प्राणियों एवं वृक्ष वनस्पतियों का जीवनदाता सूर्य को माना गया है। प्रकाश किरणों के अभाव में पेड़ पौधों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाने पर वे पीले पड़ते और दम तोड़ते हुए देखे जाते है। उपयुक्त नमी एवं खाद्य सामग्री के साथ सूर्य ताप की पर्याप्त मात्रा मिलते रहने पर उनकी नयनाभिराम हरियाली देखते ही बनती है। वनस्पति जगत पर सूर्य का यह प्रत्यक्ष प्रभाव है। अन्यान्य ग्रह नक्षत्र भी अपने सूक्ष्म प्रभाव से इन्हें प्रभावित करते रहते है। सूर्य के बाद चन्द्रमा का इन पर अधिक प्रभाव पड़ता है। यहीं कारण है कि वनौषधि विज्ञान के ज्ञाता विशेषज्ञ जड़ी बूटियों का रोपण एवं उनका संग्रहण किन्हीं विशेष तिथियों नक्षत्रों में करते है। इस समय विशेष में उनके गुणों में वृद्धि होती है साथ ही वे पूर्ण परिपक्व भी हो जाती है।
.... वैज्ञानिक हैविड काम्बे ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “द मैजिक ऑफ हर्ब्स” में लिखा है कि वनौषधियों का ज्योतिर्विज्ञान से सीधा सम्बन्ध है। इन पर ग्राह नक्षत्रों का प्रभाव कैसे पड़ता हे, यह जानने के लिए एस्ट्रोहर्बल मेडिसिन के इतिहास का अध्ययन करना आवश्यक है। वनौषधि विज्ञान का प्रणेता महर्षि चरक को माना जाता है। उनने प्रत्येक जड़ी बूटी का गहन अध्ययन किया और गुण धर्मों के आधार पर उनका वर्गीकरण किया। पाश्चात्य वैज्ञानिकों में एस्ट्रोलाजिकल हर्बेलिस्ट के रूप में निकोलस कप्पिर अधिक विख्यात है। इनका जन्म 1616 में एक पादरी के यहाँ हुआ था। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से उनने चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा प्राप्त की, किन्तु राष्ट्रीय संघर्ष के दौरान पार्लियामेण्ट में अत्यधिक व्यस्तता के कारण हृदय एवं क्षय रोग से ग्रस्त हो गये। इसी मध्य उनने ज्योतिर्विज्ञान का अध्ययन किया और तद्नुरूप जड़ी बूटियों की चिकित्सा प्रारंभ कर दी। स्वस्थ हो जाने पर अपने अनुभवों के आधार पर चिकित्सा उपचार कने लगे, जिससे उनके पास मरीजों की भीड़ बनी रहती। अपने अनुभवों को उन्होंने “कल्पिपर हर्बल्स” नामक प्रसिद्ध पुस्तक में लिपिबद्ध किया है। आज भी वह पुस्तक अपने विषय की प्रामाणिक कृति मानी जाती है। उनकी स्मृति में लंदन में कल्पपर हाउस नामक मकान में सोसायटी ऑफ हर्बलिस्ट काम कर रही है। इस संस्था की मान्यता है कि वैज्ञानिकों द्वारा ईजाद की जाने वाली नई नई दवाओं की अपेक्षा प्राकृतिक वातावरण में पाई जाने वाली वनौषधियाँ कहीं अधिक उपयोगी, लाभकारक एवं सस्ती है। आवश्यकता इतनी भर है कि सही समय पर उपयुक्त स्थलों से ही उनका चयन किया जाए।
पंद्रहवीं शताब्दी के प्रख्यात चिकित्साविद् मर्सेलो फिक्नों ने अपनी पुस्तक “लिबडी विटा” में बताया है कि जिस प्रकार विभिन्न राशियों एवं ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव मानवी काया के विभिन्न भागों पर पड़ता है, उसी तरह पेड़ पौधे भी इनसे प्रभावित होते है। हैपोक्रेटस, गेलेन तथा रेनसाँ आदि की यह मान्यता थी कि प्रत्येक वनौषधि चिकित्सक को ज्योतिर्विज्ञान का विधिवत् ज्ञाता होना आवश्यक है। इंग्लैण्ड के वनौषधि शास्त्री डॉ कैरिचर तथा जर्मनी के प्राँक की भी यहीं मान्यता है। इंग्लैंड के राबर्ट अर्नर ने “बोटानोलाँजिया” नामक चिकित्सा विज्ञान की शाखा का विस्तार किया है। चिकित्सा विशेषज्ञों ने अंतर्ग्रहीय प्रभावों का शारीरिक क्रियाओं एवं वनौषधियों पर होने वाले असर के अनेकों प्रयोगों का संकलन “एस्ट्रोलाजिकल काँरेस्पोन्डेन्स” के रूप में किया है, जिसमें विभिन्न रोगों के लिए अलग अलग वनौषधियों को ग्रह नक्षत्रों की स्थिति के अनुरूप उपयोग करने की विधि बतलाई गई है।
इस संदर्भ में नार्थ वैर्स्टन युनिवर्सिटी इसीनोटा के मूर्धन्य जीवविज्ञानी डॉक्टर फ्रैंक ब्राउन द्वारा की गई खोजबीन अधिक महत्वपूर्ण हैं उन्होंने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में कहा है कि मनुष्य के अतिरिक्त वृक्ष वनस्पतियों पर ग्रह नक्षत्रों का विशेषकर चन्द्रकलाओं का प्रभाव पड़ता है। उन पर किये गये ग्यारह वर्षों के गहन अध्ययन के तहत उन्होंने पाया कि इनका विकास क्रम चन्द्रमा की .... के घटने बढ़ने से संबंधित है। अंकुरित आलू के हुए टुकड़ों को प्रयोगशाला के नियंत्रित वातावरण में इन तापमान और आर्द्रता में रखकर उसके अन्दर होते पोषक पदार्थों के मेटोबोलिज्म तथा पौधों द्वारा वीजन की खपत की स्थिति का मापन किया गया। इस .... में डॉक्टर ब्राउन ने पाया कि उस चयापचय में चन्द्रमाओं के समान उतार चढ़ाव था। चयापचय की गति के समय सबसे कम और जब चन्द्रमा का आकार तीन .... होता है तो इस अवधि में आक्सीजन की खपत अधिक होती है। इस तथ्य की पुष्टि दूसरे पौधे पर किये गये विभिन्न प्रयोग परीक्षणों से भी हुई है।
वस्तुतः जड़ी बूटियों की एक प्रौढ़ परिपक्वावस्था होती सी में उनके उपयोगी रसायन अधिक मात्रा में भरते कच्ची स्थिति में उन्हें काट लिया जाए तो रसायनों .... से आधी चौथाई मात्रा में उन्हें काटा लिया जाए तो रसायनों से आधी चौथाई मात्रा में ही विकसित हो पाती है बात समय निकल जाने के बाद भी लागू होती है। कि उनकी वृद्धावस्था आ जाती है और प्रभाव शक्ति जाती है।
धान के पौधे पशु बड़े चाव से खाते है और जिन्हें अवसर मिले वे मजबूत होते है। ठीक इसी प्रकार पक्षियों की एक जवानी होती है। धान पक जाने कट .... जो डंठल पुआल रूप में रह जाते है, उनका फिर .... उपयोग नहीं होता इसी प्रकार जड़ी बूटियाँ .... जाती है उनके बीज बनकर बिखर जाते हैं तो फिर समझना चाहिए कि वह वयोवृद्ध सत्रवनस्पति चिन्ह पूजा जैसी ही रह गई।
ज्योतिष में वनस्पतियों के उस समय का निर्धारण है जिसमें ये प्रौढ़ होती है। नक्षत्र विद्या के ज्ञाता आसानी से समझ सकते है कि किन दिनों किस वनस्पति का गुण पूर्ण या न्यून रहेगा। इसी चिरपुरातन विधा के आधार पर आदि काल से वनौषधियों का प्रयोग मनुष्यों एवं जीव मात्र के लिए होता चला आ रहा है। अब समय क्षेप के साथ उपचार प्रक्रिया कृत्रिम होती चली गई है जो कि वातावरण के साथ साथ मानव जीवन के लिए भी हानिकारक है। कहते है कि इतिहास अपने को दुहराता है। आज पाश्चात्य जगत जो अत्याधुनिक प्रगति कर शीर्ष शिखर पर जा पहुँचा है, तनाव उद्वेग विक्षोभ संक्षोभों से पीड़ित है। उसे राहत के लिए लौटकर वनौषधि विज्ञान की ही शरण लेनी पड़ी है। फ्राँस, पश्चिम जर्मनी, हंगरी, इंग्लैण्ड आदि देशों में गत पाँच वर्षों में वनौषधियों का प्रचलन बड़ी तेजी से बढ़ा है। यही नहीं उनकी ज्योतिर्विज्ञान के साथ विलक्षण संगति को अब विज्ञान सम्मत सिद्ध किया जा चुका है। ऐसी स्थिति में क्या यह हमारा कर्तव्य नहीं कि हम जो कि इस विद्या के मूल प्रणेता है, अपने देश में पुनः इस चिकित्सा पद्धति की स्थापना कर लोकोपयोगी बनाये। कहीं ऐसा न हो कि हम वनौषधियों को टोना टोटके से थोड़े रहकर उनकी उपेक्षा करते रहे एवं बाद में “योगा” के पाश्चात्य देशों को सिखाने के बजाए उनसे सीखने की विडंबना हमें अपनानी पड़ जाए।