मृत्यु से डर कैसा?

March 1988

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दिन के प्रकाश का विलुप्त होने और रात्रि को अंधकार के आगमन की घड़ी का आ धमकना सामान्यतः घाटे का सौदा प्रतीत होता है, किन्तु इसके साथ ही सूर्य के कान्ति हीन होने, उसके विश्राम करने और पुनः नयी ज्योत्सना साथ उदय होने की आशा भी रहती है। काल निशा में विश्राम करने के लिए जीव पुराने शरीर का परित्याग कर जाता है। यह प्रयाण काल ही मौत के नाम से जाना जाता है। सृष्टि सुव्यवस्था के संचालन की विभिन्न क्रियाओं में जन्म और मृत्यु का यह परिवर्तन चक्र एक सहज स्वाभाविक एवं अनिवार्य प्रक्रिया है। उससे बच सकना किसी भी प्राणी के लिए संभव नहीं।

थकान के बाद हरी नींद आने नींद पूरी होने के बाद जाग पड़ने की तरह मरने और पुनः जन्म लेने की क्या सम्भावना नहीं? कार्योपरान्त थकान मिटाने के लिए विश्राम आवश्यक है। यह न केवल मनुष्य, वरन् समस्त जीवों के लिए अनिवार्य है। प्रकृति चक्र में भी विश्राम की यह प्रक्रिया किसी न किसी रूप में चलती रहती है। दिन भर की थकान के बाद रात्रि को विश्राम किया जाता है। विश्राम की क्रिया शक्तिसंचय की सृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। इसी के आधार पर दूसरे दिन नये उल्लास के साथ कार्य किये जाते है।

दिन भर कार्य करने वाले मजदूर रात को विश्राम करते है, पशु-पक्षी भी अपने घोंसले में सोते है। पुराणों की आख्यायिकाओं के अनुसार सूर्य भी रात्रि की गोद में विश्राम करने जाता है। जीव भी अपनी यात्रा पथ में विश्राम करता है। वह मृत्यु शैया में अपने विगत श्रम से मुक्ति पाता है तथा पुनः नये जीवन में प्रवेश करता है। जीव की यात्रा इसी क्रम से अपने कर्मानुसार अनन्त जीवन की ओर चलती रहती है। अतः मृत्यु भी उसके प्रगति-क्रम की एक अनिवार्य सीढ़ी कही जा सकती है। अविनाशी जीवात्मा अपनी यात्रा को मौत रूपी स्टेशनों पर ठहरती हुई पूर्ण करती है, अपने गन्तव्य लक्ष्य तक पहुँचती है। जन्म और मृत्यु का यह गति चक्र न होता तो शायद ही जीवात्मा यात्रा सफल हो पाती।

मोहासिक्त व्यक्ति को ही मृत्यु से डर लगता है। देख भी जाता है कि लोग मौत का नाम सुनते ही काँपने लगते हैं। इसे अशुभ मानते हैं। किसी सगे सम्बन्धी की होने पर रोते चिल्लाते हैं। स्वयं भी मौत के डर से चिन्तित रहते हैं। जबकि मरण की सुनिश्चितता को जानते हुए भी डरना केवल अविवेक ही कहा जा सकता है।

यात्रा पर निकलने के लिए घर के सदस्यों को त्यागना पड़ता है। उनके मोह को त्यागे बिना यात्रा निकल कर नये व्यक्तियों से परिचय का, नये स्थानों को देखने का आनन्द प्राप्त नहीं किया जा सकता। जीवात्मा नये जीवन का आनन्द प्राप्त नहीं किया जा सकता। जीवात्मा नये जीवन का आनन्द प्राप्त करने की सुख .... आकर्षित करती है। वह जीर्ण आवास से मुक्ति पाक नवजीवन प्राप्त करता है। यही स्थिति मृत्यु है।

पुराना कपड़ा उतारना, पुराना घर छोड़ना और नया धारण करना कितना सुखद और आनंददायक प्रतीत है। सुख और आनन्द लिए प्रयास किया जाना संभव स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। पुराने जीवन को .... जराजीर्ण शरीर को प्रत्यावर्तित कर नव जीवन में .... करने की प्रक्रिया भी इसी तरह सुख है। यह दुखद होती। इसे जीवन यात्रा की अनिवार्य, अत्यन्त उप लाभप्रद तथा आनन्ददायक प्रक्रिया कहा जा सकता है।

अन्धेरे में प्रवेश करते समय भय लगता है रात्रि अंधकार में घर से बाहर जाने पर भी डर लगता अपरिचित व्यक्ति से बातचीत करने में हिचक महसूस होती है। नये स्थान में जाने से पूर्व भय के कारण ही बार उसके सम्बन्ध में विचार किया जाता है, उसका जाना जा जाता है। मौत के वास्तविक स्वरूप की जानकारी अभाव में ही उससे भय लगता है, अन्याय उसे हर्षोल्लास के साथ वरण किया जाता।

कार्य की सफलता में उसकी तैयारी आवश्यक है। इसके लिए कर्ता को अपनी योग्यता क्षमता का अभिवर्धन करना पड़ता है। पूर्व तैयारी के बिन श्रम एवं समय निरर्थक ही नहीं होते, वरन् लक्ष्य की पूर्णता भी संदिग्ध बनी रहती है। लक्ष्य पूर्ति के लिए उपलब्ध अवधि में योजनाबद्ध रूप से तैयारी न कर पाना ही भय क कारण होता है। परीक्षा की तैयारी के लिए लगन के साथ अध्ययन किया जाता है। अध्ययनशील विद्यार्थी को उत्तीर्ण होने की सुखद कल्पना उल्लासित करती रहती है। वह परीक्षा के क्षणों की प्रतीक्षा करता है, किन्तु इसके विपरीत तैयारी न करने वाले के लिए परीक्षा हौवा बन जाती है। उसे परीक्षा नाम से भय लगाता है।

मनुष्य जीवन के साथ जुड़े हुए कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वों को जीवन काल में ही पूर्ण कर लिया जाए उनके प्रति लापरवाही न बरती जाए, तो ऐसे कर्मनिष्ठ व्यक्ति को मृत्यु का भय क्यों हो? तब महात्मा गाँधी, भगत सिंह, आजाद की तरह हंसते हुए मौत का वरण किया जा सकता है। विवेकानन्द, रामतीर्थ, रामकृष्ण परमहंस की तरह मृत्यु को सुखद बनाया जा सकता है। जो भगवान के दरबार में न्याय की परीक्षा के लिए, जीवन कर्मों का विवरण प्रस्तुत करने के लिए, आत्मा-परमात्मा के प्रिय मिलन के लिए सदैव उद्यत रहते है, उन्हें भय किस बात का? डरता तो वह है जो अपने दायित्वों के प्रति लापरवाही बरतता-उदासीन रहता और कुकर्मों में निरत रहते हुए जीवन को यों ही निरर्थक गंवा देता है।

मौत के इस उज्ज्वल पक्ष के दर्शन की जानकारी प्राप्त कर इसकी तैयारी में जुट पड़ना ही जीवन की सार्थकता है। इसके लिए कितने समय में कितना काम निपटाना है। क्या करना और किन उपायों को अपनाना है। यह सब योजनाबद्ध रूप से ही हो सकता है। हम जीवन की अवधि 75 वर्ष माने और बचपन 15 वर्ष का समझ, तो कार्य करने के लिए 60 वर्ष ही बचते हैं। यह मनुष्य की इच्छा पर निर्भर है कि ऐसे ही निरर्थक कामों में उसे व्यतीत कर दे या ऐसा कुछ करें जिससे आत्म संतोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह की उपलब्धि हो सके। पर यह हो तभी सकता है जब निश्चित समय में निश्चित कार्य निपटा लेने का स्मरण रहे। मृत्यु तो अनिवार्य है, उसे याद रखना एक प्राकृतिक चेतावनी अपनाना है, जिसका अर्थ होता है-जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग समय रहते कर लिया जाए।

किन्तु जितने लोग है जो ऐसा सोचते और करते है बहुधा लोग मृत्यु से बचने की कपोल कल्पना में ही खोये रहते है अथवा उसे विस्तृत कर देते है, मानों उसे कभी मरना ही न पड़ेगा। मौत को गर्व के साथ वरण करने वाले कुछ ही लोग होते है। इनमें से व्यक्ति सम्मिलित होते है जो अपने आप के प्रति पूर्ण आश्वस्त होते हैं। सृष्टा के विश्व उद्यान को सुन्दर और समुन्नत बनाने के कार्य को निष्ठा के साथ करने वाला व्यक्ति ईश्वर के न्यायालय में अपने सुकृत्यों का विवरण प्रस्तुत करने को उत्साहित रहता है। रणक्षेत्र में विजयी सेनापति विजय पताका लहराता हुआ अपने राजा के पास हर्षोल्लास उपस्थित होता है। उसे अपनी विजय पर गर्व होता है। इसके विपरीत युद्ध क्षेत्र से भागने वाला पराजित सिपाही राजा के सामने उपस्थित

मृत्यु उतनी भयावह नहीं जितना कि लोगों ने इसे समझा है। मृत्यु से डरने की अपेक्षा इसकी सुनियोजित तैयारी करने की आवश्यकता है। इस सत्य को समझकर जीवन व्यवहार में परिष्कार-परिमार्जन प्रारम्भ कर दिया जाए तो कोई कारण नहीं कि मृत्यु का भय बना रहे। अपने चरित्र का आधार लेकर सत्कर्मों में संलग्न व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूर्ण करता रहे। यही जीवन यात्रा का सच्चा मार्ग है। कर्तव्य परायणता में ही वास्तविक सुख और शान्ति सन्निहित है। इन्हें पालन कर मौत से तो नहीं पर उसे भय से निश्चय ही बचा जा सकता है।


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