थकान मिटाने की सरल साधना

March 1988

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रेल, मोटर आदि यंत्रों को यदि लगातार चलने दिया जाए तो वे अत्यधिक गरम होकर बिगड़ने लगते है। मनुष्य शरीर की भी यही बात है दिमाग की भी वे लम्बे समय तक काम तो कर सकते है, पर बीच बीच में विश्राम माँगते है। रात को सो लेने पर प्रातः नई स्फूर्ति लेकर उठा जाता हैं। साप्ताहिक विश्राम ले लेने पर अगले सप्ताह अधिक अच्छी तरह काम करते बन पड़ता है। बीच बीच में उपवास करके पेट को छुट्टी मना लेने का अवसर मिल जाने पर पाचन तंत्र में जो गड़बड़ी होती है वह ठीक हो जाती है। इसी प्रकार दैनिक कार्य विधि चाहे कितनी ही लम्बी या कठिन हो बीच बीच में विश्राम चाहती है।

पर यह सब कैसे संभव हो? दफ्तर में पलंग थोड़े ही बिछा होता है। कारखाने में मध्यकालीन एक घंटे का अवकाश तो मिलता है, पर वहाँ इतना खाली स्थान नहीं होता कि मजदूर पैर फैला कर देर तक सो सके। ऐसे बहुत कम लोग होते है, जिन्हें मध्याह्न काल में थोड़ा सो लेने की निश्चिन्तता पूर्वक सुविधा मिल जाती हो। सामान्य जन तो उस से वंचित ही रहते है। ऐसी दशा में दोपहर बाद उनकी कार्य क्षमता घट जाती है। और जितना काम दोपहर तक निपटा लेते है उसकी तुलना में मध्याह्नोत्तर कहीं कम कर पाते है। यद्यपि वे अपने दायित्व को निभाने में प्रयत्न तो बन ही रहते है।

विश्राम की मध्यवर्ती आवश्यकता का वर्तमान परिस्थितियों में किस प्रकार तालमेल बैठ सकता है। इसका उत्तर ‘शिथिलीकरण मुद्रा’ के रूप में मिल जाता है। यह क्रिया सरल है। इसे किसी भी समय पन्द्रह मिनट खाली दीखने पर सहज ही किया जा सकता है, किसी भी परिस्थिति में। दुकानदार भी तब कर सकते है जब उनकी दुकान पर भीड़ न हो। अपने स्थान पर बैठे हुए भी उसे किया जा सकता है। किसी ऐसे स्थान की जयरत नहीं पड़ती जो एकान्त हो और जिसमें सोने जितने पैर फैलाने पड़। उसके लिए थोड़ी सी जगह से भी काम चल सकता है। आराम कुर्सी जैसे कुछ प्रबंध हो जाए तो बात अधिक अच्छी तरह बन जाती है। अन्यथा दीवार से पीठ लगा कर कमर के पीछे तकिया लगा कर पैर उतने आगे तक फैलाये जा सकते है, जितनी दूर कि वे आसानी से फैल सके।

शिथिलीकरण मुद्रा में करना इतना भर होता है कि शरीर को पूरी तरह ढीला कर दिया जाता है। मन को भी कोई कल्पना, चिन्ता आदि करने से रोक देना पड़ता है। दोनों की प्रत्यक्ष गतिविधियों बन्द हो जाने से भी उतना विश्राम मिल जाता जिससे पिछली थकान उतर सके और अगला काम करने के लिए ताजगी मिल सके।

स्थान यथासंभव ऐसा चुनना चाहिए जिसमें कोलाहल न हो रहा हो ऐसा होने से ध्यान बंटता है और वह एकाग्रता नहीं आने पाती जिसकी कि इस हेतु आवश्यकता है।

पैर फैला कर हाथों को लम्बा करके बैठने का उद्देश्य यह है कि किसी भी अंग अवयव पर तनाव न हरे। सभी रुई के ढेर जैसे हलक फुलके प्रतीत हो। ध्यान जमाना चाहिए और भावना करनी चाहिए कि निद्रा की स्थिति में अवयवों पर जैसी शिथिलता चढ़ती है वैसी चढ़ने लगी है। मस्तिष्क भी निद्रा के समय अपनी घुड़ दौड़ बन्द कर देता है। ऐसी स्थिति बिना गहरी निद्रा आये पूरी तरह तो नहीं बन सकती, पर संकल्प शक्ति के आधार पर उसका आधा अधूरा रूप तो बन ही जाता हैं इस स्थिति में उतनी देर रहने का प्रयत्न करना चाहिए, जितना अवकाश हो। जितनी देर इस तन्द्रा में रहने का निश्चय किया हो।

आरंभ में थोड़ी कठिनाई पड़ती है। चैतन्य और उत्तेजित अवयवों को तन्द्रा की स्थिति में कैसे पहुँचाया जाय। इसमें संकल्प शक्ति का अधिक प्रयोग करना पड़ता है। यथार्थता से विपरीत स्थिति बनाने के लिए समर्थ मनोबल की आवश्यकता पड़ती है। इससे ढीलापन रहे तो अंग पड़े ही बने रहते हैं और जिस प्रयोजन के लिए यह किया गया था वह पूरा नहीं होता।

अच्छा हो आरम्भिक अभ्यास घर पर रह कर किया था। मुलायम बिस्तर पर पैर फैला कर चित्त स्थिति में इस प्रकार लेटा जाए जैसे कि सोते समय शरीर की स्थिति की है। आँखें बन्द कर ली जाए। तेज प्रकाश जल रहा हो। उसे बुझा दिया जाए। ध्यान किया जाए कि गहरी नींद होने के बिलकुल समीप हैं। निद्रा से पूर्व जो स्थिति शरीर मन की बनती है वह बन रही है। अंग निश्चेष्ट हो रहे उनमें से अकड़न धीरे धीरे समाप्त होती चली जा रही मनन भी थक कर अपनी कोठरी में बैठ गया। कल्पनाएं, चिन्ताएं सभी समाप्त हो गई। यह कृतिक निद्रा की स्थिति है। यह मनोबल के आधार उत्पन्न की जाती है। आरम्भ में शरीरगत उत्तेजना और इच्छा शक्ति की आकाँक्षा के बीच संघर्ष चलता है। शरीर अपनी जागृति का परिचय देना चाहता है, जबकि इच्छा शक्ति उसे शयन जैसे स्थिति में चले जाने के लिए बाधित करती है। यह संघर्ष आरम्भ में कई दिन चलता रहता है। फलता धीरे धीरे मिलती है, किन्तु अंततः विजय मनोबल की ही होती है। इच्छित शिथिलता प्रकट होने लगती है और निद्रा विजय का लाभ मिलने लगता है। अभ्यास हो जाने पर यह सरल हो जाता है कि दफ्तर या कारखाने में भी इस तंद्रा स्थिति को उत्पन्न करके उसके सहारे थकान दूर करने का लाभ उठाया जा सके। भले ही हर सफलता थोड़ी ही देर की क्यों न हो।

निद्रा आवाहन का यह उपयोगी प्रयोग है। जिन्हें निद्रा की शिकायत रहती है वे इस अभ्यास के सहारे नींद में कुछ ही देर के प्रयोग से बुला सकते है। आमतौर से नींद अपनी मन मर्जी से आती है उसके लिए कई लोग तरसते रहते है। देर से या कम मात्रा में हलकी नींद आने पर थकान बनी रहती है। बिस्तर, छोड़ने पर भी आलस्य छाया रहता है। बिस्तर, छोड़ने पर भी आलस्य छाया रहता है। शरीरी थका, टूटा सा लगता है। किन्तु जिन्हें गहरी और पूरी नींद आती है। उन्हें स्फूर्ति भी मिलती है और प्रसन्नता भी। नींद एक प्रकार का पोषण है जो थके, माँदे अवयवों को अथनव पोषण प्रदान करता है। क्षुधित व्यक्ति को भोजन मिलने पर जिस प्रकार का संतोष होता है वैसा ही सोकर उठने पर भी अनुभव होता है। निद्रा को बुलाना और भगाना अपने वश में हो जाए तो समझना चाहिए कि एक बड़ी सिद्धि हाथ लग गई। इस उपलब्धि को हस्तगत करने के लिए कुछ दिनों उपरोक्त शिथिलीकरण मुद्रा की साधना करनी पड़ती है। आरम्भ में यत्किंचित सफलता ही मिलती है। पर निरंतर लगे रहने पर अभ्यास न छोड़ने पर उस प्रयोग की सफलता सुनिश्चित हो जाती है। नींच को समय पर बुला सकना इस आधार पर संभव हो जाता है। इसके अतिरिक्त दिन में कई बार इस प्रयोग को करते हुए थकान से छुटकारा पाया जा सकता है और कई स्फूर्ति का लाभ लिया जा सकता है।

अभ्यास काल में निरंतर यह अनुभव करना होता है कि सभी अंग शिथिल हो रह है। इच्छा शक्ति के आदेश का पालन कर रहे है। कठोरता त्याग रहे है और निर्जीव जैसे बन रहे है। चेतनाजन्य उत्तेजना से छुटकारा पा रहे है। इस प्रयोग को आंखें बन्द करके किसी भी समय किया जा सकता है। कोलाहल रहित किसी भी स्थान पर, आवश्यक एवं सुविधा के अनुरूप इच्छित समय तक यह स्थिति बनाये रहना संभव हो जाता है।


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