द्विजत्व की अवधारणा

March 1988

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भारतीय संस्कृति में द्विजत्व को अत्यधिक महत्व दिया गया है। उसे प्रमुख संस्कारों में सम्मिलित करके उपनयन या दीक्षा का नाम दिया गया है। द्विजों को श्रेष्ठ और वरिष्ठ ठहराया गया है, जबकि उससे रहित लोगों को हेय दृष्टि से देखा गया है। चतुर्थ वर्ण कहकर अनगढ़ लोगों में गिना गया है। द्विजत्व प्राप्त कर लेना किसी के लिए भी गर्व गौरव भरी उपलब्धि समझा गया है।

प्रयोजन जातिगत वंश परम्परा से नहीं। वरन् गुण कर्म, स्वभाव स्तर के साथ जुड़ता है। शरीर संरचना की दृष्टि से सभी मनुष्य समान है। नस्ल की दृष्टि से मनुष्य प्राणी सभी समान है। उनमें किसी को भी जन्म जाता रूप से न छोटा माना जा सकता है न बड़ा न कोई ऊंच न नीच। व्यक्ति के साथ जुड़ी हुई उत्कृष्टता, निकृष्टता ही किसी को श्रेष्ठ या हेय बनाती है। रावण ब्राह्मण ही किसी को श्रेष्ठ या हेय बनाती हैं। रावण ब्राह्मण होते हुए भी असुर माना गया और केवल शबरी अद्विज होते हुए भी परम भक्तों में गिने गये। इस में जन्म को नहीं कर्म को प्रमुखता दी गई समझी जा सकी हैं

द्विज की अर्थ है दूसरी बार जन्मना। एक जन्म हर किसी का माता पिता के सहयोग से होता हैं सामान्य जन्म प्राणिमात्र का इसी प्रकार होता है, मनुष्य का भी दूसरा जन्म मनुष्य को अपनी आस्थाओं के बलबूते स्वयं लेना पड़ता है। उसका प्रतीक यज्ञोपवीत दीक्षा को माना गया है। यह आत्मज्ञान परक है। गुरु को इसका श्रेय दिया जाता है। क्योंकि उसी के माध्यम से उस तत्व ज्ञान की उपलब्धि होनी है, जिसके आधार पर नर पशु को नर देव बनने का अवसर मिलता है। सद्ज्ञान का प्रतीक गुरु है गुरु व्यक्ति को नहीं ज्ञान गरिमा को कहते है। इसमें स्वाध्याय सत्संग, चिन्तन, मनन को आधार माना गया है। यह वातावरण के प्रभाव से ही हस्तगत हो सकता है और पूर्व सचिव संस्कारों के आधार पर अन्तः प्रेरणा से भी जब मनुष्य सोचता है कि वह पशु पक्षियों से जीव जन्तुओं से अधिक विकसित एवं समर्थ है तो उसे अपनी वरिष्ठता का बोध होता है। इस बोध को व्यावहारिक जीवन में उतारने की उत्कंठा मचलती है। यहीं है वह प्रसव पीड़ा जिसमें होकर गुजरने पर दूसरा जन्म द्विजत्व उपलब्ध होता है। ऐसी दशा में पेट प्रजनन गौण हो जाता है और मानवी गरिमा के अनुरूप उत्कृष्टता अपनाने, आदर्शों को जीवन चर्या में घुला देने की योजना बनती है। इसी उत्कंठा का क्रियान्वयन दूसरा जन्म हैं

यह सुयोग हस्तगत हुआ उसी का उत्सव यज्ञोपवीत संस्कार के रूप में समारोह पूर्वक उत्साह के वातावरण में मनाया जाता है। अनेक क्षेत्रों तथा वर्गों में यज्ञोपवीत संस्कार को विवाह जैसी धूम धाम के साथ मनाया जाना है। अब उस समारोह के साथ व्यक्तित्व के निखार की अन्तराल को हिला देने वाली परिपाटी नहीं रही। मात्र शुष्क कर्मकाण्ड और खर्चीली परिपाटी उसके साथ जुड़ी रह गई है। ऐसी दशा में उसकी उपेक्षा होना स्वाभाविक ही था। इन दिनों द्विजत्व का प्रतीक यज्ञोपवीत संस्कार किसी प्रकार चिन्ह पूजा के रूप में ही पूरा होता हैं अनेकों बार उसे आडम्बर मात्र समझ कर छोड़ भी दिया है।

महत्व कर्मकाण्ड का नहीं उस भाव परिवर्तन में निर्धारण का है, उसमें नर पशु के स्तर का परित्याग आवश्यक हो जाता है और उस त्याग के साथ उच्च स्तर का परित्याग आदर्शों को चिन्तन चरित्र एवं व्यवहार में अधिकाधिक गहराई तक सम्मिलित करते चलना आवश्यक हो जाता है। यही आत्मिक प्रगति का सोपान भी है।

पशु पेट प्रजनन के लिए जीते हैं। मन की मौज ही उनकी दिशा निर्धारित करती है। स्वार्थ के अतिरिक्त और कुछ समझदारी नहीं। अपना सुख बटा देने एवं दूसरों का दुख बटा लेने जैसी प्रवृत्ति न उठती है न बनती है। संकीर्ण स्वार्थपरता की बात सोचने और वैसी ही क्रिया प्रक्रिया अपनाने के अतिरिक्त और कुछ उन्हें समझ हो नहीं। फिर ऐसे कदम उठाना तो संभव ही कैसे हो, जिसमें आत्मानुशासन जग सके संयम बरता जाए और अपनी क्षमता का पुण्य परमार्थ में नियोजन करते बन पड़े। यह पशु स्तर सर्व विदित है। मनुष्य काया में भी असंख्य नर पशु इसी स्तर के निवास करते पाये जाते है। उनकी जिन्दगी लिप्सा, लालसा में ही व्यतीत हो जाती है। वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति ही इसका एक मात्र लक्ष्य रह जाता है। जो कुछ करते और सोचते है, उनमें लाभ मोह, अहंकार को अधिकाधिक मात्र में पूरी करते रहना है। कर्तव्य का प्रधान अंग गबन जाता है। इस स्थिति को ही भव बंधन कहते है। माया पक्ष भी इसी को कहा जाता है। ऐसा दृष्टिकोण नरक जैसे निन्दित बन जाता है। उन्हें नीति, कर्तव्य, परमार्थ जैसे आधार अपनाने की इच्छा ही नहीं होती। इन्हें मानवी काया में निवास करने वाले भूत प्रेत भी कहा जा सकता है। अन्धकार में जीने की यहीं स्थिति है। आदर्शों का प्रकाश न उनके चिन्तन में उतरता है और न आचरण में इस स्तर के लोग अपनी लालसाओं को पूरा करने के लिए प्रायः न्याय नीति अपना कर सफल नहीं हो पाते। इसलिए उन्हें अनाचरण अत्याचार का मार्ग अपनाना पड़ता है। अपराधी कृत्य करते रहते है। स्वयं जलते और दूसरों को जलाते, स्वयं गिरते और दूसरों को गिराते रहते है।

द्विजत्व ठीक इससे विपरीत स्थिति है। उसमें निजी महत्वाकाँक्षाओं को आरम्भ से ही पैरों तले कुचलना पड़ता है। स्वार्थ के नाम पर शरीर पोषण की अनिवार्य आवश्यकताएं पूरी करने भर के प्रयत्न चलते है है। औसत नागरिक स्तर का गुजारा पर्याप्त लगता है। इतना उपलब्ध कर लेना किसी के लिए भी कुछ भी कठिन नहीं पड़ता। जब कीट पतंग, पशु पक्षी अपने शरीर निर्वाह की व्यवस्था सरलता पूर्वक कर लेते है। तो मनुष्य जैसे अनेकानेक शारीरिक मानसिक विशेषताओं से सम्पन्न, बुद्धिमान प्राणी के लिए उतना कुछ कर सकना क्यों कुछ कठिन होना चाहिए। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी छोटी आवश्यकताओँ की पूर्ति में क्यों अधिक समय लगाने की अधिक श्रम करने की आवश्यकता पड़नी चाहिए। जिसे आत्म कल्याण के लिए लोक मंगल के लिए सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए लगाया जा सके। स्वयं उठना और दूसरों को उठाना निरंतर बनता पड़ता रहे। लिप्सा, लालसाओं से बचाई हुई क्षमता ही परमार्थ में प्रयुक्त हो सकी है और उसी के आधार पर आत्म कल्याण तथा लोक कल्याण का दुहरा प्रयोजन साथ साथ पूरा हो सकता है।

देव स्तर का द्विजत्व किस प्रकार प्राप्त हो, इसका प्रथम चरण यही है कि आत्म संयम की साधना की जाए। इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम विचार संयम की चार कसौटियों पर अपने को खरा सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाए। ऐसा करने पर ब्राह्मणोचित जीवन जी सकना सरल और सन्तोषप्रद बन जाता है। न्यूनतम में शरीर यात्रा चलाने की योजना बनाने पर फिर हर किसी के पास इतना समय श्रम कौशल और साधन शेष बच जाता है। जिसे जनहित के परमार्थ में लगाया जा सके। महामानवों जैसा पुण्य जीवन जिया जा सके। सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए लोक कल्याण के लिए इतना कुछ किया जा सके जिसके बल पर आत्मसन्तोष जन सहयोग और देवी अनुग्रह का पुण्य प्रसाद प्रचुर परिमाण में हस्तगत किया जा सके। इस राजमार्ग पर चल पड़ना ही द्विजत्व है। उसे मानवी महानता का गौरव भी समझा जा सकता है।

व्यक्ति उच्चस्तरीय क्षमताओं का असामान्य भण्डार है एवं परमात्मा का ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार होने के कारण उसे उपलब्ध है, पर प्रसुप्त स्थिति में ही उनका अस्तित्व अन्तराल में विद्यमान रहता है। उनका उभार, जागरण उन्नयन न बने पड़े तो फिर व्यक्ति मात्र कार्य कलेवर तक ही सीमित रह जाता है। अनगढ़ स्थिति में जन मनुष्यों जैसा जीवन जीना पड़ता है। आत्म बोध और आत्म जागरण के युग्म को अध्यात्मक की तत्व दर्श की विधा माना गया है इसके लिए आत्म परिष्कार की अन्तराल परिमार्जन की आवश्यकता पड़ती है। इसी को कर पाना आमतौर से कठिन पड़ता है। बाहर के दृश्यों को हर कोई देखता है किन्तु आत्म निरीक्षण में न किसी को ज्ञान होता है और न उसके लिए उत्साह ही पाया जाता है। इसलिए समीक्षा, निन्दा दूसरों की ही सूझ पड़ती है। दूसरों के दोष ढूंढ़ना और उन्हें उजागर करते रहना ही सरल लगता है। आत्म निरीक्षण का क्रम चले तो यह सूझे कि अपने गुण कर्म, स्वभाव में कहाँ कितनी त्रुटियों का समावेश हैं उनका निराकरण किस प्रकार किया जाए। अनुपयुक्त आदतों को उखाड़ कर उनके स्थान पर किस तरह सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव का अंग बनाया जाए। इसके लिए निरीक्षण, निर्धारण करना होगा। उसी से यह भी बन पड़ेगा कि मनुष्य में देवत्व का उदय कर सके। महामानवों जैसी जीवनचर्या अपना कर अपने को धन्य बना सके और अपने संपर्क क्षेत्र को श्रेष्ठ समुन्नत बना सकने में समर्थ हो सके। इतना उनसे बन पड़े, समझना चाहिए कि उनने द्विजत्व की भूमि का में प्रवेश किया और मानवी गरिमा को अपनाकर संपर्क क्षेत्र को व्यापक वातावरण को श्रेष्ठता से भरा पूरा बनाने में उत्साहवर्धक सफलता प्राप्त करने की संभावना बन गई।

द्विजत्व की अवधारणा में वाणी को परिमार्जित करना पड़ता है, क्योंकि उसी के माध्यम से सत्परामर्श का, विचार–विनिमय का मार्ग दर्शन का सुयोग बन पड़ता है। दूसरों की सेवा करते हुए ही अपनी सेवा करते बन पड़ती है। मेंहदी पीसने वाले के हाथ अनायास ही रंग जाते है। इस बेचने का व्यवसाय करने वाले के कपड़े अपने आप महकने लगते है। अपने परिवार के पड़ोस के लोगों को सत्परामर्श देते रहने की सेवा साधना अपनाने पर जो दूसरों से कहा जा रहा है। उसे स्वयं करने के लिए भी दबाव पड़ता है। सेवा धर्म अपनाने वाले जिस प्रकार की शिक्षा दूसरों को देते है। उसका अनुकरण उन्हें स्वयं भी करना पड़ता है। न करें तो उपहास होता है। व्यंग बरसते है और किसी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इस प्रकार तथ्यतः सेवा धर्म अपनाना प्रकारान्तर से अपना परिष्कार, परिमार्जन करना भी है। कहना न होगा कि व्यक्तित्व ही प्रगति के सभी मार्ग खोलती है। वस्तुतः परमार्थ ही सच्चा स्वार्थ साधन है। द्विजत्व की यही एक मात्र शिक्षा है कि जन् जन्मान्तरों से संचित पशु प्रवृत्तियों से नाता तोड़ा जाए और देवत्व की गौरव गरिमा को जीवन चर्या में सफलतापूर्वक सम्मिश्रित किया जाय।

मनुष्य जन्म दो आधारों पर ही सफल सार्थक होता है। कि अपने आपको सर्वतोमुखी संयम की कसौटी पर निरन्तर कसते रहा जाय। उत्कृष्ट आदर्शवादिता के अनुरूप जीवन ढला या नहीं इसका निरीक्षण परीक्षण करते रहा जाय तो कमियाँ दृष्टिगोचर हो उन्हें ढूंढ़ ढूंढ़ कर निरस्त बहिष्कृत किया जाए। ऐसा बन पड़े जो अंतर्मुखी होकर कड़ाई के साथ आत्म समीक्षा करते रहने पर ही बन पड़ता है। आमतौर से सभी अपने को हर दृष्टि से भला बेकसूर और सर्वांगपूर्ण मानते है। दूसरों में ही दोष देखते और लोइना लगाते हैं। यह प्रवृत्ति उलटनी चाहिए। अन्यथा दूसरों के गुणों पर प्रसन्न होना और उनसे कुछ सीख सकना बन ही न पड़ेगा। दूसरों के दोषों का ही ध्यान रखने पर अपनी प्रवृत्ति ऐसी बन जायेगी जैसी कि कूड़ेदान में कचरा भरते जाने पर उसकी स्थिति दिन प्रतिदिन बुरी होती जाती है। पुनर्जन्म का द्विजत्व धारण करने का सीधा अभिप्रायः एक ही है कि अपने को अधिक श्रेष्ठ, अधिक वरिष्ठ, अधिक प्रखर और अधिक प्रतिभावान बनने के लिए निरन्तर प्रयत्न करते रहा जाए। किसी भी


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