जीवन सम्पदा का सदुपयोग

July 1985

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जीवन क्या है? इसका उत्तर एक शब्द में अपेक्षित हो तो कहा जाना चाहिए- ‘समय’। समय और जीवन एक ही तथ्य के दो नाम हैं। कोई कितने दिन जिया? इसका उत्तर वर्षों की काल गणना के रूप में दिया जा सकता है। समय की सम्पदा ही जीवन की निधि है। उसका किसने किस स्तर का उपयोग किया, इसी पर्यवेक्षण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसका जीवन कितना सार्थक अथवा निरर्थक व्यतीत हुआ।

शरीर अपने लिए ढेरों समय खर्च करा लेता है। आठ दस घंटे सोने सुस्ताने में निकल जाते हैं। नित्य कर्म और भोजन आदि में चार घंटे से कम नहीं बीतते। इस प्रकार बारह घण्टे नित्य तो उस शरीर का छकड़ा घसीटने में ही लग जाते हैं जिसके भीतर हम रहते और कुछ कर सकने के योग्य होते हैं। इस प्रकार जिन्दगी का आधा भाग तो शरीर अपने ढाँचे में खड़ा रहने योग्य बनने की स्थिति बनाये रहने में ही खर्च हो लेता है।

अब आजीविका का प्रश्न आता है। औसत आदमी के गुजारे की साधन सामग्री कमाने के लिए आठ घंटे कृषि, व्यवसाय, शिल्प, मजूरी आदि में लगा रहना पड़ता है। इसके साथ ही पारिवारिक उत्तरदायित्व जुड़ते हैं। परिजनों की प्रगति और व्यवस्था भी अपने आप में एक बड़ा काम है जिसमें प्रकारान्तर से ढेरों समय लगता है। यह कार्य भी ऐसे हैं जिनकी उपेक्षा नहीं हो सकती। इस प्रकार आठ घंटे आजीविका और चार घंटे परिवार के साथ बिताने में लगने से यह किश्त भी बारह घंटे की हो जाती है। बारह घंटे नित्य कर्म, शयन और बारह घंटे उपार्जन परिवार के लिए लगा देने पर पूरे चौबीस घंटे इसी तरह खर्च हो जाते हैं जिसे शरीर यात्रा ही कहा जा सके। औसत आदमी इस भ्रमण चक्र में निरत रहकर दिन गुजार देता है।

मनुष्य को विचारशील कहा जाता है। यदि यह विचारशीलता गहरी और वास्तविक है तो उसमें सर्वाधिक महत्त्व का एक ही प्रश्न उभरना चाहिए कि मनुष्य जन्म सचमुच ही महत्त्वपूर्ण है। यदि है तो उसका उपयोग निर्वाह के ढर्रे में समय गँवा देने के अतिरिक्त और भी कुछ हो सकता है क्या?

जिनके अन्तराल में इस स्तर की जिज्ञासा उठे उसे ब्रह्म जिज्ञासा वाला तत्वज्ञानी कहना चाहिए भले ही अशिक्षित दरिद्र या अनगढ़ अभावग्रस्त ही क्यों न हो? यह ज्वलंत प्रश्न है। जिसका हल न निकल पाने पर ईश्वर का अमोघ वरदान—मनुष्य जन्म—न केवल निरर्थक चला जाता है वरन् कई बार तो लिप्साओं से ग्रसित होकर कुकर्म करता और पाप का गट्ठर भी शिर पर लादता है। यह तो उपलब्ध बुद्धिमत्ता का अभिशाप जैसी परिणति हुई।

समय का सदुपयोग यह एक ही समाधान है—जीवन सम्पदा का समुचित सत्परिणाम उपलब्ध करने का। इसके लिए एक ही निर्धारण करना है कि शरीर यात्रा के साधन जुटाते रहने के अतिरिक्त भी कुछ किया जाय। क्या किया जाय? इसके उत्तर में जीवन तथा समाज क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियों का आरोपण अभिवर्धन की ही एक बात कही जा सकती है।

यदि दूरदर्शी विवेकशीलता का समुचित दबाव उमँगें तो समझदारी ऐसा सुयोग सहज ही बना देती है जिसमें निर्वाह और परिवार के अतिरिक्त दो आदर्शवादी प्रयोजनों के लिए कुछ समय नियमित रूप से लगाया जा सके। सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन की पुण्य प्रक्रिया को भी अन्यान्य क्रिया-कृत्यों की तरह नियमित रूप से संपन्न किया जा सके। रुझान बदलती है तो तदनुरूप चिन्तन, चरित्र और व्यवहार ढलता है। यह ढलाई यदि आदर्शों के साँचे में ढल सके तो समझना चाहिए कि जीवन की सार्थकता का राजमार्ग मिल गया।


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