विवेक युक्त दान

July 1985

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भगवान बुद्ध उन दिनों अपरिग्रह में लोक शिक्षण कर रहे थे। विलासी और लालचियों को कृपणता के चंगुल से छुड़ाने के लिए यह आवश्यक भी था। फिर सत्प्रयोजनों के लिए साधन कहाँ से आवें? अपव्यय और संग्रह की सर्प कुण्डली से लक्ष्मी को निकालने के लिए यह उपदेश समय की दुहरी आवश्यकता पूरी कर रहे थे। इसमें लालचियों को दुर्व्यसनों से छूटने और अभावग्रस्तों को सहारा मिलने का दुहरा लाभ था।

बहुतों ने अपना संग्रह परमार्थ के लिए बुद्ध बिहारों को दान कर दिया। इतने पर भी अर्थवसु पर उसका कोई प्रभाव न पड़ा। उनने अपने संग्रह में से कानी कौड़ी भी दान न की एक धनाढ्य की, यह कृपणता जन−जन की चर्चा का विषय बन गई।

एक दिन अर्थवसु के पुत्र ने कहा—तात, हमारे निर्धनों जैसे वस्त्र देखकर लोग उपहास करते हैं। पुत्र वधू बोला—दिवाली पूजन पर मुझे आभूषण रहित देखकर सहेलियाँ व्यंग करती हैं। आपके इस संग्रह का लाभ हम लोगों को भी न मिला तो फिर इसका होगा क्या?

अर्थवसु मौन ही बने रहे। जब उन पर बुद्ध के अपरिग्रह त्याग का कोई प्रभाव न पड़ा तो पुत्र और पुत्रवधू का आग्रह ही वे क्यों मानते। उनने गरदन घुमा ली मानो कुछ सुना ही न हो।

सामान्य जनों को भी यह व्यवहार कुछ विचित्र ही लग रहा था। पर इसे सहज ही एक धनिक की कृपण वृत्ति मानते हुए उन्होंने अन्य कोई टिप्पणी नहीं की। चूँकि बुद्ध अपना प्रवचन क्रम वहीं चलाये हुए थे एवं नित्य ही कोई न कोई महादान का प्रसंग आ ही जाता था, तुलनात्मक रूप से अर्थवसु की भी चर्चा आपस में होने लगती एवं लोग उसका खूब उपहास उड़ाते। बुद्ध धर्म चक्र प्रवर्तन के अपने क्रम में वह स्थान छोड़कर आगे बढ़ते चलते गए।

बहुत दिन बीत गये। नालन्दा विश्व विद्यालय की नींव रखी गई। ज्ञान चेतना जगाने के लिए तपस्वी परिव्राजकों को सुविज्ञ बनाने की यह विशाल योजना थी। अर्थवसु ऐसा ही कुछ सोचते थे। निर्धनों को सुविधा प्रदान करने से तो सभी धनवान् तात्कालिक श्रेय सन्तोष प्राप्त करते थे किन्तु वैसे सोचते न बन पड़ रहा था कि ज्ञान आलोक के अभाव में दरिद्रता से छुटकारा कैसे मिलेगा? पत्ते धोने और जड़ सींचने की उपेक्षा होने की बात उन्हें जँच नहीं रही थी। सो संग्रह उनने किसी के हाथ सौंपा नहीं। जब दान से निष्ठुर बना जा सकता है तो पुत्र और पुत्र वधू का अनुरोध ही वे क्यों मानते। आज उपयुक्त अवसर आया था उदारता प्रदर्शित करने का।

एक दिन लोग यह सुनकर आश्चर्यचकित रह गये कि कृपण धनपति अर्थवसु ने अपनी विपुल सम्पदा नालन्दा संघाराम को दान कर दी और स्वयं श्रवण बनकर उसकी इमारत बनवाने की सेवा साधना में निरत हो गये।

तथागत इस आकस्मिक निर्णय पर स्वयं चकित थे। पास बुलाया और कारण पूछा तो उनने एक ही उत्तर दिया। सर्वोत्तम कार्य तलाश के लिए ही कृपणता अपनाये रहा। वस्तुतः मैं निष्ठुर नहीं था—उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने के लिए रुका रहा।

बुद्ध ने उसकी दूरदर्शिता को मुक्त कण्ठ से सराहा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118