पितर आत्माएं डराती नहीं, सत्प्रेरणाएं उभारती हैं!

March 1988

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दैवी सहायता में उच्चकोटि के देवताओं की अनुकम्पा तो सम्मिलित है ही साथ ही दिवंगत पितरों के अनुदान भी आते है जो कि अपने स्वभाववश किन्हीं की उपयोगी सहायता करना चाहते है। पर उनका संपर्क उच्चस्तरीय व्यक्तियों से ही बनता है। घिनौने और कुकर्मियों का साथ न तो पितर देते है। और न देवता। दुर्गन्धित स्थान से हर कोई बच निकलना चाहता है। उसी प्रकार दिव्य शक्तियाँ भी कुकर्मियों के आह्वान अनुरोध को स्वीकार नहीं करती, जब कि सत्पात्रों को वे स्वयं ही तलाश करती रहती है। और अच्छे साथी के साथ सहयोग का आदान प्रदान करते हुए वे अपने सहयोग की सार्थकता अनुभव करते हुए प्रसन्न भी होती है। सत्पात्रों को वे सद्प्रेरणाएं एवं मातृपितृवत् स्नेह प्रदान करती हैं ऐसी अदृश्य सहायता के बलबूते अपनी निजी सामर्थ्य की तुलना में उन्हें कहीं अधिक कार्य कर गुजरते देखा जाता है।

विश्व में ऐसे अनेकों उदाहरण विद्यमान है जिसमें लोगों पर पितर आत्माओं का स्नेह बरसा, उनकी सहायता मिली। इतना ही नहीं वे संबंधित व्यक्ति के पास प्रमाण स्वरूप अपना स्मृति चिन्ह भी छोड़ गये। रोम में विश्व का एक ऐसा ही अद्भुत एवं आश्चर्यजनक संग्रहालय है जिसमें पितर चिन्हित वस्तुओं के अनेकानेक प्रमाण संग्रहित है। इस संग्रहालय को “हाउस ऑफ शैडोज” के नाम से जाना जाता है। इसे “पितरों का गृह” भी कहते है। इसमें तरह तरह के छाया चित्र, तैल चित्र वस्त्र आभूषण, तख्त तथा मूर्तियां आदि रखी हुई है, जिन्हें मरने के बाद वापस आई हुई सूक्ष्म शरीर धारी आत्माओं की निशानी कहा जाता है।

इसी संग्रहालय में सदाम लीलियों नामक एक महिला के पुत्र की ब्रुशर्ट भी रखी है, जिसकी आस्तीन पर सूक्ष्म शरीर धारी मृतात्मा माँ की हथेली का जला हुआ निशान भी है। घटना 12 जून, सन् 1987 की है। जब मृत्यु के सत्ताईस वर्ष बाद मद्रास की दिवंगत आत्मा पुनः अपने बेटे से मिलने और उसकी सहायता करने आई। अपने लाडले बेटे को उसने बड़े अरमानों से पाला पोसा, पढ़ाया-लिखाया और योग्य बनाया था। पर दुर्भाग्यवश माँ की मृत्यु के पश्चात् वह कुसंगति में फंसकर दुर्व्यसनों का आदि हो गया। प्रयत्न करने पर भी छुटकारा नहीं मिल रहा था। इन परिस्थितियों में उसे अपनी माँ की बराबर याद आती रहती। उसकी स्थिति को देखकर मृतात्मा माँ को बड़ा कष्ट हुआ। आकर उसने दुष्प्रवृत्तियों के दुष्परिणामों से बेटे को अवगत कराया और उससे छूटने के उपाय सुझाए। सद्प्रेरणाएं दी। इस अलौकिक सत्परामर्श को सुनकर लड़के ने अपनी पाप वृति का प्रायश्चित माँ के सामने ही किया और भविष्य में ऐसे दुष्कृत्य न करने का दृढ़ संकल्प लिया। दिवंगत माँ की आत्मा ने विदा होते समय प्रमाण के लिए बेटे की ब्रुशर्ट पर अपने हाथ का जला हुआ चिन्ह भी छोड़ दिया, जिससे उसका विश्वास बना रहे कि माँ की आत्मा से सचमुच ही उसका साक्षात्कार हुआ था! इस घटना ने बेटे की दिनचर्या तथा आचरण में आमूल चूल परिवर्तन कर दिया। धीरे धीरे उसने अपनी बुरी आदतों से छुटकारा पा लिया।़

इसी तरह की एक प्रार्थना पुस्तकों को इसी संग्रहालय में 1900 ईसा में रखा गया, जिस पर पितरात्माओं की उंगलियों के प्रतीक चिन्ह है जिसकी वजह से पुस्तक के पन्नों में जलने के छेद जैसे हो गये है। इसकी घटना भी बड़ी ही विचित्र है। मारगेरिटा डेमर नाम की एक महिला की सास को मरे करीब 30 वर्ष हो चुके थे। अचानक ही उसकी आत्मा मारगेरिटा के पास आई और कहने लगी “मेरी शाँति एवं सद्गति के लिए तुम्हें एक तीर्थ यात्रा तथा दो प्रार्थना सभाओं का आयोजन करना चाहिए” मारगेरिटा ने उनकी इच्छा आकाँक्षाओं के अनुरूप वैसा ही किया। पितरात्मा प्रसन्न चित्त होकर बोली - मैंने अब साँसारिक भव बन्धनों को पार कर लिया है और मुक्ति पा चुकी हूँ। लम्बे वार्तालाप के बाद आत्मा विदा होने लगी, तोरह गगेरिटा ने उससे कोई स्मृति चिन्ह छोड़ जाने का अनुग्रह किया जिसे वह हमेशा देखती रहे। सास ने बहू के विनम्र निवेदन को स्वीकार करते हुए पास में रखी प्रार्थना .... पर हाथ रख दिये जिससे वह झुलस सी गयी .... उसके कुछ पृष्ठों में सूराख भी हो गये। संग्रहालय में भी अनेकानेक वस्तुओं का संग्रह है, जो बड़ी ही रहस्यमय और आश्चर्यजनक प्रतीत होती है। संग्रहालय संरचना ही बड़ी विचित्र है। उसमें चारों तरफ अंधेरा अंधेरा दीखता है एक भी रोशनदान नहीं मिलेगा। दर्शकों को अंधेरी गलियों में होकर ही गुजरना पड़ता है।

अवांछनियताओं के निवारण और अनीति के निराकरण की सत्प्रेरणा पैदा करने तथा उस दिशा में आगे बढ़ने वालों की मदद करने का काम भी ये सदाशयी पितरात्माएं करती है। उदात्त आत्माएं पितर के रूप में .... की सहायता के लिए सदैव प्रस्तुत रहती है। इसकी आत्मीयता की परिधि अति विस्तृत होती है। पथभ्रष्ट लोगों को कल्याण पथ में नियोजित कर देना ही अपना कर्तव्य मानती है।

ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी में आजकल भटकती पितरात्माओंकक की घटनाएं कोई नई बात नहीं रह गई। अपितु तेरहवीं सदी से ही यह ताँता अब तक चला आ रहा है। वर्ष 1231 में गरीब वर्ग के छात्रों के सहायतार्थ सेंट पाल अस्पताल का निर्माण हुआ था। ब्रिटेन के एक पादरी रेवरेंड जेफरी जान के अनुसार जब से इस अस्पताल में नींव की खुदाई हुई है, तभी से इसमें भटकती हुई तरह तरह की चित्र विचित्र आकृतियाँ नजर आ रही है। नहीं खाली कमरों में गाने बजाने तथा नाचने की कृतियाँ भी छात्रों को स्पष्ट सुनाई देती है। इन आत्माओं के शांति के लिए समय समय पर प्रार्थना सभाएं भी आयोजित की जा चुकी है। धर्म पुरोहितों का कहना है कि उनसे भयभीत होने की कोई बात नहीं है। ये पितरों की ही दिवंगत आत्माएं हैं जो छात्र जीवन को कल्याणकारी मार्ग पर चलने क लिए प्रेरणास्पद संकेत दे रही हैं।

पद्म पुराण का एक प्रसंग बहुचर्चित है कि राजा दशरथ के अतिशय पुत्र मोह वृत्ति के कारण मुक्ति नहीं हो पाई थी, तो भगवान राम ने पुष्कर में अपने पिताश्री का श्राद्ध कर्म सम्पन्न कर उनको अर्पण किया था। तभी उनका साँसारिक मोह से पीछा छूटा। आज भी वहाँ का जल कुण्ड जनश्रद्धा का आकर्षण केन्द्र बना हुआ है। लोग मान्यता है कि इस पवित्र कुण्ड में शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के साथ मंगल का योग बिठाने की स्नान किया जाए तो विशेष प्रकार की शाँति मिलती और श्रद्धास्पद वातावरण नवनिर्मित होता है। इसी के फलस्वरूप पुष्कर को ब्रह्मा के तीर्थ, तीर्थराज की मान्यता मिली है।

पितृ लोक को चन्द्र लोक के नाम से भी जाना जाता है। आश्विनी मास के कृष्ण पक्ष की मृतक तिथि में पितरों के श्राद्ध किये जाने का विधान शास्त्रोक्त है। वैज्ञानिकों ने भी अब इसकी महत्ता को पूरी तरह स्वीकार कर लिया है। उनके कथनानुसार इन दिनों चन्द्रमा अन्य महीनों की तुलना में पृथ्वी के अधिक निकट हो जाता है। फलतः उसकी आकर्षण शक्ति का प्रभाव पृथ्वी तथा उसमें नित्रासरत प्राणियोँ पर अधिक पड़ता है। ऐसी स्थिति में चन्द्र लोक के ऊपरी भाग में रहने वाली सूक्ष्म शरीर धारी पितरात्माएं भूलोक की संपत्ति से सहज ही श्रद्धा स्वरूप श्राद्ध स्वीकार कर लेती है। सशक्त रेडियो क्रिस्टल देश देशान्तरों तक की सूचनाओं को खींच सकने में सक्षम होता है उसी तरह की सच्ची श्रद्धा पितरों के प्रति विकसित कर ली जाए तो उनके स्नेह, सहयोग और सत्परामर्शों का लाभ आसानी से उठाया जा सकता है।

सामान्य स्तर के लोग पितरों की छाया को देखते ही डरने लगते है, जबकि डराना उनका उद्देश्य नहीं होता। यदि हम अपने आश्रित व्यक्तियों की सेवा सुश्रूषा करके उन्हें मृत्यु पर्यन्त प्रसन्नचित्त रखे तो वे पितर योनि में पहुँच कर भी हमारे लिए अपने अन्त करण में स्नेहसिक्त भावनाएं संजोए रहते है। प्रेम और ममत्व की यही भावना हमारे दुख सुख में साथी सहयोगी बन जाती है। प्रतिकूल या अनुकूल परिस्थितियों में हम अपने पूर्वजों को श्रद्धासिक्त होकर स्मरण करे तो वे हमारे साथ निश्चित रूप से उपस्थित रह कर सत्प्रेरणा का स्रोत सिद्ध होते है। अपने अनुदान सतत् बरसाते हैं।


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