व्रतशीलता से महान प्रयोजनों की पूर्ति

March 1988

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व्रत यों प्रधानतया आत्मिक होते है। उनका प्रयोजन दोष, दुर्गुणों, स्वभाव, संस्कारों का उदात्तीकरण है। अनौचित्य को दृढ़तापूर्वक छोड़ना और अभीष्ट को संकल्प पूर्वक अवधारण करना, यही है-व्रतशीलता। अन्तरंग पर छाये हुए मलीनता के कुहासे को हटा देने से आत्म ज्योति की आभा उभरती है। उसी के प्रकाश में दिशा धारा का अवलंबन करने पर वास्तविक और सर्वतोमुखी प्रगति बन पड़ती है।

आमतौर से मनुष्य पर चंचलता, असिरता छायी रहती है। किसी निश्चय पर देर तक स्थिर रहना बन नहीं पाता। विशेषतया आदर्शवादी निश्चयों के लिए संकल्पवान होना तो ओर भी कठिन है। पानी का नीचे की ओर बहना स्वाभाविक है। ऊपर उठाने के लिए विशेष उपाय अपनाने और विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता पड़ती है। अध्यात्म विज्ञान की उपलब्धि एक ही है-अन्तरंग क्षेत्र की पवित्रता, प्रखरता एवं उत्कृष्टता। इस लक्ष्य की उपलब्धि के लिए मनोनिग्रह की साधना करनी पड़ती है। वह संकल्प बल की स्थिति सुदृढ़ न हो तो कुसंस्कारों से पीछा छूटता ही नहीं और उत्कर्ष की कल्पना कार्यान्वित होने के स्तर तक पहुँचती ही नहीं अस्तु साधना क्षेत्र में कारगर प्रगति करने के लिए संकल्प शक्ति को सुदृढ़ बनाने की प्रक्रिया से कार्यारंभ करना होता है।

यह कार्य छोटे छोटे व्रत लेते रहने और उन्हें पूरा करते रहने से बन पड़ता है। संकल्प टूटने से निराश होती है और भविष्य में कोई बड़ा कदम उठाने की, बड़ी हिम्मत करने की उमंग नहीं उठती जबकि प्रतिज्ञाएं पूरी होते चलने पर आत्म विश्वास बढ़ता है और साहस का परिपोषण होता है।

इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए व्रत संकल्पों को लेते रहने और उन्हें पूरा करते चलने का विधान है। इस अवधारणाओं को शास्त्रकारों ने तप तितीक्षा के नाम से निरूपित किया है।

अध्यात्म-आदर्शों के मार्ग पर चलने के लिए अभ्यस्त आदतों में व्यवधान पड़ता है। कुटुम्बी संबंधी उस दिशा में कदम बढ़ाने से रोते है, कारण कि इससे असीम उपार्जन में भी कभी आती है और पुण्य परमार्थ जैसा कुछ करने पर भी घर के सुख साधनों में कटौती होती दीखते है। अतएव उनका विरोध असहयोग स्वाभाविक भी है। प्रचलन भी वैसा नहीं है। आदर्शों पर आधारित गतिविधियाँ अपनाते हुए इर्द–गिर्द के लोग दीखते भी नहीं सभी को संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति के लिए आपाधापी करते देखा जाता है। इसलिए तथाकथित स्वजनों द्वारा पूजा पाठ के लिए तो कुछ छूट तो इसलिए मिल जाती है कि उस आधार पर देवी देवताओं को वशवर्ती बनाकर सुविधा सम्पन्नता प्रदान करने वाले वरदान मिलने की आशा रहती है, किन्तु यथार्थवादी अध्यात्मक में तो आत्मपरिष्कार एवं पुण्य परमार्थ के लिए कुछ करना आवश्यक होता है। इसके लिए न अपना अभ्यास होता है और न स्वजनों का सहयोग समर्थन। जिन्हें चलना है एकाकी संकल्प अपना कर ही आगे बढ़ने का संकल्प जुटाना पड़ता है। उसका अभाव रहने पर आदर्शवादी आकाँक्षाएं मात्र कल्पना बन कर रह जाती है। कदम बढ़ाने पर आन्तरिक दुर्बलता और वातावरण की प्रतिकूलता समाने आ खड़ी होती हैं इससे निपटने के लिए साहस भरे संकल्प को अपनाते के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। अन्त प्रेरणा के अनुरूप आत्मविश्वास उभारना और मानवी गरिमा को प्रखर बनाने वाले प्रयासों में निरत होना उच्चस्तरीय संकल्प शक्ति पर ही अवलम्बित।

इस विशिष्टता को अंकुरित करने, सींचने और परिपक्वता की स्थिति तक पहुँचाने के लिए सर्वप्रथम व्रतशीलता को समर्थ साधना के रूप में अपनाना पड़ता है। स्वाध्याय-सत्संग से सद्विचार तो उठते है और सद्भाव भी उभरते है पर उन्हें प्रत्यक्ष परिपोषण न मिलने से समुन्नत चिन्तन पोषण के अभाव मुरझाते सूखते ही जाता है। इस अड़चन से निपटने के लिए छोटी छोटी दिक्षाएं अपनाने और उन्हें पूरा करते रहने का सिलसिला चलाया जाना चाहिए। तितिक्षाएं प्रमुखतया आदर्शवादी साहसिकता को उभारने के लिए ही की जाती है।

सामंत सुविधाओं एवं आदतों को कुछ समय के लिए की सीमा तक रोक देने का दुस्साहस ही व्रत तप है। खान पान के संबंध में उपवास प्रसिद्ध है। कुछ समय के लिए नमक छोड़, शक्कर त्यागना, उबला आहार छोड़ना, घी छोड़ देना, पक्वान्न मिष्ठान न लेने जैसी प्रतिज्ञा ना व्रतशीलता का एक अंग है। मन इन्हें ग्रहण करने के लिए लिए ललचाता है। बार बार इच्छा उठती है। पर उनको संकल्प का स्मरण करते हुए निरस्त करना पड़ा है। मनोनिग्रह है, आत्म विजय भी।

आहार के अतिरिक्त अमुक अवधि तक ब्रह्मचर्य करने की प्रतिज्ञा करना भी इस स्तर की साधना है। शीत कम को सहन शक्ति की सीमा तक सहन करना भी इसी का व्रत गिना जाता है। थोड़ी सर्दी लगती ह रहे, थोड़ी सदी अपना प्रभाव डालती रहे, ऐसी तितिक्षा भी मनोबल .... है। जूते न पहनना, बाल बढ़ा कर सौंदर्य प्रदर्शन के संदर्भ में मन मारना भी ऐसा ही साहस है। ऐसे छोटे छोटे .... थोड़ी थोड़ी अवधि के लिए यदि एक एक करे किये जाते रहे तो उनके पूरा होते रहने पर मन की प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है और वह भौतिकता के आकर्षण में बहते जाने जैसे दुर्बल स्थिति में नहीं रहता। उसमें चौड़ी .... को तैरकर पार कर सकने जैसा पराक्रम उभर आता है। छोटी सफलताएं प्राप्त करने पर मानसिक स्तर इतना समर्थ हो जाता है कि और बड़े संकल्प कर सके, बड़े कदम उठा सकने और उनके पूरा होने तक प्रगति पथ पर दृढ़ता पूर्वक अड़ा रहे। महामानवों द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले महान कार्यों की पृष्ठभूमि यही रहती रही है। अणुव्रत की महत्ता इसीलिए गाई गई है।

द्रौपदी ने कौरवों द्वारा अपमान किये जाने का प्रतिशोध करने की प्रतिज्ञा पूरी न होने तक के लिए बाल बखेर लिए थे। उन्हें फिर तभी बाँधा जब वह प्रण पूरा हो गया चाणक्य ने भी अपने अपमान का बदला लेने के लिए तब तक चोटी में गाँठ न लगाने की घोषणा की थी जब तक कि प्रतिशोध पूरा न हो जाए। यह आक्रोश भरे संकल्प थे पर उदार चेता किसी। सत्प्रयोजन के निमित्त ही व्रत धारण करते है। उनका लक्ष्य रचनात्मक और सुधारात्मक होता है।

परिवार के लोग पढ़ने लिखने में रुचि नहीं लेते तो उनमें उत्साह उभारने के लिए गृहपति जमीन पर सोने की चारपाई का उपयोग न करने की घोषणा करते देखे गए है। इस प्रकार के छोटे सत्याग्रह भी उपेक्षा को उलट कर सत्प्रयोजन के लिए उत्साह उत्पन्न करते देखे गये है। पुस्तकालय ने बनने तक प्रौढ़ शिक्षा न चल पड़ने तक के लिए कुछ व्रत लिये जा सकते है। इसका प्रभाव अपना निज का उत्साह प्रयास अक्षुण्ण बनाये रखने में सहायक होता हैं। दूसरे लोगों में भी सहानुभूति जगती है और वे पहले जिस प्रसंग में उपेक्षा बरतते थे, उसमें सहानुभूति

गंगा तट पर नरोरा क्षेत्र में हर वर्ष बाढ़ का पानी आकर नुकसान पहुँचाता था। वहाँ रहने वाले हरी बाबा ने औरों में उत्साह न देखकर स्वयं ही बाँध बनाने का संकल्प लिया और फावड़ा टोकरी लेकर अकेले ही उस काम में जुट गये। देखा देखी उस गाँव के ही नहीं अन्य गाँवों के लोग भी स्वेच्छा से श्रमदान के लिए आने लगे। फलतः कुछ ही महीनों में बाँध बंधकर तैयार हो गया। फरियाद द्वारा नहर खोद जाने का संकल्प वालों को निज का साहस, दूसरों का सहयोग और दैवी अनुग्रह साथ देता है और महान प्रयोजनों की पूर्ति कराता है


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