प्रसुप्त दिव्य शक्तियों का भण्डार मानवी काया में बीज रूप से प्रचुर परिणाम में विद्यमान है। दैनिक क्रिया कलापों में उनका बहुत छोटा भाग ही प्रयुक्त हो पाता है जो वस्तु निष्क्रिय पड़ी रहती है, वह अपनी क्षमता खो बैठती है। पड़े रहने वाले चाकू को जंग खा जाती है। कोठों में बन्द अनाज को कीड़े लग जाते है। बक्से में बन्द कपड़े अनायास ही कड़ने लगते हैं। खाली पड़े रहने वाले मकानों में सीलन, सड़न चढ़ती है और चूहे, छछूँदर, चमगादड़, जैसे जीव उसमें और भी जल्दी अच्छा खासा होल बना देते है। मानवी शक्तियों के बारे में भी यही बात है। वे पेट प्रजनन भर के लिए दौड़-धूप करता रहता है। इतने छोटे काम में शक्तियों का लघु अंश ही काम आता है, शेष उपेक्षित स्थिति में पड़ा, निष्क्रिय निर्जीव हो जाता है। अविज्ञात स्थिति तक वह समुदाय पहुँच जाता है। यदि इस प्रसुप्ति को जागृति में परिणत किया जा सके तो मनुष्य सामान्य मनुष्य न रह कर मनीषी, योगी, तपस्वी, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी स्तर का महामानव सिद्ध पुरुष बन सकता है।
स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में विद्यमान अगणित प्रसुप्त शक्ति बीजों को जागृत कैसे किया जाए। इसके लिए साधना वर्ग के दो प्रयोजन ही कार्यान्वित करने होते है। एक तप दूसरा योग। इसके दार्शनिक और क्रियापरक कितने ही स्वरूप है। अपनी स्थिति और सुविधा के आधार पर उनमें से इस विषय में रुचि लेने वाले अपने लिए मार्ग चयन करते है। तत्परता, तन्मयता अपना कर संकल्प पूर्वक अभीष्ट लक्ष्य की ओर साहसिक प्रयास करते है।
आत्मोत्कर्ष की साधनाओं के लिए मात्र कर्म काण्ड ही सब कुछ नहीं है। उसके लिए प्रयुक्त वातावरण भी चाहिए। बीज कितना ही उत्तम क्यों न हो, पर उसे विकसित, पल्लवित होने का अवसर तभी मिलता है जब भूमि उपजाऊ हो। खाद, पानी की व्यवस्था हो और देख रेख करने वाले व्यक्ति का संरक्षण मिले। विशेष क्षेत्र में विशेष प्रकार के फल, शाक, अन्न, वृक्ष वनस्पति, जीव जन्तु आदि जन्मते हैं। हर जगह हर वस्तु का उत्पादन एवं विकास नहीं होता। योग और तप के लिए यो कोई भी स्थान अपनाया जा सकता है। ‘सभी भूमि गोपाल की’ वाली उक्ति के अनुसार मन चंगा होने पर कठौती में गंगा प्रकट हो सकती है। फिर भी विशेष स्थानों का विशेष महत्व बना ही रहेगा। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सिद्ध पुरुषों का संरक्षण यह त्रिविधि विशेषताएं जिन्हें भी उपलब्ध होती है वे अपनी साधना को सिद्धि में बदलने में अधिक सफलता प्राप्त करते देखे गए है।
इस प्रयोजन के लिए हिमालय का उत्तराखण्ड क्षेत्र अधिक उपयुक्त सिद्ध होता है। इसलिए कितने ही मुमुक्षु इस क्षेत्र में अन्न, जल और आच्छादन की सुविधा देख कर अपने काम चलाऊ कुटीर बना लेता बना लेते हैं। उनमें साधनारत रहते है। कभी कभी इन साधकों में कुछ सम्पन्न जन भी होते है। वे प्रेरणा पाने पर इन्हीं कुटीरों के इर्द-गिर्द कोई देवालय बना लेते है। कालान्तर में वह किसी पुरातन कथा गाथा के साथ जुड़ जाता है। दर्शनार्थी आने लगते है और भूमि का, भवन का, परिकर का विस्तार होने लगता है। कई साधन सम्पन्न ऐसे स्थानों में अपने दान का स्मारक बनाने में अधिक उपयोगिता समझते हैं। घने शहरों में घिचपिच अनेकों देवालय धर्मशालाएं बनने होते है। उनके बीच किसी एक एक का विशेष स्मरण रह सकना संभव नहीं होता।
हिमालय का उत्तर खण्ड देवात्मा भाग वस्तुतः तपोवन है। उसमें तीर्थ स्तर की सुविधा नहीं है। तीर्थों में आमतौर से गुरुकुल, आरण्यक और साधन आश्रम हुआ करते थे। उनमें सत्संग, स्वाध्याय की, निवास विश्राम की व्यवस्था रहती थी। अभी भी ऐसे तीर्थों के कितने ही प्रतीक चिन्ह जहाँ तहाँ विद्यमान है। किन्तु हिमालय में समतल भूमि की व्यवस्था नगण्य होने के कारण वैसी बड़ी व्यवस्था का सुयोग नहीं बनता रहा है। छोटे-छोटे कुटीर और आश्रम पर संभव होते रहे है उनमें व्यक्तिगत साधनाएं इस दृष्टि से होती रही है कि अन्तराल में समाहित प्रसुप्त शक्तियों का जागरण संभव हो सके। दिव्य वातावरण मिलता रह सके और उस भूमि की उर्वरता में उनका व्यक्तित्व बीच रूप में समुन्नत होते होते समर्थन सम्पन्न हो सके। साधना बढ़ते बढ़ते सिद्धि स्तर तक पहुँच सके।
हिम क्षेत्र में आधुनिकता के प्रवेश के साथ अन्यान्य कर्मियों के साथ सब से बड़ी कमी हुई है उस क्षेत्र में विचरण करने वाले सिद्ध पुरुषों की। वे मात्र शीतलता के लिए ही नहीं यहाँ बसते थे, वरन् सबसे बड़ी उपलब्धि थी निस्तब्धता। वह एकान्त में ही मिल पाती है। कोलाहल और घिचपिच का प्रभाव वातावरण पर पड़ता है फिर जिनमें व्यवसाय बुद्धि ही प्रधान है वे जन साधारण में पाये जाने वाले दोष, दुर्गुणों से भी भरे रहते हैं। प्रवृत्तियाँ भी क्षेत्र को प्रभावित करती है। योगी तपस्वी यदि वातावरण में उत्कृष्टता का संचार करते हैं तो गये-गुजरे व्यक्ति उस में प्रदूषण भी करते है। कमल पुष्पों में भ्रमण करने वाले भ्रमर दुर्गन्धित स्थानों में घुटने अनुभव करते हैं और टिकने के लिए उद्यत नहीं होते। उसी प्रकार सिद्ध पुरुष भी कोलाहल भरे, व्यवसाय बुद्धि से अनुप्राणित क्षेत्र में टिक नहीं सकते। कोई समय था जब उत्तराखण्ड क्षेत्र में, मध्यम ऊँचाई वाले क्षेत्र में भी जब तब सिद्ध पुरुषों का साक्षात्कार किन्हीं सौभाग्यशालियों को होता था। उनका परामर्श और सहयोग मिल जाया करता था पर अब वैसा नहीं होता। इस प्रयोजन के लिए जो लोग धर जाते हैं, उन्हें निराश ही वापस लौटना पड़ता है।
असल की नकल बनाने में दुनिया बड़ी प्रवीण है, नकली रेशम, नकली रत्न, नकली घी, नकली आँख, नकली दाँत तक बाजार में बहुलता के साथ सस्ते मोल में मिलते है। उनका विज्ञापन भी किया जाता है ताकि सस्ते के लोभ में कम समझ ग्राहकों को आसानी से आकर्षित किया जा सके। जन संकुल क्षेत्र के आस पास अड्डे बना कर बस जाने वाले नकली सन्तों और सिद्ध पुरुषों तक की भी बाढ़ जैसी आने लगी है। भावुक श्रद्धालु लोग आसानी से इनके चंगुल में फंसते है। पुरातन मान्यताओं के अनुरूप उनकी मनोभूमि तो बनी ही होती है। फिर सहज प्राप्ति का प्रलोभन किसी से कैसे छोड़ते बने?चिड़िया जाल में और मछली काँटे में इसी प्रलोभन के कारण फंसती है। सिद्ध पुरुषों की तलाश में निकले व्यक्ति भी आमतौर से इसी भ्रम जाल में फंसते है और जिस तिस के जाल जंजाल में फंस कर अपना मना, धन और समय खराब करते है।
कितने ही भावुक-जनों की अभिलाषा होती है कि सिद्ध पुरुषों से भेंट का सुयोग किसी प्रकार उन्हें मिले? इस कामना के पीछे मोटे रूप से तो उनकी भक्ति भावना ही दिखाई पड़ती है पर वस्तुतः ऐसा होता नहीं। वे दर्शन मात्र के अभिलाषी नहीं होते। वे उनका कोई कौतूहल, चमत्कार देखना चाहते है। चमत्कार देख चुकने पर उन्हें इस बात का भरोसा होता है कि यह सिद्ध पुरुष है या नहीं। इससे कम प्रदर्शन के बिना उन्हें इस बात का भरोसा ही नहीं होता कि यह कोई दिव्य आत्मा है भी या नहीं। जब कुछ अचम्भा, अनोखापन, जादू तमाशे जैसा कोई कौतूहल दीख पड़े तब उसके बाद अपने मन की गाँठ खोलते है। गाँठ में