निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त एकात्मता

July 1985

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मस्तिष्क और हृदय दो केन्द्र ऐसे हैं जो शरीर के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। यों तो महत्व हर अंग अवयव का है। शरीर परिचालन तथा विभिन्न क्रिया-कलापों में उनकी अपनी-अपनी भूमिकाएँ हैं, पर जो भूमिका मस्तिष्क और हृदय की है, अन्य किसी भी कायिक अंग−प्रत्यंग की नहीं है। मस्तिष्क की सामान्य जानकारी विभिन्न तन्त्रों के ऊपर नियन्त्रण रखने तथा हृदय की रक्त परिवहन में केन्द्रीय भूमिका निभाने के रूप में मिलती है। ये कार्य स्थूल हैं। इनकी सूक्ष्म भूमिकाएँ और भी अधिक महत्वपूर्ण है। सोचने विचारने निर्णय लेने आदि की क्षमता मस्तिष्क में ही होती है। हृदय से भाव सम्वेदनाएँ निस्सृत होती हैं बाह्य जगत से आदान−प्रदान का क्रम भी इन्हीं दो केन्द्रों के माध्यम से चलता है। ये स्वयं भी बाह्य परिस्थितियों से प्रभावित होते तथा दूसरों को भी अपनी स्थिति के अनुरूप प्रभावित करते हैं। अत्याधिक सम्वेदनशील होने के कारण इनकी स्थिति में समय−समय पर परिवर्तन होते रहते हैं, जिसकी प्रतिक्रियाएँ व्यक्ति एवं वातावरण पर दिखाई पड़ती हैं। समूचे शरीर में क्या परिवर्तन हो रहे हैं, उसकी सूक्ष्म जानकारी इन दो मर्मस्पर्शी केन्द्रों की स्थिति से मिल जाती है। विचारणा के स्तर तथा अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के आधार पर उसका परिचय आसानी से मिल जाता है।

सौर मण्डल शरीर की तरह ही एक विराट् शरीर है। ब्रह्माण्ड में ऐसे अगणित विराट् घटक क्रियाशील हैं, उनकी संख्या एवं स्वरूप की सही−सही जानकारी किसी को भी नहीं है। अपने सौर−मंडल में नौ ग्रह हैं। उल्टी कक्षा में घूमने वाले एक अन्य ग्रह का भी प्रमाण मिला है जिसे दसवाँ ग्रह समझा जा रहा है। मंगल, पृथ्वी, बृहस्पति, बुध, शनि, शुक्र, प्लेटो, नैप्च्यून, यूरेनस के अतिरिक्त दसवाँ ग्रह भी उस परिवार में सम्मिलित हो गया है। ये सभी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। हर ग्रह के अनेकानेक उपग्रह हैं। अपनी पृथ्वी का चन्द्रमा है। सौर−मण्डल के हर घटक परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। पृथ्वी का निज का जितना वैभव है उससे अनेक गुना दूसरे घटकों के अनुदानों से मिला है। गर्मी, प्रकाश, वर्षा आदि अनुदान तो प्रत्यक्ष दिखते हैं पर सूक्ष्म दिखायी नहीं पड़ते। सूक्ष्म आदान−प्रदान के अतिसंवेदी केन्द्रों का परिचय पृथ्वी के ध्रुव केन्द्रों के रूप में मिला है। उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव के रूप में दो गह्वर पर अवस्थित इन केन्द्रों के अतिरिक्त भूगर्भ में एक हृदय संस्थान भी है। पृथ्वी का घोर ताप युक्त यह हृदय केन्द्र अत्यन्त विशाल है। इसकी त्रिज्या 2100 मील है। इस भाग को ‘बेरी स्फियर’ कहते हैं।

भूगर्भ विज्ञान के अनुसार पृथ्वी गोल है। केवल ध्रुवीय क्षेत्रों में कुछ पिचकी हुई है। भूमध्य रेखा क्षेत्र में कुछ उभरी हुई है। पृथ्वी का व्यास 7900 मील है। पर्वतों की सर्वोच्च चोटी प्रायः 5॥ ऊँची और समुद्र की अधिकतम गहराई 7 मील है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि ऊर्जा प्रदान करने वाले सौरमण्डल का अब अन्त समीप आ गया। काल गणना करने वालों का मत है कि सूर्य का किशोर काल अतीत हो गया है। प्रौढ़ावस्था अभी चल रही है। यह उसकी ढलती उम्र है जो उसे क्रमशः मरण की दिशा में घसीटे लिये जा रही है। जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं वह शतपथ ब्राह्मण के अनुसार सूर्य की पतिव्रता पत्नी है वह उसी की कमाई खाती है। सुरक्षा के लिये उसी पर आश्रित है और पति के मरण पर साथ सती होने के लिये समुद्यत है। अस्तु सूर्य के मरण का सीधा संबंध अपनी पृथ्वी के साथ होते और उसके अंचल में पलने वाले हम सब मनुष्यों का भाग्य भी इन अभिभावकों की स्थिति पर अवलम्बित है।

पृथ्वी के अन्य भागों की अपेक्षा ध्रुवों की परिस्थितियाँ असामान्य हैं। ऐसा माना जाता है कि अंतर्ग्रही विशिष्ट अनुदान इन्हीं केन्द्रों से अवतरित होकर समस्त भू-मण्डल पर वितरित होते हैं तथा विजातीय द्रव्य दक्षिणी ध्रुव के माध्यम से अन्तरिक्ष में फेंक दिये जाते हैं, एवं यह मान्यता पूर्णतः विज्ञान सम्मत भी है।

इन ध्रुव प्रदेशों पर दुर्लभ मनोरम दृश्य दिखाई पड़ते हैं। उत्तरी ध्रुव पर छाया रहने वाला सुविस्तृत तेजोवलय ‘अरोरा बोरिएलिस’ अपनी अद्भुत आभा से हर किसी का मन मोह लेता है। “दि नेशनल एरौना−टिक्स एण्ड स्पेश एडमिनिस्ट्रेशन” (नासा) द्वारा छोड़े गये डायनामिक्स एक्सप्लोरेटर सेटेलाइट से अनेकों हाई रिजोल्यूशन फोटोग्राफ्स लिए गये। उससे आश्चर्यजनक जानकारियाँ मिलीं। अध्ययन−अन्वेषण में लगे वैज्ञानिकों का मत है कि अन्तरिक्ष से आने वाले सब एटोमिक पार्टिकल्स पृथ्वी के विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र में प्रवेश करके आवेशित हो जाते हैं तथा ध्रुव केन्द्रों पर ध्रुव प्रभा के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। ध्रुव प्रभा का क्षेत्र विस्तार 4000 कि.मी. व्यास है। इसकी किरणों की पट्टियाँ जो ध्रुव केन्द्र को आवृत्त किये होती हैं, उनकी चौड़ाई 1000 कि.मी. हुआ करती है। यह प्रभा मण्डल जमीन से 100 कि.मी. ऊपर चमकता है तथा उसके स्वयं की ऊँचाई दस से लेकर सैंकड़ों किलोमीटर तक होती है। दिन में चर्म चक्षुओं से आरोरा को देखने में कठिनाई होती है पर रात को वह स्पष्ट दिखाई पड़ता है। दिन और रात के आरोरा में विशेष अन्तर भी पाया जाता है। सूर्य किरणों के आड़े−तिरछे पड़ने से उसका रूप, रंग बदलता रहता है। उसे शक्तिशाली कैमरों से ही देखा और उनका फोटो लिया जा सकता है।

यूनाइटेड स्टेट्स के उत्तरी क्षेत्र के आकाश मार्ग से ध्रुवीय ज्योति को सैंनफ्रेंसिसको, मेमफिस तथा एटलान्टा के दक्षिण छोर पर रंग−बिरंगे रूप में देखा जा सकता है। 53 डिग्री अक्षांश पर तथा मध्य रात्रियों में उसके दर्शन किए जा सकते हैं। वैज्ञानिकों का अभिमत है कि ध्रुवीय ज्योति का प्रकाश हाइड्रोजन आयन अथवा प्रोटोन के प्रवाह से उत्पन्न होता है जो सूर्य से 1500 मील प्रति सेकेंड की गति से फेंका जाता है। प्रकाश कण प्रोटान्स इलेक्ट्रान्स को भी साथ खींचकर लिये चलते हैं जिनका कुछ अंश पृथ्वी तक पहुँचता है जहाँ का चुम्बकीय क्षेत्र इलेक्ट्रानों तथा प्रोटॉनों को अलग कर देता है। प्रोटॉनों का जल अंश पृथ्वी के वायुमण्डल से स्पर्श करता है तो ध्रुवीय ज्योति (आरोरा) के रूप में प्रकट होता है। इसका यथार्थ स्वरूप तथा भूमिका अविज्ञात हुए भी सम्भावना व्यक्त की गई है कि धरती पर अंतर्ग्रही अनुदानों की वर्षा का यह स्थूल प्रकटीकरण है।

अलेक्जेण्डर मार्शेक ने सघन अन्तरिक्ष में प्रकाश के रूप में भी, शब्दों के रूप में भी सौर−मण्डल तथा मन्दाकिनी आकाश गंगा से आने वाले शक्ति प्रवाहों को सुना है। उसका यन्त्र अंकन किया है। यह आवाज क्रमबद्ध संगीत एवं स्वर लहरियों की तरह है। यों कान से वे ध्वनि मात्र सुनाई पड़ती हैं उनका कोई विशेष महत्व समझ में नहीं आता पर खगोल विद्या की नवीनतम शोधें यह स्पष्ट करती चली जा रही हैं कि यह शब्द प्रवाह भी सूर्य से ध्रुव प्रदेशों पर बरसने वाले गति प्रवाहों की तरह ही अतीव सामर्थ्यवान है और उनके द्वारा प्राणियों के शरीर तथा मन पर ऐसा प्रबल प्रभाव पड़ता है जैसा व्यक्तिगत प्रयत्नों से बहुत परिश्रम करने पर भी सम्भव नहीं, यह प्रभाव भले और बुरे दोनों ही स्तर का हो सकता है।

इस सबके बावजूद यह तथ्य भुलाया नहीं जा सकता कि पृथ्वी को सूर्य से ही सर्वाधिक अनुदान मिलते हैं और वह उसकी स्थिति, गति एवं परिवर्तनों से प्रभावित भी होती है। उन प्रभावों को इन ध्रुवों पर अध्ययन कर सकना अधिक सुगम है। ध्रुवीय ज्योति का सूर्य कलंकों से भी घना संबंध है। जब सूर्य की प्रकृति शान्त रहती है तब ध्रुवीय ज्योति मन्द दिखाई पड़ती है पर उग्र होने पर उस ज्योति का दर्शन दिन और रात को अधिक समय तक किया जा सकता है।

स्पेस क्राफ्ट से किये गये निरीक्षणों के अनुसार सोलर विण्ड की धारायें सूर्य के विषुवत् वृत्त से उत्तर एवं दक्षिण की ओर क्रमशः फैलते−उतरते हुए उत्तरी−दक्षिणी ध्रुव तक जा पहुँचती हैं। सोलर विण्ड की गति जब तीव्र रहती है तो सूर्य के उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव के पोलर होल्स अधिक चौड़े रहते हैं। जिसके कारण ध्रुव प्रदेशों में सोलर विण्ड की धारा अत्यन्त तेज पाई जाती है। जब उनकी गति कम होती है तो ध्रुव प्रदेशों में भी उस प्रवाह की गति कम दिखाई पड़ती है।

न केवल अंतर्ग्रहीय प्रभावों को इन ध्रुव केन्द्रों पर देखा जा सकता है बल्कि पृथ्वी एवं उसके वातावरण में हुए हेर-फेर का भी प्रभाव वहाँ देखना सम्भव है। विगत दिनों यह आश्चर्यजनक तथ्य विदित हुआ है कि पृथ्वी पर होने वाले नाभिकीय परीक्षणों से होकर विकिरण दक्षिणी ध्रुव तक न जाने कैसे और क्यों पहुँच जाते हैं। खतरनाक विकिरणों की एवं उत्तरी ध्रुव के प्रदूषण की बड़ी मात्रा दक्षिणी ध्रुव के किनारे एकत्रित होती चली जा रही है।

इन ध्रुवों के संबंध में जैसे−जैसे विस्तृत जानकारियाँ मिलती जा रही हैं, इनकी विलक्षणता वैज्ञानिक समुदाय को हतप्रभ तो करती ही है, नवीन अन्वेषणों के लिए उत्साहित भी करती है।

उत्तरी ध्रुव एक गड्ढा है तो दक्षिण ध्रुव गुमड़ा। उत्तरी ध्रुव की बर्फ दक्षिणी ध्रुव से अधिक गर्म होती है जल्दी गलने और जल्दी जमने वाली भी होती है। दक्षिणी ध्रुव उजाड़ क्षेत्र है यहाँ कुछ पक्षी जलचरों के अतिरिक्त एक पंखहीन मच्छर भी पाया जाता है। वह क्या खाकर जीता है और कैसे इतनी भयंकर शीत में जीवन धारण किये रहता है। वैज्ञानिक इस प्रश्न का आज तक समाधान नहीं कर सके।

उत्तरी ध्रुव में जीवन का बाहुल्य है पौधों तथा जन्तुओं की संख्या करोड़ों तक पहुँचती है। यहाँ दिन और रात समान नहीं होते, 6-6 माह के भी नहीं होते—कई बार रात 80 दिन के बराबर होती है। यह सबसे लंबी रात होती है। क्षितिज के बीच सूर्य वर्ष में 16 दिन रहता है। यहाँ चन्द्रमा इतनी तेजी से चमकता है कि उसके प्रकाश में, दिन में सूर्य की रोशनी के समान ही काम किया जा सकता है।

कुछ मेरुप्रकाश विस्तृत और आकृतिहीन होते हैं कुछ सजीव और हलचल करते हुए। कभी वे किरणों की लंबाई के रूप में जान पड़ते हैं कभी प्रभा और ज्वाला के रूप में, कभी वह दृश्य बदलता हुआ, कभी चाप, पट्टी और कोरोना के रूप में होता है तो कभी प्रकाश गुच्छे सर्चलाइट के समान। यहाँ रात भर तरह−तरह के दृश्य बदलते हैं। हर दृश्य और परिवर्तन सूर्य की अपनी आन्तरिक हलचल का प्रतीक है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण अन्तर्राष्ट्रीय भू-भौतिक वर्ष अनुसंधान के दौरान आया और उसके विलक्षण आकार-प्रकार देखने में आये। स्मरण रहे भू−भौतिक वर्ष सूर्य के 11 वर्षीय चक्र के दौरान मनाया जाता रहा है इस अवधि में सूर्य की आन्तरिक हलचल बहुत बढ़ जाती है, यह प्रकाश मुख्यतः चुम्बकीय तूफान होता है जो पृथ्वी की सारी यान्त्रिक क्रिया में क्रान्ति उत्पन्न करके रख देता है।

मार्च तथा सितम्बर में (चैत्र तथा क्वार) जब कि पृथ्वी का अक्ष सूर्य के साथ उचित कोण पर होता है मेरुप्रकाश अधिक मात्रा में पृथ्वी पर पड़ता है जबकि अन्य समय गलत दिशा के कारण प्रकाश लौटकर ब्रह्माण्ड में चला जाता है। यही वह अवधि होती है जब पृथ्वी में फूल−फलों की वृद्धि और ऋतु परिवर्तन होता है। पूरी पृथ्वी पर पलने वाले जीवधारी एवं वृक्ष वनस्पति अपना ऊर्जा अनुदान सूर्य के साथ बदलती स्थिति के अनुरूप पाते रहते हैं। उनके जीवन का प्राणाधार यही सूर्य है जो स्वयं किसी महासूर्य से संचालित होता है। इस महासूर्य को परब्रह्म का प्रतीक रूप या महापिण्ड भी कह सकते हैं।

उत्तरी ध्रुव की तरह दक्षिणी ध्रुव में भी ध्रुव प्रभा के दर्शन होते हैं। उत्तरी ध्रुव से उसकी भिन्नता होने के कारण वैज्ञानिकों ने उसका नाम ‘आरोरा आस्ट्रेलिस’ दिया है। दिन यहाँ भी बहुत ही लंबे होते हैं। जिन अन्वेषी दलों ने वहाँ की परिस्थितियों का अध्ययन किया है उनका कहना है कि कई दिनों तक रात्रि के दर्शन नहीं हो सके। आकाश में रंग−बिरंगे गैसों के बादल मँडराते रहते हैं। तापक्रम शून्य से भी कई डिग्री नीचे बारहों माह तक बना रहता है। सदा बर्फ की मोटी परत जमीं रहती है। सफेद भालू, पेन्गुइन पक्षी तथा मछलियाँ उस भयंकर शीत में भी जीवित रहते हैं। अनुसंधान कर्ताओं का मत है कि उत्तरी दक्षिणी ध्रुव पर दिखने वाला प्रभा मण्डल का अंतर्ग्रहीय परिस्थितियों के आदान−प्रदान से गहरा संबंध है जिसकी यथार्थ जानकारी तो उपलब्ध नहीं हो सकी है, पर अगले दिनों मिलने की सम्भावना है। ये ध्रुव स्थिर भी नहीं हैं। मान्यता यही है कि कालान्तर में ये अपना स्थान बदलें, क्योंकि ये पहले भी ऐसा करते रहें हैं।

कुछ भी हो ध्रुवी संबंधी यह विवेचन व्यष्टि एवं समष्टि के मध्यवर्ती संबंधों को स्पष्ट करते हैं एवं ब्रह्माण्ड संबंधी ऐसे अनेकों रहस्यों का उद्घाटन करता है जो प्रगति की चरम सीमा पर पहुँचे हुए विज्ञान को विलक्षण अद्भुत लगती है।

वस्तुतः आत्मिकी का यह मत है कि सारा विश्व ब्रह्माण्ड ही एक है। समग्र विश्व की चेतना का अधिष्ठाता विश्वात्मा है। बिखरी हुई आत्माएँ इसी के छोटे−छोटे घटक हैं। जब तक यह इकाइयाँ परस्पर मिलकर रहती हैं और एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हैं तभी तक दृश्यमान सौंदर्य का अस्तित्व है यदि इनका विघटन होने लगे तो केवल धूलि मात्र ही इस संसार में शेष रह जायगी विश्व मानव की विश्वात्मा यदि अपनी समग्र चेतना से विघटित होकर संकीर्ण स्वार्थपरता में बिखरने लगे तो समझना चाहिए विश्व सौंदर्य की समाप्ति का समय निकट आ गया।

डा. फ्रिटजॉफ काप्रा जिन्होंने ‘ताओ ऑफ फिजीक्स” व “टर्निंग प्वाइंट” जैसी प्रसिद्ध पुस्तकें लिखी हैं। स्वीकार करते हैं कि परमाणु का प्रत्येक घटक विश्व ब्रह्माण्ड का परिपूर्ण घटक है अर्थात् प्रत्येक अंश में ब्रह्माण्ड सत्ता ओत-प्रोत है। अणु में ही विराट् ब्रह्माण्ड के दर्शन किये जा सकते हैं। यह पारस्परिक संबंध इतने प्रगाढ़ हैं कि इन्हें कभी निरस्त नहीं किया जा सकता। जहाँ इस तरह का प्रयास होता है, वहाँ भयंकर दुष्परिणाम उपस्थित हो उठते हैं।

परामनोविज्ञान की नवीनतम शोधें भी इसी निष्कर्ष पर पहुँची हैं कि मनुष्य चेतना ब्रह्माण्ड चेतना की अविच्छिन्न इकाई है। अस्तु प्राण सत्ता शरीर में सीमित रहते हुए भी असीम के साथ अपना संबंध बनाये हुए है। व्यष्टि और समष्टि के मूल सत्ता में इतनी सघन एकता है कि एक व्यक्ति समूची ब्रह्म चेतना का प्रतिनिधित्व कर सकता है। इस संबंध में विज्ञान की दृष्टि भी उदार बनती जा रही है अब विज्ञान अपनी भाषा में परब्रह्म को, परमात्मा को ‘ब्रह्माण्डीय चेतना’ के रूप में स्वीकार करने लगा है और उसका घनिष्ठ संबंध जीव चेतना के साथ जोड़ने में उसे विशेष संकीर्ण नहीं रह गया है। यह मान्यता जीव और ब्रह्म अंश और अंशी के रूप में मानने की वेदान्त व्याख्या से बहुत भिन्न नहीं है।


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