समृद्धि की कामना उचित नहीं

March 1988

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ऋषियों की मान्यता है कि मनुष्य का सर्वतोमुखी निष्कर्ष होना चाहिए। इस उत्कर्ष में जहाँ ज्ञान, वैभव, प्रतिभा, प्रखरता की आवश्यकता पड़ती है वहीं धन सम्पदा की भी आवश्यकता पड़ती है। धन के अभाव में जीवन जटिल हो जाता है। उसकी कमी न रहे इसलिए उसकी प्राप्ति के लिए दैवी अनुग्रह का आह्वान करते हुए में .... प्रार्थना की की गई है -

“वयंस्याम पतयों रयीणाम” अर्थाित् हम सब अनेक .... के धनों के स्वामी बने।

समृद्धि की कामना करना और उसे सम्मान देना अनुचित नहीं है। पर इससे पूर्व इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि वह किस प्रकार अर्जित की गई है। आज धन सम्पदा का महत्व बढ़ता जा रहा है, लोग उसे ही अपना सच्चा साथी मानने लगे है एवं उचित अनुचित हर परियाय को काम में लेकर जल्दी सम्पन्न हो जाना चाहते है। प्राचीन काल में धन का सम्मान इसलिए किया जाता था कि उसके पीछे व्यक्ति के परिश्रम और पुरुषार्थ की बनी लिखी रहती थी। ऐसा नहीं होता था कि व्यक्ति जिस तिस तरह से अमीर हो जाए और उसे मान प्रतिष्ठा .... लगे। नीति न्यायपूर्वक उपार्जित संपदा को भी वर अनुग्रह के साथ सम्बद्ध करके रखा तथा उसे पवित्र पुनीत कार्यों में ही व्यय किया जाता था। उपार्जित संपदा कुसंस्कारी होकर उत्कर्ष की जगह पतन का कारण बन जाए, इसलिए उसके साथ देव अनुग्रह की प्रार्थना की गई है। देव अनुग्रह धनशक्ति को सुसंस्कारी और ऊर्ध्वगामी बनाये रखेगा, ऐसा विश्वास किया गया है।

इच्छित मात्र में सुख समृद्धि सम्पत्ति मनुष्य अपने स्वार्थ के बल पर कमा सकता है और कमाता भी है। स्वार्थ के अभाव में तो दैवी सहयोग भी व्यर्थ चला जाता दैवी सत्ता का सहयोग यहाँ इसलिए माँगा गया है कि सम्पत्ति मानवी उत्थान का ही माध्यम बने। दुर्बुद्धि होकर मनुष्य कहीं उसका दुरुपयोग करके अवनति .... होकर मनुष्य कहीं उसका दुरुपयोग करे अवनति .... में न जा गिरे।

धन से अपनी आवश्यकताएं पूरी करने और परमार्थ करने का क्रम चलता रहे, इसके लिए कमाई का क्रम टूटता नहीं चाहिए। धनार्जन में लगने वाला धन कम नहीं पड़ता चाहिए। इसके लिए पाँच देव शक्तियों का सहयोग चाहा गया है। प्रकारांतर से यह उन पाँच देववृत्तियों का अंकुश अपने ऊपर लगा लेना है जो मानवी वृत्ति को सन्मार्गगामी बनाती है। इन्द्र अर्थात् देवेन्द्र के सहयोग से जहाँ सर्वोच्च स्तर तक प्रगति की कामना की गई, वहाँ देवशक्तियों को सशक्त, संगठित बनाने का उत्तरदायित्व भी साथ में जुड़ा है। प्रजापति का अर्थ है - प्रजा का परिपालन करने वाली दिव्य सत्ता। जिसके सहयोग से आने वाला धन न तो किसी का हक छीन कर पाया जा सकता है न किसी का खून चूसकर बेईमानी से मिलावट आदि कर लोगों को मौत के मुँह में धकेल कर भी ऐसा धन प्राप्त किया जा सकता है। उपार्जन और उपयोग दोनों में जन सामान्य के पालन का भाव अनिवार्य रूप से साथ लेकर चलना पड़ता है। इसी प्रकार सविता शक्ति प्रकाश जीवनी शक्ति, स्फूर्ति देने वाली होने के कारण व्यक्ति को धन का सदुपयोग गिरों को उठाने आगे बढ़ाने, आरोग्य प्रदान करने को प्रेरित करती है।

सोम शान्ति और पुष्टिदायक है। धन क्लेश, कलह, कारक न हो। बेचैनी अस्थिरता पैदा न करे ऐसा संस्कार धन में सोम के संस्पर्श से आता है। अग्नि तेजस्विता, उर्ध्वगामिता, अग्रणी बनाने वाली शक्ति है। पतन पराभव से बचाने, उन्नतिशील, यशस्वी, ऊर्जा सम्पन्न बनाने का संस्कार इस शक्ति से प्राप्त किया जाता है।

धन कमाया जाए, खून कमाया जाए, उसमें कमी न पड़ने पाये। पर वह होना चाहिए न्यायोचित एवं नैतिक मर्यादा में रहकर धन प्राप्ति के लिए जहाँ प्रार्थना की गई है वहाँ यह निर्देश भी है -

“अग्निना रयिमश्नवत पोष्मेव दिने दिने। यशसं वीरवत्तमस्। अर्थात् धन का अर्जन करो, पर इस प्रकार कि वह तुम्हारी (मानवों) शक्ति को दिनोंदिन पोषण दे। ऐसा धन कमाओ जो सुयश बढ़ाये और वीरों-सत्पुरुषों के काम आये।

*समाप्त*


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