महल की छत (kahani)

July 1985

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राजा जनक महल की छत पर सोये हुए थे। हंस हंसिनी, अटारी की मुंडेर पर बैठे वार्त्तालाप करने लगे। हंसिनी बोली- इन दिनों सबसे बड़े ब्रह्मज्ञानी राजा जनक हैं। हंस ने बात काट कर कहा- तुम रैक्य को जानती नहीं। अपने समय के वे ही सबसे बड़े ब्रह्मवेत्ता हैं। हंसिनी ने पूछा- भला कौन है-रैक्य? हंस ने उत्तर दिया- अरे, वही गाड़ी वाला रैक्य, जो गाड़ी खींचकर बोझ ढोता और अयाचित वृत्ति से निर्वाह करता है।

जनक अधजगे थे। वे पक्षियों की भाषा जानते थे। सो करवट बदलकर हंस हंसिनी की वार्ता ध्यान पूर्वक सुनने से निमित्त करवट बदलने लगे। आहट पाकर युग्म चौकन्ना हुआ और उड़ गया। बात अधूरी रह गई।

राजा को नींद नहीं आई। रैक्य कौन हैं? कहां रहते हैं? उनसे कैसे संपर्क सधे? यह विचार उन्हें बेचैन किये हुए था। सवेरा होते ही दरबार लगा। राजा ने सभासदों से गाड़ी वाले रैक्य को ढूँढ़ निकालने का आदेश दिया। दौड़-धूप तेजी से आरम्भ हो गई।

कठिनाई से बहुत दौड़−धूप के बाद रैक्य का पता चला। राजदूतों ने उनसे जनक नगरी चलने का अनुरोध किया। जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। मुझे राजा से क्या लेना देना, अपना प्रस्तुत कर्त्तव्य पूरा करूं या इधर−उधर भागता फिरूं?

दूतों ने सारा विवरण कह सुनाया। जनक स्वयं ही चल पड़े और वहाँ पहुँचे जहाँ गाड़ी खींच धकेलकर निर्वाह चलाते और साधना सेवा का समन्वित क्रम चलाते थे।

राजा ने इतने बड़े ब्रह्मज्ञानी को ऐसा कष्ट साध्य जीवनयापन करते देखा तो द्रवित हो उठे। सुविधा साधनों के लिए उनने धनराशि प्रस्तुत की।

अस्वीकार करते हुए रैक्य ने कहा- राजन्, यह दरिद्रता नहीं, ब्रह्मवेत्ता का अपरिग्रह है। जिसे गंवा बैठने पर तो मेरे हाथ से ब्रह्म तेज भी चला जायेगा।

तत्वज्ञान के अनेक मर्म रहस्यों को सत्संग से जानने के उपरान्त जनक यह विचार लेकर वापस लौटे कि विलासी नहीं, अपरिग्रही ही सच्चा ब्रह्मज्ञानी हो सकता है। उन्हें नई दिशा मिली। उस दिन से उन्होंने अपने हाथों कृषि करने, हल चलाने की नई योजना बनाई और श्रम उपार्जन के सहारे निर्वाह करते हुए राज−काज चलाने लगे।


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