‘‘यदि अणु युद्ध हुआ तो......’’

July 1985

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जहाँ एक ओर विश्व के अनेकों राष्ट्र भुखमरी, अशिक्षा, बीमारी से ग्रसित हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ विकसित देश—विश्व के कुल उत्पादन का 85 प्रतिशत मूर्खतावश सैनिक साज−सज्जा एवं अस्त्र−शस्त्रों पर व्यय कर रहे हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व का रक्षा व्यय चौगुना हो गया है जो इन दिनों 600 मिलियन डालर है।

अन्तर्राष्ट्रीय मिलीट्री स्ट्रेटेजी संस्था लन्दन के आँकड़ों के अनुसार विश्व की दोनों महा शक्तियों के अणु अस्त्रों तथा शस्त्रों पर 100 मिलियन डालर प्रतिदिन खर्च होता है। इन दिनों सैनिक कुल 25 मिलियन और उनके लिए साज−सज्जा तैयार करने वाले व्यक्ति 50 मिलियन हैं। विश्व की दुर्दशा और युद्ध की तैयारी का परस्पर अति घनिष्ठ संबंध है।

युद्ध लिप्सु देशों पर यह अर्थ शास्त्र सवार है कि युद्ध का वातावरण बनाए रखो, कहीं न कहीं उसके विस्फोट कराते रहें ताकि अन्य देश डर से या आक्रोश से अधिक हथियार उन देशों से खरीदें जिससे उनकी शस्त्र उत्पादन क्षमता का व्यापार अक्षुण्ण बना रहे।

एक ओर अस्त्र उत्पादन की यह चरम प्रक्रिया है वहाँ दूसरी ओर भुखमरी के आँकड़े भी कम भयानक नहीं हैं। पिछले चार वर्षों में कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या हर वर्ष 1 करोड़ 70 लाख के अनुपात में रही है। चीन, पाकिस्तान, बंगला देश, भारत जैसे अनेकों एशियाई और अफ्रीकी देशों को बाहर से अन्न मँगाने के लिए लालायित रहना पड़ा है।

सैनिक व्यय कुछ ही वर्षों में 60 गुना अधिक बढ़ गया है। इससे भी अधिक भयंकरता प्रक्षेपणास्त्रों और अणु बमों की है। इस समय विश्व में 1386 प्रक्षेपणास्त्र हैं और पाँच देशों के पास जो अणु बमों का जखीरा है वह समूची पृथ्वी को दस बार भून डालने के लिए काफी है।

जापान का अनुभव लोग अभी भी भुला नहीं पा रहे हैं। दो छोटे बम गिराकर उस देश को पूरी तरह आत्म समर्पण के लिए विवश कर दिया गया था। वही सपने अभी भी देखे जा सकते हैं किन्तु इन 40 वर्षों में परिस्थितियाँ कितनी बदल गईं। यह बात ध्यान में लाई नहीं जाती। उन दिनों जापान अणु आयुधों की दृष्टि से निहत्था था जबकि आज प्रमुख पाँच देशों के पास इतने भयानक बम हैं जिनका उपयोग वे सीधे या पिछलग्गुओं के माध्यम से करा सकते हैं।

इस बार का सीमित युद्ध भी असीम होगा और उसका प्रभाव कुछ देशों तक सीमित न रहकर विश्वव्यापी होगा। परमाणु वैज्ञानिक बरनार्ड लिस बौडर्ड के कथनानुसार सीमित युद्ध में भी दुनिया की आक्सीजन का बड़ा भाग नष्ट हो जायेगा। महीनों सूर्य के दर्शन न होंगे। विषैला धुंआ छाया रहेगा और उस घुटन में मरने वालों की संख्या अणु प्रहार से मरने वालों की तुलना में कहीं अधिक होगी। तापमान गिर जायेगा। फसलें नहीं उगेंगी। विकिरण के प्रभाव से घास वनस्पतियों का उगना कम हो जायेगा। जो उगेंगी, वे जहरीली होंगी। ऐसी दशा में पशु पक्षियों का बचना भी कठिन पड़ेगा। उस समय इतने प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होंगी जिनकी आज तो कल्पना तक नहीं की जा सकती। जब पेट भरना और बीमारों के लिए कारगर दवा का मिलना ही सम्भव न होगा तो अन्य कठिनाइयों का तो कहना ही क्या? मनुष्य आदिमकाल की असभ्य स्थिति से बुरी दशा में पहुँचेगा। आशा करनी चाहिए कि दुर्बुद्धि पर विवेक का अंकुश लगेगा और ऐसा कुछ न होगा जिसमें यह सृष्टि नष्ट हो जाय।


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