अनन्त का उद्गम स्त्रोत महाशून्य

March 1988

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जिस धरती पर हम बड़े होते, खेलते-कूदते और मस्ती भरा जीवन बिताते हैं, वह कहाँ से आई? यही बात इसी पीने वाले पानी, जिसके बिना क्षण भर नहीं जी सकते, उस सुखद वायु तथा ठंडक की ठिठुरन से बचाने तथा खाना पकाने में सहायक अग्नि पर लागू होती है यह सब कहाँ से टपक पड़?

इसी तरह से एक स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि सुविस्तीर्ण आकाश कहाँ से आया? हम सभी को इस आकाश-जिसे शल्य भी कहते है, कितना प्यारा और भला लगता है। यदि किसी को एक ऐसे कमरे में बन्द कर दे जहाँ से यह शून्य कहा जाने वाला आकाश न दिखाई दे, कितनी ही साधन-सुविधाएं क्यों न दे, टोकरे मिठाइयाँ भले ही रखे पर वह व्यक्ति घुटने का ही अनुभव करेगा और उसकी एक मात्र इच्छा होगी कि कब आकाश के दर्श करें, ऐसा है वह प्यारा शून्य। रात में तो तारों भरा आकाश और भला लगता है। पूर्णिमा का चाँद होने पर उसका यह सौंदर्य द्विगुणित हो जाता है। ऐसे मनोहारी इस शून्य हमसे दूर हो या पास पर लगता अपने घनिष्ठ आत्मीय-सा है। पहले की तरह ही जिज्ञासा मन को मथने लगती है कि ये सब आखिर आए कहाँ से?

हम सभी पृथ्वी के ऊपर नीले गगन की छाया में हंसते मुस्काते नाना प्रकार के खेल खेलते जीवन बिताते हैं। स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि शरीर में अपने आस पास के वातावरण में क्रीड़ा कर रही चीजों में शक्ति ऊर्जा कहाँ से आती है? बच्चों के खिलौने तो चाबी भरने से उछलने कूदने लगते है। हम सभी में चाबी भरने वाला कौन है?

यह सब जिज्ञासाएं नई नहीं है। इन्होंने ही बड़े-बड़े ऋषियों के मानस को, मस्तिष्क सागर को मथा है। इसी मन्थन से ही वह ज्ञानामृत निकला जो वेद उपनिषद् गीता तथा वेदान्त आदि में लबालब भरा है। सर हेनरी सेन अपनी गर्वोक्ति की लम्बी छलाँग-मारते हुए भले ही कितना क्योँ न कहें कि कोई वस्तुतः संसार में अपनी सत्ता नहीं रखती जिसकी मूल ग्रीक में न हो, पर यह गर्वोक्ति थोथी ही है। ग्रीक-दर्शन के बाबा-दादा थेलीज व अनेक्जीमेण्डर ने जब शून्य कहे जाने वाली सुविस्तीर्ण नीली छतरी के नीचे पृथ्वी की गोद में अपनी आंखें भी न खोली थी। उससे भी ए दो नहीं हजारों साल पूर्व उपनिषदों व पूर्वार्त्त-दर्शन ने इन सभी प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत किया था।

दर्शन का प्रारम्भ उपरोक्त जिज्ञासाओं से ही हुआ अर्थात् सब का मूल क्या है? समस्त ऊर्जा-शक्ति का स्रोत क्या है? समस्त जगत में प्रायः सभी लोग पंच तत्वों को अवधारण करते है-पृथ्वी जल, वायु, अग्नि और आकाश प्रचलित विज्ञान में जिन 207 या अधिक तत्वों की चर्चा की जाती है, उन्हें तो पृथ्वी जल और वायु अपने आँचल में समेट लेते है। समस्त ऊर्जाओं पर अग्नि अपना हक जमा देती है और आकाश की व्याख्या न कर पाने के कारण विज्ञान इसे अविज्ञात कहकर अपना पिण्ड छुड़ा लेता है।

उपनिषदों में प्रवाहन जैबालि-आकाश तत्व मूलतः सिद्धान्त प्रतिपादित कर इसी की सुस्पष्ट व्याख्या करता है। जबकि ग्रीक दर्शन घिसटते-घिसटते बहुत देर से इस तक पहुँच पाता है। थैलीज अनेक्सीमैण्डर, हैराक्लाईट्स एम्पीडोक्लीज क्रमशः जल, वायु, पृथ्वी और अग्नि के मूल तत्व होने की बात कहते है, पर अरस्तु के मतानुसार आकाश की चरम तत्व है। इस तक पहुँचने में बहुत अधिक दार्शनिक विकास की आवश्यकता है। जब प्रवाहन जैबालि से पूछा गया कि पदार्थों की चरम गति क्या है? तो उन्होंने उत्तर दिया शून्य (आकाश)- इन समस्त पदार्थों, चारों तत्वों का उद्भव आकाश से ही होता है और अन्त में इसी शून्य में विलय हो जाता है। छांदोग्य उपनिषद् इस तरह आकाश को चरम तत्व मानता है और यह भी स्पष्ट करता है कि आकाश की उत्पत्ति और सबका कारण चिदाकाश या महाशून्य ही है।

बौद्धों के महामना-सम्प्रदाय के माध्यमिक दर्श का शून्य वैदिक दर्शन से ही लिया गया है। नागार्जुन का शून्य और आचार्यशंकर का ब्रह्म एक ही है। ब्रडेले और ग्रीन भी इसे स्वीकारते हैं। प्रख्यात मनीषी डॉ. डी टी सर्ज्रक भारतीय चिंतन को स्वीकारते हुए कहते हैं कि शून्य से जगत की उत्पत्ति हुई। मैक्सिको के डॉन जुआन इस सत्य को स्वीकारने पर बल देते है।

वैदिक ऋषियों की हर तरह चीनी सन्तों ने भी स्वीकारा है कि सम्पूर्ण सृष्टि से ही अभिव्यक्त होती है और इसी में लय हो जाती है।

आधुनिक विज्ञान भी ऋषियों के इस कथन को मान्यता देता है। प्रसिद्ध भौतिकीविद् तथा खगोल शास्त्री फेडहाँयल चिदाकाश से रही आकाश आदि पंच तत्वों के उद्भव की बात मानते है। चिदाकाश को उन्होंने वैज्ञानिक भाषा में “कारिमक डस्ट” की संज्ञा दी है। भौतिक शास्त्री व दार्शनिक प्रो. अर्नेस्ट मार्च ने बताया है थ्क शून्य ही पदार्थ व शक्ति का स्रोत है। अलबर्ट आइन्स्टीन का कहना है थ्क हमें इन सब तत्वों की उत्पत्ति शून्य से ही माननी होगी।

चीनी चिन्तक कुआन त्यू भारतीय तत्व चिन्तन की ही तरह बताते है कि परम सत्ता ताओ निराकार और शून्य है- इसी से सबका उद्भव हुआ। लोओं त्यू इसी शून्यता को बताने के लिए अनेक अलंकार लगाते हुए परमतत्व को कभी महाशून्य बताते है कभी अनन्त शून्य। इस शून्यता के बारे में पूर्वी संतों ने कहा कि यह सामान्य शून्यता नहीं है। यह वह महाशून्यता है जिससे शून्य पृथ्वी आदि तत्वों का विकास हुआ। पूर्वी संतों की इस बात को सब एटामिक ऑफ क्वाँटम् फील्ड के वैज्ञानिक एक मत से स्वीकारते हुए निष्कर्ष देते हैं कि ऐसे ही किसी मूलस्रोत से विभिन्नता की उत्पत्ति हुई।

भारतीय तत्वविद यह मानते हैं कि यह महाशून्य ही समस्त शक्तियों व विविध ऊर्जाओं का अक्षय स्रोत है। चीन तत्वशास्त्री चाँगत्साई का भी यही मानना है कि माहशून्य ही चाई (ऊर्जा) का स्रोत है। शून्य आदि विविध तत्व इसी की शक्ति से चल रहे है - गतिमान। शून्य का लय इसी महाशून्य में हो जाता है।

यह ऊर्जा वह शक्ति है जो हमारे शरीर को चलाती है इसी से दुनिया भर के कार्य व्यवहार होते है। वैज्ञानिकों की भाषा में इसके विविध स्वरूप गति ऊर्जा, तापीय ऊर्जा, गुरुत्वीय ऊर्जा, विद्युत ऊर्जा, रासायनिक ऊर्जा आदि है। एक ऊर्जा दूसरे प्रकार की ऊर्जा में रूपांतरित होती रहती है पर विनष्ट नहीं होती। यह एक शाश्वत सिद्धान्त है।

विज्ञान जगत में आइन्स्टीन के सापेक्षिता सिद्धान्त के प्रवेश करने से यह स्पष्ट भी हो गया है, द्रव्यमान (पदार्थ भी ऊर्जा का स्वरूप है, अर्थात् ऊर्जा के केवल वे स्वरूप नहीं है जिन्हें शास्त्रीय भौतिकी मानती थी। पदार्थ में भी ऊर्जा निहित है थोड़ी नहीं बहुत-उसका विश्व प्रसिद्ध समीकरण श्व = रुष्ट यह सिद्ध कर देता है। अतएव पदार्थ भी विनष्ट नहीं होता अपितु रूप बदलता रहता है।

भारतीय दर्शन भी-नष्ट होने की बात नहीं करता अपितु यही कहता है कि इस बहुरूपिय संसार में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है और बात में सभी परमतत्व में लय हो जाएगा।

आज कल ऊर्जा के विविध स्रोतों के ढूंढ़े खोज की होड़ लगी है। इस खोज बनी में ऐसे तथ्य प्रकाश में आ रहे है जिनसे वैदिक ऋषियों की बातों की वैज्ञानिक पुष्टि होती है।

भारतीय चिंतन में सर्वत्र शक्ति की व्यापकता बताई गयी है। भौतिकीय ऊर्जा, सौर ऊर्जा, आदि न जाने कहाँ कहाँ से ऊर्जा पाने के तरीके ढूंढ़ निकाले जा रहे है। पृथ्वी, जल, वायु अग्नि के व्यापक उपयोग, उपभोग के बाद भी शून्य ही सबका कारण है एवं ऊर्जा का भण्डार भी होगा ऐसी कल्पना भी पूर्व काल के वैज्ञानिकों को न थी पर आधुनिक वैज्ञानिक आकाश को असंख्य ऊर्जा से भरा पूरा मानने लगे हैं। उनके अनुसार इसमें असंख्य अंतरिक्ष कणों-न्यूट्रिनों की बरसात होती रहती है। आकाश में तारों का विस्फोट होता रहता है और व सुपर नोवा बनकर एक ज्योति पुँज के रूप में बिखर जाता है। यह बिखरना ऐसे ही न्यूट्रिनों कहे जाने वाले कणों में होता है। यह ऐसे सूक्ष्म कण है जो परमाणु के बीच से पार होकर आधुनिकतम यंत्रों से सम्पन्न प्रयोगशाला के मालिक इन वैज्ञानिक को अँगूठा दिखाते, चिढ़ाते हुए अनन्त में लीन हो जाते है। अतएव अब हार मान कर वैज्ञानिकों ने शक्ति की व्यापकता तथा महाशून्य में विलय होने की बात स्वीकार कर ली है।

अब वो शून्य के ऊर्जा से भरे पूरे होने की बात व्यावहारिक व प्रायोगिक स्तर पर परमाणु ऊर्जा विभाग में कार्यरत एक वैज्ञानिक (परम हंस तिवारी) ने सिद्ध कर भारतीय तत्वविदों की महानता को संसार के पलट कर पूरी तरह सिद्ध कर सभी मूर्धन्य विद्वानों का चमत्कृत कर दिया है।

यह तो ऊर्जा को सर्वव्यापकता की बात हुई है पर यह ऊर्जा तो गिरगिट की तरह पल पल में रंग बदलती है। इसका हम अपने जीवन में समुचित उपयोग तो करे, पर इसी को सत्य मानकर विविध ऊर्जाओं द्वारा चालित दृश्यों में उलझकर पागलों की तरह ठगे से न रहे। इस तरह सत्य से मुख न मोड़ने, जीवन लक्ष्य को न भूलने का सन्देश ऋषि मनीषी देते है।

संसार के इस बहुरूपिएपन के कारण ही भगवान बुद्ध ने कहा था कि संसार में दिखाई देने सब कुछ नित्य परिवर्तनशील होने के कारण अनित्य है। अतएव इसमें न उलझकर सत्य को पाने की कोशिश करो। इसी की डॉ. डीटी सजुकी ने अपनी पुस्तक “द एजेन्स ऑफ बुद्धिज्म” में और अधिक स्पष्ट करते हुए बताया है-ऋषियों की तरह बौद्ध भी पदार्थ की अनित्यता, नित्य परिवर्तनशीलता को मानते है और निरपेक्ष सत्ता को पाने में विश्वास रखते हैं। इसका समर्थन भौतिकविद् मैक्सवेल भी करते है।

विविध ऊर्जा शक्तियों के भुलावे की इस गुत्थी को भारतीय तत्वदर्शन सार समझी जाने वाली गीता सुलझाती हुई बताती है कि समणमाम् और वासुदेवः सर्वमित् के इस संसार में दो प्रकार की ऊर्जा शक्तियाँ खेलकर रही है। एक है “अपरा” जिसमें जड़ पदार्थों के परमाणु हलचल करते और नए-नए पदार्थ बनते-बिगड़ते रहे है। नित्य नवीन चीजों का निर्माण होता और मिटता है। दूसरी है “परा” जो जीव अर्थात् प्राणि-वनस्पतियों के चेतन कहे जाने वालों को बनाती और जन्म धारण करती है। इस प्रकार गीता नवीन साँख्य सिद्धान्त का सुन्दर ढंग से प्रस्तुतीकरण करती है। यह अपरा हो या परा-जड़ हो या चेतन-दोनों को “यंत्र रुढानि” घुमाने वाला समस्त ऊर्जा शक्तियों का स्वामी परब्रह्म परमेश्वर है। इसी कारण उस सर्वशक्तिमान भी कहा गया है। इसे महाशून्य कहा जाए या ब्रह्म। ताओ कहा जाए या कुछ और पर शाश्वत सत्य है यह एक। सबको स्पष्ट करते हुए गीताकार मत एवं अर्थात् यह सब मुझ परमेश्वर से अभिव्यक्त हुआ है और चतुर्दिक ऊर्जा शक्ति के जो विविध खेल दिखाई पड़ रहे है, इन खेलों में भागीदार कहे जाने वाले में, बलवानों में बल बलवातास्मि अर्थात् बल शक्ति ऊर्जा कुछ भी कहा- हूँ मैं ही। बाद में इसी को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यह सब लुभावना कितना ही लगे- पर है अनित्य अहकृतस्नस्य जगत-प्रभवं प्रलसस्तया”- मेरे से ही पैदा हुआ है, मुझमें स्थित है और मुझमें ही लय हो जायेगा। जादूगर का जादू चाहे जितना अच्छा लगे, लुभावना, आकर्षक हो, पर सत्य नहीं है। सत्य तो एक मात्र जादूगर है न कि उसका विविध प्रकारों वाला जादू। उसी प्रकार सत्य-नित्य शाश्वत तो परमेश्वर ही है, न कि रंग बिरंगे सृष्टि के खेल।

विभिन्न ऊर्जा शक्तियों की उपयोगिता तो है आवश्यकता भी है। वैदिक ऋषि भी इसे नकारते नहीं है। वे तो “तेन त्येक्तेन भुज्जीया” की बात कहते हुए स्पष्ट करते हैं कि जीव निर्वाह के लिए इन शक्ति साधनों का सदुपयोग करो, पर जीवन के उद्देश्य में मत फंसो। ये साधन तो है पर साध्य नहीं।

साध्य, उद्देश्य तो अपने स्वरूप को जानना, उस मूक सत्ता को पाना है जो विविध ऊर्जाओं-शक्तियों का आदि स्रोत है। मात्र पाना ही नहीं सर्व शक्तिमान जो चिदाकाश या महाशून्य है से एकीकृत होकर सत चित्त, आनन्द की त्रिवेणी में अवगाहन करना है। जीवन का यथार्थ आनन्द वास्तविक सुख इसी स्थिति में है। इसी कारण गीता-व्यक्त करती है “ये लब्ध्वा-चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत्” अर्थात् इसको पाकर किसी को पाना शेष नहीं रहता, किसी ढूंढ़ खोज की आवश्यकता नहीं रह जाती। इसको पा सकना प्रत्येक के लिए साधनात्मक अनुशासन को स्वीकार कर नहीं सुनिश्चित भी है।


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