पशु-पक्षियों पारिवारिक भावनाएँ

July 1985

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किसी में मानवी उदारता की कमी देखते हैं तो उसे नर पशु कहते हैं। इसका तात्पर्य होता है भावना रहित होना। पर वास्तविकता ऐसी नहीं है। मनुष्येत्तर प्राणियों में भी उनके कार्य क्षेत्र में काम आने वाली उदारता समुचित मात्रा में पाई जाती है। वह उदारमना मनुष्यों के समान ही होती है कई बार उनसे भी अधिक।

बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में मनुष्य को अपनी विशिष्टता का दावा करना बेकार है क्योंकि अन्य प्राणी जिस स्तर का जीवनयापन करते हैं उसमें काम आने वाली बुद्धि की तनिक भी कमी नहीं पाई जाती। यदि ऐसा होता तो साधनों की कमी रहते हुए भी वे इतना प्रसन्न जीवन कैसे जी लेते हैं, वह किस प्रकार संभव हुआ होता।

मनुष्य को भी भगवान ने जिस प्रयोजन के लिए बनाया है उसके लायक ही बुद्धि प्रदान की है। उस पर उसको गर्व करना व्यर्थ है। मनुष्य जिस कारण सराहा जाता है वह उसकी भावनाशीलता है। सहकारिता, उदारता, करुणा जैसे गुणों में मानवी गरिमा सन्निहित है। जिनमें यह संवेदनाएँ नहीं, मात्र चतुरता का ही बाहुल्य है उसी को नर पशु की उपमा दी जाती है।

किन्तु ध्यानपूर्वक देखा जाय तो मानवी भाव संवेदनाओं की पशु पक्षियों में भी कमी नहीं होती। अपने कार्य क्षेत्र में जितनी आवश्यकता है कई बार तो वे उससे भी अधिक सद्भावनाओं का परिचय देते हैं। संतान पालन के संबंध में उनका वात्सल्य और प्रयास मनुष्य की तुलना में निश्चय ही अधिक होता है।

पशु पक्षियों को प्रकृति ने अपना पराया पहचानने तथा भेद करने, तद्नुसार आचरण करने की विलक्षण योग्यता प्रदान की है। विभिन्न प्रयोग इसके साक्षी हैं।

सियरा नेवादा (अमेरिका) में 14 फीट की बर्फ जम जाती है। भीषण जाड़ा पड़ता है। “वेलिंग“ नामक गिलहरी दीर्घ शीत निद्रा के बाद बर्फ कुतरकर बाहर निकल आती है। पांल शर्मान तथा सहयोगियों के एक दल ने लगातार 9 वर्षों तक इन गिलहरियों का अध्ययन किया। करर्नेल वि. वि. के जीव शास्त्र के मूर्धन्य शर्मान पता लगा रहे थे गिलहरियाँ कैसे अपने संबंधी लोगों को पहचान लेती हैं और वैसा व्यवहार करती हैं। अकेले शर्मान ही नहीं विश्व के अनेकानेक विश्व विद्यालयों के पशु पक्षियों की पहचान तथा तत्संबंधी व्यवहार एवं पूरे खानदान की अन्तः भावनाओं पर शोध कर रहे हैं।

प्रकृति में विशेषतः पशु-पक्षी जगत में रक्त की नजदीकी के अनुसार अच्छा या बुरा व्यवहार की परम्परा का होना एक महत्वपूर्ण पैरामीटर समझा जाता है। जीवन शास्त्रविदों के सामने यह प्रश्न है कि पशु पक्षी रक्त संबंध को कैसे पहचान जाते हैं। प्रकृति ने उसके लिए कौन से संयंत्र उनके पास लगाए हैं। दूसरा सवाल यह है कि पशुओं में अपना और पराया क्यों व कैसे होता है उसे जानकर वे अपना व्यवहार कैसे परिवर्तित कर लिया करते हैं। कौन हमारे परिवार का है और कौन बाहरी और इसके अनुसार क्यों वे अपने व्यवहार को सतत् बदलते रहते हैं।

प्रयोग से यह देखा गया है कि गिलहरियों की मादा अपने जान की भी बाजी लगाकर अपनी बहन तथा बेटियों को भय का संकेत देकर उन्हें बचा लेती है। मेंढकों में कुछ इतने परिवार प्रेमी होते हैं कि वे अपने ही सगे भाई बहन के साथ घूमना पसंद करते हैं न कि सौतेले भाई बहन के साथ।

मधु मक्खियाँ अपने छत्ते में उन्हीं मक्खियों को प्रवेश करने देती हैं जो उनके छत्ते की ही होती हैं। चाहे आने वाला समूह अपनों को पहचानने की जानकारी अपने पास क्यों न रखता हो। छत्ते से बाहर वालों को तो भगा कर ही रहती हैं।

सोशियो बॉयलोजी विज्ञान शाखा के एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त का विकास ब्रिटिश बायलाजिस्ट विलियम मिल्टन ने किया है। यह सिद्धान्त है—‘‘किन सलेक्शन” [संबंधियों का चयन]।

जमीन पर दौड़ने वाली गिलहरियों में सबसे अधिक शिकार, शिकारी पशु उन गिलहरियों का करते हैं जो शिकारी के आगमन की जानकारी प्रसारित करती हैं। क्या कारण है कि ये गिलहरियाँ अपनी जान को खतरे में डालकर भी अपने संबंधियों को सावधान कर दिया करती हैं। अनुसंधान से पता लगा कि यह “जीन्स” का है। जिसके द्वारा यह सन्ततियों को लाखों वर्षों से जीने मरने की प्रेरणा देता आ रहा है।

परोपकार की प्रवृत्ति पशुओं में भी पाई जाती है। इसकी पुष्टि पेरिस का निकटवर्ती कब्रिस्तान करता है जहाँ लगभग सवा सौ ऐसे जीव जन्तु दफनाये गए हैं, जिन्होंने अपने तुच्छ जीवन को महानता से जोड़ लिया है। प्रवेश शुल्क भुगतान कर देने के बाद ज्यों ही दर्शक एक कलात्मक द्वार से घुसता है, सबसे पहले उसे एक कुत्ते की मूर्ति बरबस आकृष्ट कर लेती है। इस कुत्ते ने अपने जीवन काल में एक दो नहीं 40 ऐसे व्यक्तियों की जान बचायी जो मदद न मिलने पर मौत के घाट उतर जाते।

कुत्ते के जीवन-वृत्तान्त से ज्ञात है कि ऐसा परोपकारी कुत्ता “बेरी” आल्पस के ढलान पर रहा करता था। उसका स्वामी सैलानी पर्वतारोहियों के मार्गदर्शक के रूप में काम करता था।

आल्पस पर्वत की सुषमा शीत ऋतु में साहसी पर्वतारोहियों को अपनी ओर आकर्षित करती रहती है। इन साहसिक यात्रियों को सांय होते-होते अपने सुनिश्चित कैम्पों तक वापस हो जाना पड़ता है। किन्तु कभी−कभी यात्री मार्ग भूल कर या बर्फीली आँधियों के कारण भटक जाते हैं। पैर के नीचे वाली पतली बर्फ के टूटते ही नीचे खड्ड में गिर पड़ते हैं। रात्रि का तुषारापात उनकी जीवित समाधि बना देता है, जहाँ पड़ा व्यक्ति असहाय एकाकी मरने को ही बाध्य होता है।

बेरी का शौक ही था, जो उसे भयंकर जानलेवा शीत में भी अपने गर्म कोठरी त्यागने को बाध्य करता था। प्रातः होते ही वह हिम-शिखर की ओर सूंघते-सूंघते निकल पड़ता। अपनी घ्राणेन्द्रियों द्वारा वह मानव गन्ध की आहट लेता था कि कहीं कोई आफत का मारा मुसाफिर तो फँसा नहीं है। ज्यों ही उसे किसी की गन्ध लगी, तुरन्त वह चीख−चीख कर अपने स्वामी के पास दौड़ कर पहुँचता। मूक प्राणी के इन संकेतों की उपेक्षा उसके मालिक ने कभी नहीं की। कुत्ता जब अपने स्वामी के साथ उसी स्थान पर लौटता तो उसके संकेतों पर ज्यों ही बर्फ काटी और हटाई जाती, उसमें से लगभग मृत व्यक्ति निकाल लिए जाते। प्रारम्भिक उपचार करके उन्हें मौत से उबार लिया जाता था।

बेरी का दैनन्दिन स्वभाव यही था जिसके बलबूते उसने 40 आफत के मारों को पुनर्जीवित कराया। यह संयोग ही था कि अन्तिम व्यक्ति, जिसको उसने हिम समाधि से उबारा, वह कृतघ्न निकला। बर्फ में पड़े−पड़े वह भूख के मारे इतना छटपटा रहा था कि बाहर निकलते ही उसने अपने जीवन दाता कुत्ते को ही गोली का शिकार इसलिए बना लिया ताकि उसकी क्षुधा पूर्ति हो सके। उसने चालीस को बचाया लेकिन एक मानव की कृतघ्नता ने उसका जीवन अन्त कर दिया। इसी का प्रायश्चित्त वहाँ के नागरिक समुदाय ने उस कुत्ते की कब्र बनाकर किया है।


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