सपनों में न उलझे, सच्चाई तलाशें

March 1988

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मनुष्यों में से अधिकाँश का जीवन किसी न किसी प्रकार के सपने देखते हुए बीतता है। ऐसे कम ही लोग है जो वस्तुस्थिति जानते और यथार्थता की पृष्ठभूमि में समय बिताते है। तत्वज्ञान का उद्देश्य मनुष्य को सत्य और असत्य की पहिचान कराना है और उस भगवान तक ले पहुँचना है जिसे सत्य नारायण कहते है। हम सत्य नारायण की कथा तो कहते सुनते है, पर निर्वाह झूठ वातावरण में करते है।

मनुष्य बचपन से ही सीखना आरम्भ करता है। अभिभावक और परिवार जन जो भाषा बोलते है, जैसा भोजन करते है जैसी गतिविधियां अपनाते है, वैसी ही बालक भी अपनाने लगता है। अनुकरण प्रिय स्वभाव उसे नियति के उपहार रूप में मिला है। यह जो देखता है, उसी की नकल करने लगता है। कालान्तर में यही उसका स्वभाव बन जाता है। धीरे धीरे यह मान्यता आस्था बनती और उसी ढाँचे में चरित्र व्यक्तित्व ढल जाता है।

आवश्यक नहीं कि एक व्यक्ति की जो मान्यता हो, जैसी आदतें हो, वैसी ही अन्य वातावरण में पले व्यक्ति का स्वभाव भी हो। दोनों के बीच भारी असमानता हो सकती है यहाँ तक कि सर्वथा विपरीत रुख भी हो सकता है। कसाई के घर जन्मे और जैन धर्मी के यहाँ पले बालक की प्रवृत्ति सर्वथा भिन्न हो सकती है। एक माँसाहार में स्वाद लेता और औचित्य देखता है जबकि दूसरे को उससे सर्वथा घृणा होती है और पाप भी प्रतीत होता है।

ये स्वभाव अभ्यास की परतें इतनी मोटी और गहरी बन जाती है कि अपना पक्ष ही तथ्य और सत्य प्रतीत होता है। बुद्धि पूर्वाग्रही का ही समर्थन करती है। उसकी उपमा चतुर वकील से दी गई है जो मोटी फीस देने वाले मुवक्किल के पक्ष में ढेरों तर्क और सबूत जुटा देती है। वेश्या को जहाँ भी लालच दीखता है, वहीं प्रेम प्रदर्शित करने लगती है। उचित अनुचित का विभाजन उनके लिए बहुत ही झीना होता है। आत्मा समीक्षा बहुत कठिन है। यह तभी संभव है जब अनेक मान्यताओं का बारीकी से अध्ययन किया गया हो साथ में इतनी निष्पक्षता भी हो कि आपने पराये पूर्वाग्रह को निरस्त करके सच्चाई की गहराई तक पहुँच सकने की भी संभव हो। कभी कभी ऐसा भी होता है कि सहानुभूति के झुकाव किसी एक स्थापना की ओर ढुलकने लगे तो फिर यह संभव हो नहीं रहता कि समग्र यथार्थता की रक्षा हो सके। जिस धर्म, जाति, पड़ोस का वातावरण के साथ आना गहरा सम्बन्ध रहा है, उसकी छाप न्यूनाधिक मात्रा में रहती है। तराजू का काँटा तनिक सा फर्क रहने पर पल को ऊंचा नीचा कर देता है। सच्चाई को खोज निकालना कठिन है, फिर उसका अपनाना तो और भी अधिक जटिल है। मान्यताओं का भ्रम भी एक प्रकार का सपना है। जिस दबाव से मनुष्य उसी प्रकार से सोचता और वैसा ही क्रिया कलाप अपना लेता है। इस संदर्भ में उसे यह सन्देह नहीं होता कि जो अपना लिया गया है वह अपने लिए सर्वसाधारण के लिए कितना उपयोगी एवं उचित है।

अन्याय मान्यताओं वाले लोगों की भी यही गति होती है। वे अपनी मान्यताओं को अपनाये रहते हैं। इस प्रकार विभेद की खाई चौड़ी रहती है और वह बैर विग्रह के रूप तकाजा पहुँचती है। सम्प्रदाय सम्प्रदायों के बीच देश-देश के बीच, जाति जातियों के बीच इसी प्रकार मारकाट मच रहती है कि पक्ष विपक्ष को अपनी ही मान्यता सच मालूम पड़ती है और भिन्न विचार वालों पर सारा दोष थोप दिया जाता है। सब ओर से न्याय और औचित्य की गुहार जाती है पर वस्तुतः किस की बात में कितना सच्चाई अंश है यह कहना कठिन है। ऐसी दशा में सत्य अवलम्बन किस प्रकार बन पड़े और वास्तविकता है कि औचित्य किस प्रकार सूझे?

सत्य का अवलम्बन लिए बिना न कोई चैन से सो सकता है और न बैठने दे सकता है। न जीतता है न जीतने दे सकता है। जिस ममता और एकता की नितान्त आवश्यकता है, उन्हें इन विभेदों के रहते प्राप्त नहीं किया जा सकता। उस उपलब्धि के बिना न्याय की रक्षा नहीं हो सकती और न ऐसा कुछ हो सकता है कि मैत्री निभ सके और हंसती हंसाती जिन्दगी जी सकना संभव हो सके।

दार्शनिक विचारणायें भी इतनी ही जटिल है। ईश्वर आत्मा, परलोक अवतार, चमत्कार एवं पौराणिक मिथकों के सम्बन्ध में किसे सच माना जाए किसे झूठ? विशेषतया तब जबकि भिन्न मत मतान्तरों में न केवल भिन्न वरन् सर्वथा प्रतिकूल अभिव्यक्तियों की भरमार है। इनमें से किसी एक को सच तथा अन्य सबों को झूठ भी नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार सब को सही ठहराने पर भी जमीन आसमान जैसी भिन्नताओं के रहते समन्वय की बात भी नहीं बनती। यह हो सकता है कि अपनी मान्यता को प्रमुखता देते हुए अन्य मतों के प्रति अपेक्षा सहिष्णुता के भाव रखे जांय। यह मन समझाने और किसी प्रकार तालमेल बनाये रहने का काम चलाऊ उपचार मात्र है।

अच्छा होता निष्पक्ष मनीषियों की एक प्रतिनिधि पंचायत बनती और यह तथ्यों का पता लगाने की अपेक्षा इतना भर निष्कर्ष निकालती कि किन मान्यताओं को अपनाने से व्यक्तिगत चरित्रनिष्ठा और समाजगत न्यायशीलता की रक्षा किस प्रकार हो सकती है। इस निष्कर्षों को स्वीकारने अपनाने के लिए मूर्धन्य विज्ञजन सहमत हो। उनका तर्क, तथ्य, प्रमाण और उदाहरणों समेत प्रतिदिन प्रचार करे तो धीरे धीरे अन्य विचार शक्ति वाले लोग भी उसे अपनाते चले जायेंगे मनुष्य में जहाँ हठवादिता की प्रवृत्ति है, वहाँ उसे विवेक के प्रति भी श्रद्धा है। विवेक एवं न्याय के पक्षधर यदि आगे आये तो दुराग्रहों की कट्टरता का बहुत हद तक समाधान हो सकता है।

विलास, व्यामोह, अहंकार, पूर्वाग्रह के स्वप्नों में उलझते सुलझते लोग अपना अपना ताना बाना बुनते रहते हैं। सपने भी तो हर रात हर व्यक्ति अलग अलग प्रकार के देखता है। उन्हें मनोरंजक उड़ाने समझ कर संतोष कर लेता है। संसार में फैली हुई विविध मान्यताओं के सम्बन्ध में यदि ऐसी ही उड़ती दृष्टि रखी जाए तो कहीं अच्छा है कि उनमें से किसी एक ही परिपूर्णता पर ध्यान दिया जाए।

सत्य की तलाश एवं उपलब्धि के लिए यह उपयुक्त होगा कि प्रचलित अनेकानेक मान्यताओं में उलझने की अपेक्षा मात्र मानवी गरिमा और सामाजिक सद्भावना की बात सोची जाए और उतने पर ही जोर दिया जाए, जिससे कि न्याय औचित्य की एकता और समता की समझदारी ईमानदारी की रक्षा होती हो।

मनुष्य प्राणियों में श्रेष्ठ और धरती का देवता माना जाता है। उसे स्मरण रखना चाहिए कि चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की उत्कृष्टता हर हालत में बनाये रखी


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