क्या मानवी सत्ता मात्र रसायनों की पोटली है?

March 1988

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भारतीय दर्शन के अनुसार मनुष्य भावनाओं का एक पुँज है तथा भावनाओं की पूर्ति के लिए एक पंच भौतिक पुतला रचा गया है। यह शरीर है। शरीर भावनाओं की पूर्ति के लिए है न कि भावनाएं शरीर की पूर्ति के लिये।

जिस प्रकार बुद्धिवादी भौतिक विचारधारा के अनुसार जीवन का उद्भव कुछ रसायनों के सम्मिश्रण से हो गया, उसी प्रकार भारतीय दर्शन की मान्यता है कि जीवन का उदय परब्रह्म की उस भावना से हुआ, जिसमें उसने एक से अनेक होने की इच्छा की। वैदिक मान्यता के अनुसार अनादि ब्रह्म को जब अकेलापन अखरने लगा तो उसके मन में संकल्प उठा “एकोऽहं बहुस्यामि” तथा वह एक से अनेक में विभक्त हो गया। इस प्रकार जीव तथा मनुष्य का उद्भव भावना से हुआ।

इसीलिए मनुष्य भावना से उद्भूत भावनाओं का एक पुतला है। इस भावनाओं ने स्वयं को विचारों तथा पंचभौतिक शरीर के रूप में प्रकट किया है। शरीर भावनाओं की अभिव्यक्ति है-मनुष्य का मूल रूप नहीं।

इसे समझने के लिए मानवी सत्ता की तुलना समुद्र में तैरने वाले आइस–वर्ग से की जा सकती है। इसका 1/9 भाग ही जल के ऊपर तैरता दिखता है, शेष 8/9 भाग पानी के अन्दर होता है। यदि आइस वर्ग का अदृश्य भाग सम्पूर्ण मानवीय सत्ता है तो दृश्य भाग को इसकी काया माना जा सकता है। आज के विज्ञान ने मनुष्य को सिर्फ शरीर मानकर वैसी ही मूर्खता की है, जैसी दस नाविक ने जिसने हिमखंड को छोटा समझकर उसके गोचर भाग को ही उसका वास्तविक स्वरूप मान कर उसमें अपना जहाज भिड़ाया था।

चिकित्साशास्त्र मनुष्य को रसायन मानकर रोगों का कारण व निवारण रसायनों में खोज रहा है। इस प्रयोजन में जो उसके हाथ लगा, वह सर्वविदित है। हाई ब्लड प्रेशर पर जितनी शोध हो रही है, उतना ही वह बढ़ाता जा रहा है। शरीर का कोना-कोना छान मारने पर भी कैंसर का कारण ज्ञात नहीं हुआ। कारण वहाँ हो तो मिले। वह तो पानी के नीचे छिपे हिमखंडों के अदृश्य भाग में है, अब तथ्य सिद्ध होता जा रहा है। देखा जाता है कि अधिकाँश शरीर की व्याधि एक ऐसी भावनात्मक विकृति का बाहरी लक्षण है जो मनुष्य के गहन अन्तराल में होती है पर दीखता वह नहीं। गलती हम यह कर बैठते है कि जो दृश्यमान रोगग्रस्त भाग है, उसे ही सब कुछ मानकर उपचार उसी का करने लगते है, और जो सूत्रधार बना बैठा पूरे तंत्र का संचालन कर रहा होता है, उस अदृश्य व मुख्य कारण पक्ष की उपेक्षा कर बैठते है, फलतः चिकित्सा प्रयास के बावजूद निराशा ही हाथ लगती है। जब तक कारण के मूल तक नहीं पहुँचा जा सकेगा सफलता की आशा दुराशा मात्र ही रह जायेगी। विकृत भावनाएं कस प्रकार कायिक रोग का स्वरूप ग्रहण करती है। इसका अच्छा उदाहरण उस अमेरिकी महिला का है जो खुजली से बुरी तरह परेशान थी। यह खुजली उसे तभी उठती जब वे प्रार्थना करने गिरजाघर जाया करती। अनेकानेक उपचार करवाने पर खुजली ठीक न हो सकी। अंत में वह अमेरिका के प्रख्यात मनःशास्त्री नॉरमन विसेण्ट पिल के पास पहुँची और सारा हाल कह सुनाया। वहाँ विगत जीवन की कुरेदबीन से ज्ञान हुआ कि वह जिस फर्म में नौकरी करती थी, वहाँ से प्रायः कुछ पैसे चुरा लिया करती और अपना अर्थाभाव पूरा करती थी। कुशल विशेषज्ञ ने तुरन्त भाप लिया कि निश्चय ही रोग का कारण इसी चोरी में कहीं छिपा है। उसने महिला को सलाह दी कि वह इस चोरी को अपने मालिक के समक्ष प्रगट कर क्षमा याचना माँग ले और यह भी आश्वस्त करे कि वह आगे ऐसी गलती नहीं करेगी। महिला ने ऐसा ही किया और देखते ही देखते उसका मर्ज समाप्त हो गया।

इस प्रकार दिन प्रतिदिन यह तथ्य अब और सुस्पष्ट होता जा रहा है कि भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए ही शरीर तंत्र की व्यवस्था सृष्टा ने की है। भावनाएं जिस स्तर की होती है, उसका प्रभाव परिमाण भी काया में उसी स्तर का दृष्टिगोचर होता है। स्वच्छ भावनाओं से शरीर सदा स्वस्थ बना रहता है। जबकि रुग्ण अंतःकरण अनेकानेक बीमारियों का निमित्त कारण बनता है। इन दिनों इसके प्रमाण उदाहरण सर्वत्र देखे जा सकते है। क्या ग्रामीण, क्या शहरी, क्या अमीर, क्या गरीब आज सभी स्वास्थ्य की समस्या से परेशान है। आये दिन हट्टे-कट्टे लोग हार्ट अटैक या कैंसर से मरते देखे जाते हैं और यह सब तब हो रहा है जब हर व्यक्ति पिछले दिनों की अपेक्षा स्वास्थ्य के प्रति कहीं ज्यादा जागरूक है। पोषण के सिद्धान्त स्कूलों कॉलेजों में तथा रेडियो टेलीविजन द्वारा जन जन तक पहुँचते जा रहे है। जितनी मेडिकल रिसर्च आज हो रही है, शायद इतनी पहले कभी न हुई हो। अस्पतालों, डॉक्टरों व स्पेसरियों की संख्या उसी तरह बढ़ रही है, जैसे कैंसर का फोड़ा और उसे साथ साथ बढ़ रहे है रोग “सुरसा के मुँह” की तरह। कारण यही है कि आज के विज्ञान की मूलभूत मान्यताएं ही गलत है।

मनुष्य शरीर नहीं है तथा रोग का कारण बाह्य परिस्थितियों में विद्यमान नहीं है। इस तथ्य को स्वीकारने पर ही स्वास्थ्य संकट समेट अन्यान्य समस्याओं का सही समाधान हस्तगत होने की आशा की जा सकती है। पिछले दिनों के शोध निष्कर्ष से भी इसकी पुष्टि हुई है।

चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में शोध के दौरान पाया गया कि जीवकोश अपने वातावरण में उपलब्ध रसायनों का उपयोग भर कात है। इनसे उसके अंतरंग में चलने वाली मूलभूत प्रक्रियाएं बदलती नहीं और न किसी प्रकार से प्रभावित ही होती है। मनुष्यों तथा जानवरों में बुढ़ापे की प्रक्रिया (एजिंग प्रोसेज) का अध्ययन कर रहे वैज्ञानिकों को कुछ ऐसे ही प्रमाण मिले है। इसाडोर रॉसमैंन द्वारा संपादित “विलनिकल जिरिएट्रिक्ट” पुस्तक में बुढ़ापे की मूलभूत प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए डॉ. राल्फ गोल्डमैंन ने लिखा है “बुढ़ापा एक ऐसी प्रक्रिया है जो कोश के अन्दर से ही उपजती है। बाह्य वातावरण (रसायनों आदि) में उसका कारण विद्यमान नहीं है।”

कोशीय बुढ़ापे (सेल्युलर एजिंग) पर की गई आधुनिकतम शोधों में कोशों को रासायनिक दृष्टि से उत्तमोत्तम कल्चर माध्यमों में रखकर देखा गया। यह पाया गया कि कोश के बुढ़ापे को किसी भी पोषक या रासायनिक तत्व से रोका नहीं जा सकता। सब प्रकार के अनुकूल माध्यमों (कल्चर मीडिया) में भी कोशीय बुढ़ापे की दरी नहीं रही।

इस प्रकार सिद्ध हो गया कि दवाएं या रसायन मनुष्य बूढ़ा होने से नहीं रोक सकते। यदि मनुष्य मात्र रसायनों पर आधारित न होता। बुढ़ापे के समान ही कोशों की अन्य मूलभूत प्रक्रियाओं ने भी बाह्य रसायनों से अप्रभावित माना गया है।

जीवकोश का विभाजित होकर 1 से 2 में परिवर्तन हो जाना भी एक मूलभूत कोशीय प्रक्रिया है तथा इसका कैंसर से विशेष सम्बन्ध है कोश 1 से 2 में क्यों और कब परिवर्तित होते है, इसके नवीनतम ज्ञात नियम को “दि कन्सेण्ट ऑफ क्रिटिकल सेल मास” कहा जाता है “दि फिजियोलाजिकल बेसिस ऑफ मेडीकल प्रैक्टिस” ग्रन्थ में इस संदर्भ में विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक कोश विभाजन उसे अन्तरण से सम्बन्ध रखता है। कोश को एक से दो होने की प्रेरणा बाहर से नहीं आती। वह कोश के अन्दर से ही उपजती है। जब कोश का भार किसी निश्चित भार से अधिक हो जाता है तो वह दो में विभक्त हो जाता है। कोश को विभाजित होना चाहिए ऐसी कोई सूचना बाहर से नहीं आती। यह प्रक्रिया उस वैदिक मान्यता से बिल्कुल मेल खाती है, जिसमें कहा गया है कि जीव का उद्भव एक अन्तः स्फुरणा से हुआ।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य मात्र रसायनों का समुच्चय ही नहीं वरन् भावनाओं का पिटारा भी है। जिसमें भावनाएं प्रधान और रसायन गौण है। यदि ऐसा नहीं रहा होता, शरीर मात्र रसायनों पर आधारित होता, तो अभीष्ट रसायन के उपयुक्त परिणाम में इकट्ठा होने पर जीवकोशों का विभाजन आरंभ हो जाना चाहिए पर प्रयोगों के दौरान ऐसा कुछ होता नहीं देखा गया। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि अंतः प्रेरणा ही वह आधारभूत कारण है जो कोशों को विभाजन, अभिवर्धन, परिवर्तन को नियंत्रित करता है। तात्पर्य यह है कि जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत शरीर में जो अनेकानेक परिवर्तन परिलक्षित होते है, उसमें अंतः प्रेरणा भावना का महत्वपूर्ण हाथ होता है।

इस तथ्य पर वर्तमान युग की अभिनव-चिकित्सा विधा “सजेस्टोलाँजी” द्वारा और अधिक प्रकाश पड़ता है। इससे यह सहज ही जाना जा सकता है। कि भावना शरीर को किस हद तक प्रभावित करती है। चूँकि यह पद्धति भाव प्रधान है।, अतः सीधे भाव क्षेत्र को प्रभावित करती है। इसी कारण ऑटोसजेशन और हेट्रोसजेशन से होने वाले स्वास्थ्य लाभ चमत्कारिक स्तर के देखे जाते हैं, क्योँकि इसकी पहुँच रोग की जड़ विकृत भावना तक होती है। इस प्रणाली द्वारा कैंसर तक को ऑटोसजेशन से ठीक करने का दावा किया गया है। सजेशन से होने वाले अप्रत्याशित व चमत्कारी लाभों को देखकर बड़े-बड़ों ने दाँतों तले अंगुली दबा ली है। यह तो सभी मानते है। कि मनः संस्थान शरीर को प्रभावित करता है पर इन उदाहरणों ने शरीर तथा मन के बीच नौकर और मालिक जैसा रिश्ता स्थापित कर दिया है।

ठीक से देखा जाए तो यह कोई चमत्कार या आश्चर्य नहीं है। जिन भावनाओं पर शरीर आधारित है इन्हीं की विकृति से यह रोगी हुआ था, तथा विकृति के निवारण से स्वस्थ हो जाए, तो यह नितान्त स्वाभाविक ही है। सच तो यह है कि भावनात्मक विकृति सही हुए बिना रोग स्थायी रूप से सही हो ही नहीं सकता।

रसायनों द्वारा की गई चिकित्सा कुछ समय के लिए ऊपरी लीपा पोती तो कर सकती है, पर ये बिचारे जड़ रसायन भावनाओं में घुसी रोग की उस सूक्ष्म जड़ तक कैसे पहुँचे जब तक रोग स्रोत रूप में शरीर में विद्यमान रहेगा, तब तक वह इस रासायनिक लीपा पोती को फोड़कर किसी न किसी व्याधि के रूप प्रगट होता ही रहेगा। इसके विपरीत यदि रोगी की भावनाएं स्वस्थ हो जाये तो शरीर का स्वस्थ होना अथवा रोग का निराकरण होना अवश्यंभावी हो जायेगा।

“साईकोसोमेटिक” रोगों का भी रसायनों के आधार पर उत्तर देना असम्भव है तथा इस रोगों का साइकोथैरेपी (मनःचिकित्सा) के आधार पर जिसमें कोई रसायन नहीं खिलाए जाते, ठीक हो जाना भी एक ऐसा प्रश्न है जो रसायनों की थ्योरी से मेल नहीं खाता।

सबसे बड़ा प्रश्न वहाँ उठाता है जहाँ पैरासाइकोलॉजी की बात चलती है। अतीन्द्रिय क्षमताओं का होना वैज्ञानिक परीक्षणों के आधार पर सिद्ध किया जा चुका है कि साइफेनोमेना किसी भी भौतिक, रासायनिक आधार पर वहीं समझाई जा सकती है। एक शीशी में रखा हुआ रसायन का डेला (या एक खोपड़ी में बन्द रसायनों का पु मस्तिष्क) यह कैसे जान लेगा कि दूसरी खोपड़ी में रखा, दूसरा व्यक्ति क्या सोच रहा है?

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने इस सब जंजालों से बचने के लिए यह मान ला है कि मनुष्य में शरीर सुविधा के लिये एक मानसिक शक्ति या क्षमता भी ....

करती है पर इसका उद्भव रसायनों के शरीर से .... हुआ? इस प्रश्न के उत्तर में वह मौन है?

कुछ भी हो यह अवश्य है कि शरीर रसायनों से बना है। इसकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अन्न, जल वस्त्र जैसे माध्यमों की जरूरत होती है, यह भी सही है किन्तु यह गलत है कि रसायन ही मनुष्य शरीर को बना चलाती है और वे ही उसके मनःसंस्थान को प्रभावित कर सोचने तथा करने के लिए प्रेरित करती है। मनुष्य के साथ रसायनें लिपटी तो हैं, पर वे उसकी स्वामिनी नहीं है आत्म चेतना ही वह शक्ति है जो मानवी मस्तिष्क और शरीर की अधिष्ठात्री है। उसके सन्मार्ग, कुमार्ग का चयन करने पर जीवन की प्रगति एवं दुर्गति होती रहती है।


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