आकांक्षा एवं सामूहिकता की धुरी पर टिका जीवन संकट

July 1985

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जीव जगत का विकास जिन दो गुण विशेषों के आधार पर होता है उनमें से एक है- ‘स्व’ केन्द्रित आकाँक्षा एवं दूसरी ‘पर’ केन्द्रित सामूहिकता। प्रकारान्तर से इन्हीं को स्वार्थ एवं परमार्थ क्रमशः कहा जा सकता है। अध्यात्म की भाषा में तत्त्ववेत्ता इन्हें आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण के नाम से पुकारते हैं।

आकाँक्षा की चमत्कृतियाँ कितनी सशक्त हैं, इसके परिणाम पग-पग पर देखे जा सकते हैं। संकल्पशक्ति, श्रद्धा की प्रचण्ड पुरुषार्थ के रूप में परिणति एवं चिन्तन के बिखराव के एकीकरण से प्रकट होने वाले परिणामों से इनकी एक झलक भर मिलती है। इस पर भी यह नहीं मान लेना चाहिए कि इतने भर से प्रगति-पथ प्रशस्त हो गया। इससे तो एक पक्ष की ही पूर्ति होती है जिसे परिष्कृत व्यक्तित्व कह सकते हैं। यह गाड़ी के एक पहिए के समान है। दूसरा पहिया सक्षम न हो तो बात कैसे बने? दूसरा पक्ष है सामूहिकता या सहकारिता। इस आदान-प्रदान के बिना बहुत छोटे स्तर के अदृश्य प्राणी ही जीवित रह सकते हैं। अन्यथा हर विकसित प्राणी को अन्य सहयोगियों का सहकार उपलब्ध करना और उसके बदले में अपना सहकार प्रदान करना पड़ता है। गर्भावस्था में भ्रूण स्थिति हो या अण्डे की, शुक्राणु इकाई के रूप में केन्द्रित जीव कण को माता का सहकार अनुदान चाहिए ही। इसके उपरान्त प्रसव से लेकर अपने बलबूते जीवनचर्या चलाने योग्य होने तक की स्थिति प्राप्त करने के लिए जन्मदात्री का संरक्षण परिपोषण चाहिए। सर्वथा होय स्तर के जीव ही बिना माता के सहयोग के स्वावलंबी रहते देखे गये हैं अन्यथा जिनका थोड़ भी विकास हो चुका है, उनमें से चींटी से हाथी तक के समस्त जीवधारियों को आरम्भिक अशक्तता दूर होने तक माता के अंचल का आश्रय तथा आहार के लिए अनुदान चाहिए।

प्राणियों को जो क्षमता, सुविधा अनुकूलता उपलब्ध होती है, उसका एक सीमित अंश ही उनका स्व उपार्जित होता है। शेष तो सहचरत्व के साथ चलने आदान-प्रदान का ही प्रतिफल होता है। चींटी, दीमक, मधु-मक्खी जैसे छोटे जीव अपनी जीवनचर्या एवं कार्य पद्धति की दृष्टि से असाधारण प्रतिभा, दक्षता एवं समर्थता का परिचय देते हैं। इस विशेषता में उनका परोक्ष अंश ही पैतृक एवं परम्परागत होता है। क्रिया-कलापों का समूचा कार्य क्षेत्र तो पारस्परिक सहयोग से ही विकसित होता है। उन प्राणियों को समूह से पृथक करके एक−एक करके रहने के लिए बाधित कर दिया जाय तो वे अपनी पैतृक विशेषता को भी क्रियान्वित न कर सकेंगे और उमंगों को चरितार्थ न कर पाने की विवशता अनुभव करते हुए जीवन लीला समाप्त कर देंगे।

बड़े प्राणी समूह बनाकर रहते हैं। उनके अपने परिवार होते हैं। पक्षियों को, वन्य पशुओं को झुण्डों में रहते देखा जाता है। यों वे आपस में उलझते-सुलझते भी रहते हैं फिर भी एकाकी रहने का साहस नहीं करते क्योंकि सामूहिकता की छत्रछाया में उन्हें अधिक सुविधा, सुनिश्चितता एवं प्रसन्नता की अनुभूति होती है। एक दूसरे से बहुत कुछ सीखते सिखाते हैं। इतना ही नहीं, अप्रत्यक्ष आदान-प्रदान से उनकी जीवनचर्या में असाधारण रूप से सहायक भी होते हैं। जो प्राणी पारस्परिक सहकारिता के लाभ से जितने वंचित रहे, उन्हें उपयोगी होते हुए भी अपने अस्तित्व का खतरा उसी अनुपात से उठाना पड़ा। इसके विपरीत जो झुण्ड बनाकर रहे, वे बन्दर जैसे हानिकारक होते हुए भी अपनी स्थिति मनुष्य के साथ बैर−विरोध मोल लेकर भी बनाये रहे। प्रत्यक्ष है कि सिंह, व्याघ्र जैसे स्व वर्ग द्रोही क्रमशः घटते और संसार से अपना अस्तित्व समाप्त करते चले जा रहे हैं।

मनुष्य की प्रगति में आकाँक्षा के उपरान्त दूसरी अद्भुत क्षमता सहकारिता ही है। इसी प्रवृत्ति न उसे आदिमकाल की वन−मानुष जैसी वीभत्स स्थिति से उबारकर वर्तमान सभ्य एवं सम्पन्न स्तर के प्रतिभाशाली, गौरवान्वित मनुष्य के स्तर तक पहुँचाया है। उच्चारण, भाषा, लिपि, चिन्तन उसका अपना निज का उपार्जन नहीं है। इसके पीछे चिरकाल की, असंख्यों की अनुभूतियों एवं उपलब्धियों का अनुदान क्रम चला जा रहा है। मिट्टी के उपलों पर आड़ी-टेढ़ी लकीरें बनाने की प्रक्रिया के सहारे एक ने दूसरे को अपने विचारों से अवगत कराने का जो भौंड़ा सिलसिला चलाया, वही आज सुव्यवस्थित लिपि, भाषा, शब्दकोष आदि के रूप में सामने है। अन्न उगाने, पेड़ लगाने, पशु पालने, आग जलाने, वस्त्र बनाने, घर घरौंदे खड़े करने की विद्या भी अतीत काल में आज के बिजली जैसे आविष्कारों जैसी ही उत्साहवर्धक उपयोगी सिद्ध हुई थी। वह समस्त उपार्जन किसी एक व्यक्ति के नहीं थे वरन् अनुभवी का लाभ एक से दूसरे को मिलते−मिलते उस स्थिति तक पहुँचना सम्भव हुआ कि उपरोक्त सुविधा, साधनों से लाभ उठाया जा सके। पहियेदार गाड़ी, तैरती नाव, कम्पास, दीपक आदि का जिन दिनों आविष्कार हुआ होगा, उस दिन आदमी फूला न समाया होगा और अन्य साथी प्राणियों की तुलना में एक बारंगी सहस्रों योजन आगे बढ़ गया। यह सर्वथा स्मरणीय है कि उन वरदानों को प्राप्त करने का श्रेय उस सहकारिता की प्रवृत्ति को ही रहा होगा जिसे स्नेह, सहयोग, परमार्थ आदि नामों से भी पुकारा जा सकता है।

समाज की संरचना इसी आधार पर हुई है। कुटुम्ब इसी प्रेरणा से बने। अन्यथा मनुष्य भी मात्र बन्दरों की तरह झुण्डों में तो रहता पर आदान-प्रदान का द्वार न खुलने से अद्यावधि पूर्वजों की तरह ही नर वानर बना रहता।

यहाँ पिछले प्रगति क्रम पर दृष्टिपात इसलिए किया जा रहा है कि भावी प्रगति में सामूहिकता का महत्व अच्छी तरह समझा जा सके और उसकी अपार सामर्थ्य का उपयोग आज के संदर्भ में कर सकना सम्भव हो सके। समाज संरचना, वर्ग संगठन, जातीयता, शासन व्यवस्था को सामूहिकता की प्रवृत्ति का सुनियोजित निर्धारण की समझा जा सकता है। मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा जाता है। इसे कथन का तात्पर्य यह है कि उसका इतिहास, वर्तमान एवं भविष्य पूरी तरह सामूहिकता, सहकारिता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ समझा जा सके। मनुष्य अब इस तरह पारस्परिक आदान−प्रदान की प्रक्रिया पर निर्भर हो गया कि उससे हटकर उसके लिए जीवित रह सकना तक कठिन है।

सभ्यता आकाश से नहीं टपकी है। वह पारस्परिक सहयोग से अनुभव अनुसंधान के सहारे कमाई हुई प्रक्रिया है। ऐसी प्रक्रिया जिसने मनुष्य के आदिम स्वरूप, स्तर दृष्टिकोण एवं व्यवहार में काया-कल्प जैसा अन्तर उपस्थित कर दिया।

प्रगति के लिए सहकारिता का सिद्धान्त ही सन्तोषजनक और फलप्रद हो सकता है। अन्यथा एकाधिकार, स्वेच्छाचार, संग्रह एवं सर्वजनीन स्तर से अत्यधिक ऊँचे वैभव के फलस्वरूप अनेकानेक विकृतियाँ उत्पन्न होंगी। संग्रही दुर्व्यसन अपनाएंगे और दुरुपयोग की उच्छृंखलता से समाज व्यवस्था में अवाँछनीय उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। दूसरे लोग या तो साधन रहित होते हुए वैसी ही नकल करेंगे या फिर ईर्ष्याग्रस्त होकर हानि पहुँचाने के लिए उतारू होंगे। अपराधी आचरण करेंगे।

सामंतवाद, अधिनायकवाद, पूँजीवाद आदि कितने ही व्यक्तिवादी तन्त्रों के प्रयोगों और परिणामों को भूतकाल में तथा वर्तमान काल में अधिक बारीकी से समझा गया है और लोक चिन्तन तथा मूर्धन्यों का निष्कर्ष एक ही केन्द्र पर एकत्रित हुआ है कि संपदा का अधिक मात्रा में उपार्जन एवं अधिक सही उपयोग सहकारी रीति-नीति अपनाने से ही सम्भव हो सकता है। प्रजातन्त्र, समाजवाद जैसे सिद्धान्तों का राजनैतिक क्षेत्रों में इसी आधार पर विकास हुआ है कि मानवी प्रगति के भूतकालीन इतिहास को देखते हुए भावी विकास के लिए भी सहकारिता को हर क्षेत्र में मान्यता दी जाय और उसे आगे बढ़ाने के लिए जहाँ, जिस प्रकार जो सम्भव हो सके, उसके लिए प्रयत्न किया जाय।

जीवन क्षेत्र मात्र अर्थ और शासन तक ही सीमित नहीं है। उसके साथ और भी कितने ही पक्ष जुड़े हुए हैं। उदाहरण के लिए कुटुम्ब, विनोद एवं प्रशिक्षण जैसे तथ्यों पर दृष्टि डाली जा सकती है। इनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो एकाकी पुरुषार्थ के सहारे चल सके। कोई व्यक्ति कितना ही समर्थ, सुयोग्य एवं सम्पन्न क्यों न हो, उपरोक्त क्षेत्रों में बिना दूसरों का सहयोग अर्जित किये एक इंच भी आगे बढ़ नहीं सकता।

नये परिवार का आरम्भ विवाह से होता है। विवाह का अर्थ है दो व्यक्तियों का अधिक सहयोगी बनकर एक दूसरे का पूरक बनना और संयुक्त शक्ति उपार्जित करना। यही है वह मूलभूत सिद्धान्त जो परिवार के अन्यान्य सदस्यों पर उनके स्तर के अनुरूप क्रियान्वित किया जाता है। गाता और सन्तान, बालक और अभिभावकों के बीच जो आत्मीयता पाई जाती है, उसे उदारता या उच्च-स्तरीय सहकारिता ही कह सकते हैं। अभिभावक बालकों के लिए सुरक्षा, सुविधा के साधन जुटाते हैं और बालक अभिभावकों को आत्म-विस्तार की सेवा साधना की आन्तरिक प्यास को पूरी करके कृत-कृत्य बनाता है।

विनोद कोई अकेला नहीं कर सकता। उसके लिए मनचाहे साथी चाहिए। ताश शतरंज से लेकर खेल−कूदों और प्रतियोगिताओं तक के अनेकों मनोरंजन हैं। उनका आनन्द लेने के लिए सहयोगी तलाश करने के अतिरिक्त और कोई तरीका नहीं। पार्टियाँ, प्रीतिभोज, सभा, सम्मेलन, नाटक, सिनेमा जैसे सभी स्तर के विनोद आकर्षणों में कलाकारों एवं दर्शकों की भीड़ जुड़ती और प्रतिभा खपती है। जब ईश्वर तक का मनोरंजन की आवश्यकता पड़ने पर सुविस्तृत सृष्टि गढ़नी और प्राणियों की, देव दानवों की चतुरंगिणी खड़ी करनी पड़ी तो फिर मनुष्य की तो बात ही क्या है। पशु पक्षी तक झुण्ड बनाते और मिल−जुलकर क्रीड़ा−कल्लोल करते पाये जाते हैं।

प्रशिक्षण संस्थानों में छात्रों, अध्यापकों और मध्यवर्ती व्यवस्थापक तथा सूत्र संचालकों का एक अच्छा-खासा समुदाय मिल−जुलकर काम करता है। अभिभावकों की भी उस पर नजर रहती है और पर्यवेक्षकों, समीक्षकों की देखभाल का सिलसिला चलता है। इतनी व्यवस्था बनने पर भी ही कला, विज्ञान, दर्शन आदि की शिक्षा व्यवस्था ठीक प्रकार चल पाती है। अकेला विद्यार्थी एक कोने में बैठकर, पुस्तकों में सँजोए हुए अनेकानेक मनीषियों की ज्ञान सम्पदा से भी कुछ काम चला सकता है, पर अकेला अध्यापक क्या करे? किसे पढ़ाये?

उत्पादन, व्यवस्था, परिवार, विनोद, शिक्षण जैसे जीवनचर्या के साथ जुड़े हुए अनेकानेक प्रसंगों में पारस्परिक सहयोग की भूमिका का ही वर्चस्व दिखता है। अन्य पक्षों में भी सहयोग के बिना एक कदम आगे बढ़ने की बात नहीं बनती। दैनिक जीवन में काम आने वाले साधनों, उपकरणों में से एक ऐसा नहीं है जो एकाकी प्रयत्नों से बन पड़े। अब वह समय चला गया जब अन्न उगाने से लेकर, आटा पीसने और रोटी बनाने तक के काम आदमी स्वयं कर लेता था। पत्तों से या चमड़े से तन ढक लेता था। पढ़ने की आवश्यकता थी नहीं। भूमि, तालाब एवं वृक्ष वनस्पति का सहारा लेकर दिन कट जाते थे। अब तो माचिस, कपड़ा, जूता, भोजन पकाने के बर्तन, तेल, साबुन, नमक, मिर्च, कुँए से पानी निकालने का घड़ा रस्सा जैसी, घोर वन्य प्रदेशों में भी, दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं के लिए अन्यान्य लोगों का सहारा लेना पड़ता है। यह सभी वस्तुएँ ऐसी हैं जिनमें सहकारिता की चमत्कारी शक्ति ही अग्रिम पंक्ति में खड़ी दिखती है।

सहकारिता की जितनी उपेक्षा होगी, उतने ही अनुपात में पिछड़ापन सिर पर लदता चला जायेगा। उत्कर्ष की बात सोचनी हो तो लगे हाथों इस वास्तविकता को भी ध्यान में रखना होगा कि जिस प्रकार व्यक्तिगत रूप से आकाँक्षा का उभार आवश्यक है, उसी प्रकार लोक व्यवहार में जन सहयोग की आवश्यकता अनुभव करने पर सहकारिता की प्रवृत्ति को असाधारण महत्व देना और उसे उच्चस्तरीय सिद्धान्तों के अनुरूप बनाकर लोक−चिन्तन में गहराई तक उतारने का प्रबन्ध करना होगा।


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