही यात्रा पूरी करता है। तेल पानी चुक जाए या गड़बड़ा जाए तो अच्छी तरह रंग रोगन की हुई गाड़ी भी मंजिल पार न कर सकेगी।

चूल्हा बिलकुल ठंडा हो, नाम मात्र की गर्मी हो तो रसोई पकने की प्रतीक्षा में ही बैठा रहना पड़ेगा। इसके विपरीत यदि ईंधन अन्धाधुन्ध जलने लगे तो जो पकाया जा रहा है, उबल कर नीचे गिरेगा अथवा जल भुन कर राख हो जाएगा। रसोई सही समय पर सही ढंग से पके इसके लिए आवश्यक है कि चूल् की आग समतुल्य बनी रहे। मस्तिष्क ऐसा ही चूल्हा है जिस पर उपयोगी सामान सही तरह से पकने के लिए तापमान संतुलित रहना चाहिए। सही तरह से सोचना और करना इससे कम में बन ही नहीं सकता।

कठिनाई या असफलता के लक्षण देखने ही हड़बड़ा जाना बुरी बात है। सफलता की हल्की सी झलक झाँकी देखने ही फूले न समाने जैसी अहंकारी स्थिति बना लेना ओछेपन का लक्षण है। ऐसे आदमी बड़े काम कभी पूरा नहीं कर पतों। उन्हें आधी अधूरी स्थिति में ही काम की इति श्री समझनी पड़ती है। शेष मंजिल को छोड़कर बीच में ही बैठे रहते है। बिगड़ा हुआ संतुलन पूरी बात सोचने और मंजिल के अन्तिम चरण तक पहुँचने की स्थिति ही नहीं बनने देता। कछुए और खरगोश की दौड़ में खरगोश इसलिए बाजी हरा कि ओछेपन ने उसे लगातार श्रम नहीं करने दिया और थोड़ी सी सफलता को ही काम बन जाना मान बैठा कछुआ इसलिए जाता कि अपनी धीमी चाल और लम्बी मंजिल की बात को भली प्रकार समझते हुए भी निराश नहीं हुआ और लगातार हिम्मत के साथ चलते रहने में ढीला नहीं पड़ा। धीरज और हिम्मत बनाए रहने वाला हर कछुआ बाजी जीतता है तब कि उतावले खरगोश सक्षम होते हुए भी मात खाते है।

जीवन कर्मभूमि है। इसमें खिलाड़ी का मन लेकर ही उतरा जाता है। खिलाड़ियों के सामने पग पग पर हार जीत भी उछलती कूदती रहती है। अभी लगता है कि हार अभी दीखता है कि जीते। दोनोँ ही परिस्थितियों में वे समान मन से जुटे रहते है। हार जाने पर जीतने वाले से लड़ने मरने पर उतारू नहीं होते वरन् हाथ मिलाते और बधाई देते है। जीत जाने पर इस तरह इठला कर नहीं चलते मानों कोई किला जीत कर आये हो। हारने वालों का तिरस्कार करना बेहूदों का काम है। वे कुशल खिलाड़ी नहीं माने जाते।

ओछे आदमियों की एक और पहचान है कि अपनी राई रत्ती सफलता को दस जगह सुनाते और बढ़ चढ़ कर गीत गाते है। उनका मतलब रौब गाँठना और दूसरों के मुंह से अपनी प्रशंसा सुनना होता हैं अपने पौरुष पराक्रम को वे पर्याप्त नहीं मानते। सुनने वाले उसकी बड़ाई के गीत गाये तब उन्हें विश्वास होता है कि वे समर्थ है और सफल रहे हैं। इसी प्रकार अपनी कठिनाइयों को भी दस जगह कहते है ताकि उन्हें अधिक लोगों की सहानुभूति सुनने को मिले। इतने में ही कठिनाई का हल हो जाए तो बात दूसरी है अन्यथा यदि यह आशा लगाई गई हो कि सहानुभूति के साथ साथ सहायता भी बरसेगी, लोग हाथ बंटायेंगे तो यह मान्यता गलत है। हारे हुए को अयोग्य और मूर्ख माना जाता है। अपनी ख्याति इसी रूप में करना अपेक्षित हो तो अपनी कठिनाइयों और असफलता को जगह जगह गाते फिरने में हर्ज नहीं सफल होने वालों की प्रशंसा करने तो कई लोग सुनते है और उन्हें समझदार भी मानते है पर कठिनाइयों में फंसे हुए लोगों से बचने की कोशिश करते है कि कहीं हमें भी उनकी सहायता के झंझट में न फंसना पड़े। फलता की शेखी बघारने वाले को शेखीखोर और अहंकारी कहा जाता है। इसलिए दोनों ही प्रकार की चर्चायें न केवल निरर्थक वरन हानिकारक भी है। गंभीर व्यक्ति की मेहनत जिम्मेदार और सूझबूझ ही उसका सम्मान बढ़ाने के लिए पर्याप्त है।

आवश्यक नहीं कि परिस्थितियाँ सदा आपके अनुकूल ही हो। आवश्यक नहीं कि दूसरे आपको सही समझ ही और न्याय करें ही। हो सकता है कि बिलकुल उलटी चल पड़। ऐसी दशा में क्रोध से भर जाना और आवेश में आना भी आपकी कठिनाई को हल नहीं कर सकता। दूसरों की गलती सुधारने के लिए क्रोध प्रकट करना और आवेश में आना ही कोई हल नहीं निकालता वरन बिगड़ी बात को और भी अधिक बिगाड़ सकता है। हो सकता है आपके क्रोध को दूसरा आदमी अपना अपमान समझ और बदले में दूना क्रोध प्रकट करें और अपमान पर उतर आये। ऐसी दशा में गुत्थी और भी दूनी उलझ जाती है। समाधान के लिये, अब क्या करना चाहिए, दूसरा कोई सही रास्ता सूझता ही नहीं। प्रसंग एक ओर रखा रह जाता है। मानापमान, शत्रुता एवं प्रतिशोध का नया सिलसिला चल पड़ता है। बात को इतनी आगे बढ़ाने की अपेक्षा यही उचित था कि ठंडे दिमाग और मधुर शब्दों में अपना पक्ष प्रस्तुत करते रह जाता। चुप हो गा होता अथवा प्रसंग बदल कर कोई ऐसी दूसरी बात आरंभ की गई होती। एक बार बाजी हार जाने पर खिलाड़ी दूसरा दौरा शुरू करते है। यही रवैया हमें हर प्रसंग में अपनाना चाहिए, विशेषतया प्रतिकूल अवसर खड़ा होने पर।

किसी मित्र या सहयोगी से आड़े वक्त में आप सहायता की आशा करते थे पर उसने सहानुभूति तक न दिखाई। इसमें भी आवेश क्रोध करने की आवश्यकता नहीं। किन्हीं से आपके अच्छे सम्बन्ध रहे हो, इसे आप अपनी सज्जनता का तकाजा समझे। जितने अधिक लोगों के साथ आपके सद्भाव रहे उतना ही अच्छा पर इसका मूल्य कोई आपकी सहायता करके चुकाये यह आवश्यक नहीं। आप अपने निज के बल पर विश्वास कीजिए। इतना साहस रखिये कि अपनी गुत्थियों को अपने बलबूते सुलझा लेंगे न सुलझेगी तो उस अन सुलझा स्थिति से भी काम चलायेंगे आपकी इच्छानुरूप सारी समस्याओं का हल निकलता रहे यह आवश्यक नहीं। गुत्थियाँ और भी अधिक उलझ सकती है। प्रतिकूलताओं का दबाव और भी अधिक बढ़ सकता है। यह अनुमान लगाकर चलेंगे तो आप जीवन संग्राम के सच्चे खिलाड़ी कहे जा सकते है। खिलाड़ी का पहला और आवश्यक गुण यह है कि वह हारती हुई मुख मुद्रा में भी संतुलित मन स्थिर और निश्चय वाला होना चाहिए। उसके लिए तैश, आवेश किन्हीं भी परिस्थितियों में क्षम्य नहीं है। हर आदमी खिलाड़ी तो नहीं हो सकता, पर उसे समझदार तो होना ही चाहिए। समझदारी की जिम्मेदारियाँ खिलाड़ी जिम्मेदारी से किसी भी प्रकार कम नहीं है। उसका स्वभाव उससे भी घटिया नहीं होना चाहिए। उसका मानसिक स्वास्थ्य सही रहना चाहिए।

बीमारियों को यदि दो भागों में विभक्त करना पड़े तो उनमें एक आवेशजन्य और दूसरी अवसादजन्य होगी। रक्तचाप के उदाहरण से इसे और भी अच्छी तरह समझा जा सकता है। एक हाई ब्लड प्रेशर दूसरा लो ब्लड प्रेशर। मानसिक रोगियों में एक किस्म उत्तेजितों की है। दूसरी अवसाद ग्रस्तों की। अवसाद ग्रस्त अर्थात् निराश, उदास, आलसी, अकर्मण्य, डरपोक, कायर आदि। उत्तेजितों में क्रोधी, आवेश ग्रस्त, जल्दबाज, झगड़ालू आदि दुःस्वभाव ग्रस्त। दो ही प्रकृति वाले अस्वाभाविक जीवन जीते है और अर्ध विक्षिप्त कहलाते है। यदि उनके सामने कोई गुत्थी या कठिनाई आए तो वे उसे हल करना तो दूर अपनी मानसिक अस्त–व्यस्तता के कारण दूनी बढ़ा लेंगे। सफलता के अवसर सामने होंगे तो उन्हें जल्दी ही गंवा देंगे। ऐसे लोग इस या उस प्रकार असफल ही रहेंगे। हैरानी उन्हें हर घड़ी घेरे रहेगी

शारीरिक रोगों के मूल्य में भी इन दो को गिना जा सकता है। डरपोक आदमी अपनी भीरुता और कुकल्पना के कारण ही बेमौत मरते है। एक बार ब्रह्माजी ने मौत को दो हजार आदमी मार लाने का आदेश दिया। जब वह वापस लौटी तो चार हजार साथ थे। जवाब तलब किया गया तो मौत ने सफाई दी कि उसने तो दो हजार ही मारे। शेष तो मरने के डर से भयभीत होकर अपने आप मर गये और उसके साथ साथ चल दिये। आवेश ग्रस्तों के बारे में यह बात और भी बढ़ा चढ़ा कर सही जा सकती है। ठंडक लगने से जितने समय में मौत होती है आग में झुलसने पर उससे कहीं जल्दी प्राण निकल जाते है। क्रोधी अपने रक्तमांस को ही नहीं जीवनी शक्ति को भी निरन्तर जलता है और अपने को खोखला बनाता रहता है। फिर कोई नाम मात्र का बनाहा मिलने पर बीमारियों से ग्रसित होकर स्वेच्छापूर्वक मौत के मुँह में घुस पड़ता है। ऐसे लोग निश्चित रूप से अकाल मृत्यु मरते हैं। अपने आपको निरंतर जलाते रहने का और क्या परिणाम हो सकता है?

क्रोधी आदमी समझता है कि वह सत्य का पक्षपाती है। जो लोग गलती करते है, उन पर गुस्सा आता है। यह शब्द कहने सुनने से निर्दोष मालूम पड़ते है, पर है तथ्यों से विपरीत। गलती करने वाले को क्रोध करने से कैसे दंडित किया जा सकता है या सुधारा जा सकता है। सह समझ से परे ही उसके विरोधी बन जाते है। इस प्रकार वह अनायास ही जीती बाजी हारता है।

जिस कारण क्रोध किया गया था। उसका निराकरण हुआ या नहीं, यह बहुत पीछे की बात है। इससे पहले ही अपने स्वभाव की बदनामी, जीवनी शक्ति की घटोत्तरी और समस्या को सुझा सकने की मानसिक दक्षता में कमी आदि अनेकों हानियाँ पहले ही हो लेती है। इसी प्रकार संकोची, डरपोक व्यक्ति भी अपनी बात स्पष्ट न कर पाने के कारण निर्दोष होते हुए भी दोषी बनते रहते है।

शरीर की स्थिरता, आर्थिक सुव्यवस्था, परिवार की सुख शान्ति, गुत्थियों का समाधार, प्रगति का सुनियोजन आदि कितनी ही बातें जीवन की सफलता के लिए आवश्यक मानी जाती है। उन सब के मूल में मानसिक संतुलन की आवश्यकता है। हंसती हंसाती आदतें बनाकर ही हम जीवन रथ को प्रगति पथ पर सही रीति से अग्रगामी कर सकते हैं।


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