हेली-धूमकेतु से जुड़ी हुई आशंकाएँ

July 1985

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हेली धूमकेतु 76 वर्ष बाद आगामी वर्ष सन् 1986 में प्रकट होने वाला है। इससे पूर्व वह 1456, 1531, 1607, 1682, 1758 में प्रकट होता रहा है। इसके सम्बन्ध में दैवज्ञ हेली ने बहुत खोज-बीन की थी, इसलिए उन्हीं के नाम पर इस पुच्छल तारे का नामकरण किया गया। उनकी मृत्यु के पश्चात दूसरे वैज्ञानिक उसकी कक्षा एवं गति का सहायता लगाने का प्रयत्न करते रहे हैं पर अभी उस संदर्भ में उतनी सुनिश्चित जानकारी नहीं मिली है जिस पर सन्तोष किया जा सके।

धूमकेतु की संरचना ठोस द्रवों एवं वाष्पीय पदार्थों से हुई है पर वह परिभ्रमण करते हुए जब सूर्य के निकट पहुँचता है तो बढ़ी हुई ऊर्जा का दबाव पड़ता है। जिस भाग पर यह दबाव पड़ता है वह वाष्पीकृत होकर फूलने और फैलने लगता है। इसी को धूमकेतु की पूँछ कहते हैं। इस पूँछ की विशेषता के कारण ही प्राचीन ज्योतिषी उसे पुच्छल तारा कहते थे।

मंगल ग्रह के परिक्रमा पथ के निकट पहुँचने पर दुम का यह विस्तार विशेष रूप से बढ़ने लगता है कभी-कभी सूर्य के गुरुत्वाकर्षण के कारण यह दुम छोटे-छोटे कई खण्डों में बँट भी जाती है। खगोल शास्त्रियों के गणितानुसार औसत धूमकेतु का वजन 19 मिलियन टन होता है। उसकी परिक्रमा 76.1 वर्ष में पूरी होती है। अपनी धुरी पर वह 10.3 घण्टे में घूम लेता है।

240 वर्ष पूर्व ज्योतिर्विदों की दृष्टि इस पर गई थी। तब से अब तक उसके सम्बन्ध में नई जानकारियाँ जुड़ती आई हैं। इसकी लम्बाई 10 करोड़ कि.मी. आँकी गई है। इस बार यों इसी वर्ष के क्रिसमस के एक दिन पूर्व में वह दिखने लगेगा। पर बिना दूरबीन की सहायता के उसे खुली आँखों से 11 अप्रैल सन् 86 को देखा जा सकेगा। उस दिन यह पृथ्वी से मात्र 80.7 करोड़ कि.मी. दूर होगा। ग्रह नक्षत्रों की गणना के हिसाब से इतनी दूरी निकटवर्ती ही मानी जाती है।

बम्बई की नेहरू वेधशाला के निर्देशक का कथन है कि सन् 85-86 में पृथ्वी को हेली लहर प्रभावित करेगी और उसके कारण धरती के स्वाभाविक क्रम में कई प्रकार की अस्त-व्यस्तताएँ उत्पन्न होने की सम्भावना है।

इस बार हेली धूमकेतु के सम्बन्ध में कितनी ही अभिनव जानकारियाँ एकत्रित करने की तैयारी अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से की जा रही है। जापान, रूस, फ्राँस आदि के सहयोग से एक उपग्रह उन दिनों भेजा जायेगा जो 1000 कि.मी. दूर रहकर उसकी परिस्थितियों का पता लगायेगा और चित्र खींचेगा। इसे जुलाई 85 में भेजने का प्रस्ताव है। इस पुच्छल तारे को दूरबीनों के सहारे जनवरी 86 से ही देखा जाने लगेगा। धूमकेतु के पृथ्वी के निकट से निकलना किसी संकट की आशंका उत्पन्न करता है। सन् 1908 में साइबेरिया क्षेत्र में एक भयंकर विस्फोट हुआ था उसने धरती के सुदूर क्षेत्रों को प्रभावित किया था। इसके सम्बन्ध में खगोल वेत्ताओं का एक अनुमान यह भी है कि धूमकेतु की किसी आड़ी-टेढ़ी चपेट के कारण हुआ था। आवश्यक नहीं कि इसकी समीपता कोई संकट खड़ा ही करे पर यह आशंका अवश्य है कि उसकी धूल उड़कर पृथ्वी की ओर आने लगे तो सूर्य को अन्धेरे में बदल देने वाले अन्धड़ भी आ सकते हैं। कई प्रकार के ऐसे रोग कीटाणु भी पृथ्वी पर उतर सकते हैं जिनका अस्तित्व अभी पृथ्वी पर नहीं देखा गया। यह अवतरण किन्हीं असाध्य महामारियों की उत्पत्ति का निमित्त कारण हो सकता है। इस थोड़े से टकराव में हिमयुग लौट पड़ने की सम्भावना का भी अनुमान लगाया जा सकता है।

पुरातन मान्यता के अनुसार धूमकेतुओं का उदय देवताओं द्वारा छोड़ी गई क्रोध सूचक दुर्गन्ध से होता है जो कि पृथ्वी निवासियों का अनिष्ट करता है। इस मान्यता की आँशिक पुष्टि केपलर, गैलीलियो, कोपरनिक्स, न्यूटन, प्लेटो आदि वैज्ञानिकों ने भी की है और कहा है कि इनका पृथ्वी के निकट आना चिन्ताजनक ही हो सकता है। आधुनिक वैज्ञानिक ऐसा तो नहीं मानते, पर इस नवागन्तुक द्वारा उत्पन्न हो सकने वाले खतरों से बेखबर भी नहीं हैं। वैज्ञानिक फ्रेडहाइल का कथन है कि उसकी पूँछ पृथ्वी पर कई प्रकार के नए अविज्ञात रोग कीटाणु बिखेर सकती है।

प्रस्तुत धूमकेतु का वजन अन्यों की अपेक्षा 10 हजार मिलियन टन आँका गया है। वह 10 नवम्बर 85 से 29 अप्रैल 86 तक पृथ्वी के निकट रहेगा। उस बीच कभी-कभी वह दूरबीनों से ही नहीं नंगी आँखों से भी देखा जा सकेगा। संसार के अनेक देश, अपने पृथक साधनों से भी और संयुक्त साधनों से भी उसकी जाँच पड़ताल करेंगे और इसके लिये इस वर्ष के मध्य में अन्तरिक्ष यान भेजे चुके हैं। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्राँस आदि इस में अग्रणी रहे हैं। उसकी कुछ धूलि बटोर कर पृथ्वी पर भी लाने का विचार है ताकि उसके इतिहास और प्रभाव का अधिक अच्छा मूल्याँकन हो सके।

अन्तरिक्ष में छोटे-बड़े प्रायः 1 खरब धूमकेतु विचरते खोजे गये हैं। इनमें सबसे बड़ा वर्तमान धूमकेतु ‘हेली’ है। पिछले छोटे धूमकेतु जब कभी पृथ्वी के निकट आये हैं। तब भारी उथल−पुथल करते रहे हैं। उनने पृथ्वी का नक्शा बदला और विशालकाय प्राणियों का नस्लों का, अन्त कर दिया। सन् 1908 में 30 जून को आये एक छोटे से धूमकेतु ने साइबेरिया की भूमि पर एक भयंकर विस्फोट तो किया ही था आकाश को चमकती धूलि से भी भर दिया था। प्रथम विश्वयुद्ध इसी की परिणति रूप में माना जाता रहा है।

धूमकेतु अध्ययन के लिए उसके निकट 10 किलोमीटर रहने पर भी किसी दुर्घटना की आशंका की जाती है, ऐसी दशा में उसे दूर भगा देने के लिए शक्तिशाली अणु आयुध तैयार रखे गये हैं। जो उसका शीर्ष भाग उड़ा देने या रास्ता बदल देने में समर्थ हो सकें। इतने पर भी यह आशंका बनी ही रहेगी कि धकेले जाने पर सौर मण्डल के किसी अन्य ग्रह का सन्तुलन न बिगड़े। अच्छाई इतनी ही है कि वह निकटतम होते हुए भी पृथ्वी से 650 लाख किलोमीटर दूर रहेगा। उसकी पूँछ 8 करोड़ किलोमीटर लंबी होगी जो दूर रहते हुए भी पृथ्वी को प्रभावित करेगी।

इन सब आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए ईश्वर से प्रार्थना यही की जानी चाहिए कि यह विपत्ति भी उसी तरह टल जाय जिस प्रकार कि इन परिस्थितियों में पहले भी “स्काई लैब” जैसी एवं अनेकों विपत्तियाँ, प्रकृति प्रकोप टलते रहे हैं अथवा कम हानि पहुँचाकर ही इतिश्री करते रहे हैं। हर दृष्टि से प्रस्तुत वर्ष एवं आने वाले तीन वर्ष विश्व वसुधा की भविष्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे। इन दिनों मानवता को एक नहीं, अनेकानेक विभीषिकाओं का सामना करना पड़ सकता है। परीक्षा की घड़ी तो है ही यह। ऐसे में सामूहिक धर्मानुष्ठानों का वातावरण परिशोधन की दृष्टि से सर्वोपरि महत्व है। धरती को यदि मँझधार पार करनी है तो सभी या तो एक साथ पार होंगे या डूबेंगे। आशा करनी है चाहिए कि सब विपत्तियों के निवारण हेतु संबद्ध होंगे।


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