सरलतम किन्तु महत्वपूर्ण योगाभ्यास

March 1988

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एक स्थान पर कई रास्तों से पहुँचा जा सकता है। केन्द्र वही रहता है, पर पहुँचने की राहें कई पगडंडियों से होकर वहाँ तक पहुँचती है। उन सड़कों और पगडंडी की राहें अलग-अलग प्रकार से गढ़े होते हैं। वृक्ष कुएं आदि भी भिन्नता लिए हुए होते है फिर भी सीधे तिरछे सभी पहुँचते वहीं।

यही बात योगसाधना के सम्बन्ध में भी है। लक्ष्य एक ही है- भगवान की प्राप्ति। आत्मा और परमात्मा का संयोग। पर उनके लिए योगाभ्यासों की कई विधियाँ और क्रिया-प्रक्रिया निर्धारित की गई है। इससे साधक की रुचि, क्षमता, श्रद्धा, भावना, शारीरिक और मानसिक स्थिति, अवगत परम्परा आदि अनेकों बातों का ध्यान रखना पड़ता है। सभी को एक राह नहीं बताई जा सकती। एक ही रोग के रोगियों को चिकित्सक उन की व्यक्तिगत स्थिति को देखते हुए अलग अलग प्रकार की दवाएं देते है। सभी भेड़ों को एक लकड़ी से नहीं हाँकते। शिक्षक की परम्परा और विद्यार्थी की अभिरुचि, पात्रता की दोनों ही प्रकार से देखभाल करनी पड़ती है। इसके उपरान्त ही संभव होता है कि निर्धारण क्या किया जाए? अध्यापक ने यदि मराठी भाषा सीखी है तो वह उसी को पढ़ाने का प्रयत्न करेगा। ऐसे पारगत तो बिरले ही होते हैं, जो सभी भाषाएं जानते हो। ऐसे चिकित्सक बिरले ही होते है जो आयुर्वेद ऐलोपैथी, होम्योपैथी आदि में पारंगत हो और रोगी के उपयुक्त चिकित्सा प्रणाली अपना सके। उनने जो पढ़ा है उसी के आधार पर चिकित्सा करते है फिर चाहे वह अनुकूल पड़े या प्रतिकूल। यही कारण है कि साधकों के व्यक्तित्व और स्तर देखकर शिक्षक के निजी अनुभव का अनुमान लगा कर, निर्धारक स्थिति बनती है। उसी आधार पर योगाभ्यासों का क्रम बिठाना पड़ता है। उसमें भी यह देखना पड़ता है कि कौन कितना वजन उठा सकता है। गधे का वजन बकरे पर नहीं लादा जा सकता। इसलिए यह भी देखना पड़ता है कि किसकी मनःस्थिति कैसी है? किसके अभ्यास और चरित्र कैसे है? पूर्वजन्मों के संचित संस्कार कैसे है? इन सब बातों का पर्यवेक्षण करने के उपरान्त ही अनुभवी मार्ग-दर्शक शिष्यों को भिन्न-भिन्न प्रकार की साधनाएं बताते हैं। शिष्य ने यदि किसी साधना का महात्म्य बढ़-चढ़ कर बता दिया है और उसकी ललक उसी में लगी हुई है तो गुरु के लिए यह आवश्यक नहीं है कि जिसके लिए हठ किया जा रहा है, वही बताने लगें। पात्रता की कमी रहते हुए भी वजन लाद देना या हिमाच्छादित पर्वतों का मार्ग बता देना दोनों के लिए हानिकारक ही सिद्ध होता है। दोनों ही अपयश पाते है।

योग साधनाओं की संख्या असीम है। विभिन्न धर्मों देशों, कालों में विभिन्न प्रकार की साधनाओं का प्रचलन रहा है। पुस्तकों में उन सभी का वर्णन है कुछ साधनाएं ऐसी भी है, उनका गुरु परम्परा से प्रचलन चला आता है। उनका पुस्तक के रूप में कही उल्लेख नहीं हुआ है। विशेषतया ताँत्रिक साधनाओं का क्रम तो ऐसा ही है, जो परम्परागत चला आता है। गुरु-शिष्यों में से कोई पढ़ा लिखा नहीं होता, फिर उन्हें गोपनीय रखने का प्रतिबंध भी है। आदिवासियों में ऐसी विलक्षण देवी, देवताओं की मान्यताएं और पूजा की विधियाँ चलती है, जिनका पुस्तक रूप में कहीं वर्णन नहीं हुआ है। इसी प्रकार अफ्रीकी देशों में हवशी और उनके पुरोहित नर बलि से लेकर अनेक प्रकार के अभिचार करते रहते हैं। वे किसी को लाभ तो नहीं पहुँचा सकते, पर गुह्य तांत्रिक अभिचारों के आधार पर हानि अवश्य पहुँचा देते है। किन्तु उनकी भी कोई लिखी पुस्तक नहीं है। जब सार समाज अनपढ़ अनगढ़ है तो पुस्तकों के लिखे जाने विधानों के छपने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यह प्रशिक्षण एक से दूसरे को गुप्त रूप से बताए जाते है। विश्व भर में किन क्षेत्रों में कितने प्रकार के योग चलते रहे है और कितने चल रहे है। इसका समग्र विवरण तो उपलब्ध नहीं है, पर उनकी संख्या अगणित है। इन दिनों भारतवर्ष में जिनका प्रमुख रूप से प्रचलन है उन्हें राजयोग, हठयोग, मंत्रयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, कुण्डलिनी योग, तंत्रयोग आदि नामों से जाना जाता है। इनमें से जो उत्कृष्टतम है, उनका सारा संक्षेप लेकर प्रज्ञायोग विनिर्मित किया गया है। वह सरल भी है। सुगम भी और हर किसी के लिए अपनाये ज्ञान योग्य भी। उस में उतने प्रतिबंध नहीं है, जितने अन्य योगों में होते है।

अगर इन्हें दो खण्डों में बाँटना चाहे तो उनका वर्गीकरण दो खण्डों में भी किया जा सकता है। एक शारीरिक दूसरा सामाजिक। शारीरिक योगों में आसन, प्राणायाम, जप आदि की गणना होती है। जननेन्द्रिय और ब्रह्मरन्ध्र मस्तिष्क मध्य तक मेरुदण्ड मार्ग से चलने वाली इड़ा- पिंगला विद्युत धाराएं कुण्डलिनी जागरण का प्रयोजन पूरा करती है। यह भी शारीरिक विद्युत का खेचरी चमत्कार ही हे। इसके अतिरिक्त ध्यान प्रमुख है। ध्यान की कितनी ही शाखा प्रशाखाएं है। नादयोग, त्राटकयोग, लययोग इनके साथ प्रायः मानसिक क्षेत्र की गतिविधियाँ ही काम करती है। शरीर और मन दोनों से मिलकर जीवन बनता है। दोनों ही एक गाड़ी के दो पहिए है। इनके मिलकर सहयोगपूर्वक अग्रसर होने से ही प्रगति पथ पर आगे बढ़ना होता है। एक पहिया लड़खड़ा जाए तो दूसरा अकेले उसे लेकर अग्रसर नहीं हो सकता है। इसी प्रकार आत्मिक प्रगति के लिए किये गये योगाभ्यास को सफल नहीं बनाया जा सकता।

शारीरिक साधना को संयम कहते है। इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम, विचार संयम, यह प्रत्यक्ष जीवन की चार तपश्चर्याएं है, जो प्रत्यक्ष जीवन का परिशोधन करती है। व्यक्ति यदि इन्द्रियों को काबू में रखे, विशेषतया जीभ और जननेन्द्रिय का व्यतिरेक न होने दे तो उसकी जीवनी शक्ति घटेगी नहीं, न दुर्बलता न रुग्णता उसे हैरान करेगी। अकाल मृत्यु भी न मरना पड़ेगा। इसी प्रकार अर्थ संयम बरतने वाले आदमी से कम खर्च का बजट बना कर चलने वाले, सादा जीवन, उच्च विचार की नीति अपनाने वाले आर्थिक तंगी नहीं भुगतने और न किसी के ऋणी होते है। समय का संयम करने वाले, सीमित समय में ही इतने अधिक काम कर लेते है, इतनी योग्यता बढ़ा लेते है कि लोगों को आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है विचार संयम बरतने वाले ऊँचा ही सोचते है, ऊँची योजनाएं बनाते है और ऊँचा ही कर गुजरते है। ऐसे महामानवों की गणना देव पुरुषों में होती है। वे भव सागर से स्वयं पार होते है और दूसरों का पार लगाते है। मध्यवर्ती तप साधना है, उससे मनुष्य का भौतिक जीवन हर दृष्टि से प्रगतिशील बनता है और सुखी समुन्नत बनता है।

संयमी जीवन व्यतीत करना योगाभ्यास में यहीं तरीका


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