देखने और छूने पर मनुष्य की काया एक ही आवरण से आच्छादित दिखती है। पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। शवोच्छेद करने पर उनके अनेक घटक अपनी-अपनी जगह पर अवस्थित और एक दूसरे के साथ संबद्ध दिख पड़ते हैं। अस्थि पंजर के ढाँचे के साथ लिपटी हुई अनेकों इकाइयाँ अपना-अपना काम करती दिखाई पड़ती हैं। साँसें चलने तक यह ढाँचा जीवित रहता है और हृदय एवं मस्तिष्क की गतिविधियाँ बन्द होते ही यह समझ लिया जाता है कि मृत्यु हो गयी। तब काया को येन-केन प्रकारेण नष्ट करने की आवश्यकता पड़ती है अन्यथा उसके भीतर से कृमि उत्पन्न होकर उसे खाते और समाप्त कर देते हैं।
यह प्रत्यक्ष काया की बात हुई। इसी के अन्दर सूक्ष्म शरीर है जिसका आरम्भ माता की उदरदरी में आरम्भ होता है और श्मशान भूमि में उसकी समाप्ति हो जाती है। पर बात इतने तक सीमित नहीं है। पुरातन मान्यताओं के अनुसार मरणोत्तर जीवन बना रहता है। भूत, प्रेत, स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म आदि का अस्तित्व यह बताता है कि प्रत्यक्ष काया का अस्तित्व समाप्त हो जाने पर परोक्ष काया का अस्तित्व बना रहता है। जीवन काल में भी स्वप्न देखने के संबंध में कभी यही मान्यता थी कि शरीर से बाहर निकलकर सूक्ष्म शरीर कहीं परिभ्रमण के लिए निकल जाता है और वहाँ जो कुछ देखता है उसे स्मृति के सहारे आँख खुलने पर बताता है। यह मान्यताएं पुरानी हुईं और किंवदंती के रूप में प्रचलित हैं फिर भी पता चलता है कि अस्थि पंजर के अतिरिक्त किसी सूक्ष्म शरीर के अस्तित्व की मान्यता चिरकाल से चली आ रही है। मरण के उपरान्त परिवार वालों द्वारा जो क्रिया−कृत्य किये जाते हैं वे उस उद्देश्यपूर्ण शरीर की सत्ता को मान्यता देते हुए ही किये जाते हैं।
योगाभ्यास द्वारा सूक्ष्म शरीर को विकसित, सशक्त एवं क्रियान्वित करने के कतिपय विधि−विधान हैं। उसके आधार पर इस प्राण सूक्ष्मता के अंतर्गत कोई भेद−प्रभेद भी बताये जाते हैं। मोटेतौर पर इन्हें सूक्ष्म और कारण कहा जाता है। त्रिविधि शरीरों के अतिरिक्त एक और सिद्धान्त है जिसे पंचकोश कहते हैं। उन्हीं को थोड़े भेद−उपभेद से षट्चक्र प्रकरण कहा गया है। कुण्डलिनी विज्ञान में षट्चक्र की प्रक्रिया आती है। इस विभाजन के आधार पर क्षमताओं का विभाजन भी है और जिस क्षमता से जो प्रयोजन सधता है उसका विवरण भी। अभिवर्धन और उपयोग की कार्य पद्धति को सूत्र रूप में वैदिक एवं तान्त्रिक विधि-विधानों ने अपने-अपने ढंग से बताया है। अनुभवियों की गुरु परम्परा के आधार पर साधक की मनःस्थिति तथा उपयोग से संबंधित परिस्थितियों का ध्यान रखकर चलने पर यह पगडण्डियाँ गुरु परम्परा भी बन जाती हैं। कभी कोई एक राजमार्ग भी रहा होगा, पर इन दिनों देश, काल, पात्र का ध्यान रखते हुए अपनाये गये अनुभवों और हस्तगत हुए परिणामों को ध्यान में रखते हुए काम चलाने का प्रचलन है।
दूसरा मार्ग परामनोविज्ञान का है उसके अंतर्गत अद्भुत घटनाओं की प्रामाणिकता एवं सम्भावना ही जाँची जाती है। यह सब किस साधना या प्रक्रिया के आधार पर सम्भव हुआ इस ओर अधिक ऊहापोह नहीं हुआ है। परामनोविज्ञान इस अन्तर के संबंध में मौन है। उसे विलक्षणताओं से संबंध माना जाता है। इन्द्रिय जन्य सामान्य क्रिया-कलाप का व्यतिक्रम करके जो अतीन्द्रिय क्षमताएँ यदा-कदा—जहाँ-तहाँ दिख पड़ती हैं, उन्हीं के संबंध में यह टोह ली जाती है कि वह घटना क्रम वास्तविक हैं या अवास्तविक।
अवास्तविक अर्थात् इन्द्रजालिक। जादूगरी, हाथफेरी भ्रम जंजाल, कइयों द्वारा मिल-जुलकर रचा गया षड्यन्त्र। इस आधार पर भी ऐसे घटनाक्रम गढ़े जा सकते हैं जो लोगों को दैवी चमत्कार जैसे प्रतीत हों, पर वस्तुतः उनके पीछे छद्म चातुर्य ही काम कर रहा है। परामनोविज्ञान का उद्देश्य है अतीन्द्रिय स्तर के दिख पड़ने वाले क्रिया−कलापों को वैज्ञानिकों, बुद्धिवादियों एवं छिद्रान्वेषियों के तत्वावधान में सत् असत् का निर्णय करना। अभी परामनोविज्ञान इतनी ही भूमिका निभा रहा है। आगे चलकर उसे यह देखना पड़ेगा कि यदि वस्तुस्थिति के बारे में निश्चिन्तता हो जाय तो फिर अगले कदम में यह देखा जाय कि ऐसे अद्भुत घटनाक्रम क्योंकर घटित होते हैं और उनकी पृष्ठभूमि में विज्ञान के कौन से नियम काम करते हैं।
भौतिक विज्ञान के अंतर्गत अभी तक जो नियम और विधान हस्तगत हुए हैं, उनकी प्रामाणिकता परखली गई है, पर यह नहीं समझा जाना चाहिए कि जो जान लिया गया है वह पूर्ण या पर्याप्त है। अभी प्रकृति के रहस्यों को और अधिक खोजा जाना और उनके पीछे काम करने वाले विषयों का बहुत कुछ रहस्योद्घाटन होना बाकी है। प्रयोग परीक्षण के उपरान्त ही उनकी यथार्थता विज्ञान की कोई सुनिश्चित धारा मानी जा सकेगी। अध्यात्म के प्रयोग गुरुगम्य हैं। उन्हें वैज्ञानिक प्रयोग परीक्षणों के लिए इस प्रकार प्रस्तुत नहीं किया गया है कि अविश्वासियों को विश्वास हो सके। किन्तु परामनोविज्ञान ने अपना कार्यक्षेत्र दृश्य को प्रामाणिक तक सीमित भले ही रखा हो पर वे उसकी गहराई में प्रवेश करते हैं और देखते हैं कि इस कथन के पीछे कोई छद्म तो काम नहीं कर रहा है।
अतीन्द्रिय क्षमताओं के अस्तित्व की चर्चा चलाते हुए और उनके प्रमाण संकलित करते हुए लंबा समय हो गया। दूर दर्शन, दूर कथन, भविष्य की जानकारी, विगत का घटनाक्रम आदि की असंख्यों घटनाएँ घटित होती देखी गई हैं। जिन व्यक्तियों में ये विशेषताएँ थीं उनने योगी या योगाभ्यासी होने का दावा नहीं किया, इसलिए निष्कर्ष यह निकाला गया है कि मस्तिष्क के जो पक्ष व्यवहार में नहीं आते, वे यदा-कदा अनायास ही सजग हो उठते हैं और अपनी विशेष क्षमताओं का परिचय देने लगते हैं। स्वप्नों की सार्थकता, संभावनाओं का पूर्वाभास सुदूर क्षेत्र में घटित हुए घटनाक्रमों का विवरण जान पाना अचेतन मस्तिष्क की किन्हीं रहस्यमयी क्षमताओं का जागरण माना गया है। ऐसा किन्हीं पशु-पक्षियों में भी होता है। वर्षा, तूफान, भूकम्प आदि आने की पूर्व सूचनाएँ कितने ही पशु-पक्षियों को सही रूप में मिल जाती है और वे उसी सुनिश्चित सूचना के आधार पर अपना बचाव करने, स्थान बदलने लग जाते हैं। कुत्तों की घ्राणशक्ति का उपयोग करने के लिए शिकारी लोग उन्हें पालते थे और अब जासूसी खोजबीनों के लिए उन्हें पुलिस द्वारा प्रयुक्त किया जाता है। गर्भाधान की उत्तेजना भी गन्ध विशेष के माध्यम से मिलती थी। फूल से मधु बना लेने का एक विशेष तन्त्र मधु मक्खियों के भीतर पाया जाता है। चींटी दीमक आदि आकार में छोटी और किसी शिक्षा से रहित होते हुए भी अपने समुदाय के ऐसे नियमोपनियम बनाती है मानो वे किसी सुसभ्य समुदाय की विधिवत् ट्रेनिंग लिये हों। ऐसी ही अनेक विलक्षणताएँ कितने ही पशु-पक्षियों एवं कीड़े-मकोड़ों के संबंध में पाई गई हैं, यह सब आश्चर्यजनक होते हुए भी विज्ञान ने इतना ही माना है कि मस्तिष्क के किन्हीं अनभ्यस्त प्रसुप्त कोष्ठकों का जागरण है, जो न्यूनाधिक मात्रा में सभी में होता है। जिनके अंकुर बड़े हो जाते हैं वे प्रख्यात हो जाते हैं और चमत्कारी समझे जाने लगते हैं। कारण का विवेचन करते हुए इतना ही कहा गया है कि घटनाएँ अथवा वस्तुएँ इस निखिल ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म तरंगों के रूप में अपनी हलचलें चलाती रहती हैं। उनके तारतम्य का जो सही अनुमान लग सकने योग्य मस्तिष्कीय क्षमता के अभ्यस्त हो जाते हैं वे अपने में ऐसी विशेषताओं का परिचय देने लगते हैं। यह क्षमताएँ अमुक अभ्यास करने से ही जागृत हों, यह आवश्यक नहीं। किन्हीं में वे अनायास ही जागृत हो जाती हैं और लोगों को अचम्भे में डालती हैं।
रूस की एक महिला नेल्या मिखाइलोवा आँखों में पट्टी बाँधकर अँगुलियों से छूकर पुस्तकें पढ़ देती है और जहाँ−तहाँ रंगों की भिन्नता का प्रयोग हुआ है उसका विवरण बता देती है। इसका परीक्षण वैज्ञानिकों की कितनी ही परीक्षा गोष्ठियों के सम्मुख हो चुका है। इंग्लैंड में एक व्यक्ति आँख का काम नाक से लेता था और गन्ध के आधार पर दृश्य को पहचानने की परीक्षा में सफल हुआ था। आगे पीछे की घटनाओं को बताने में कितनों ने ही असाधारण ख्याति प्राप्त की है। कुछ व्यक्ति धरती के भीतर पाये जाने वाले जल या धातु भण्डार (डाउजिंग) का पता बताने में सफल हुए हैं।
योगाभ्यास के नाम पर कई जादूगर विषपान करते, हृदय की धड़कन रोकते, समाधि लगाते देखे गये हैं। इन्हें भी मनोबल का चमत्कार कहा जाता है। सरकस के कलाकार शरीर को साधने और उसका बैलेन्स सम्भाले रहने की कितनी ही अद्भुत क्रियाओं का अभ्यास कर लेते हैं इस आधार पर वे दर्शकों को आकर्षित करते और स्वयं अच्छी आजीविका कमाते हैं। वे इस कौशल के पीछे मनोबल और नियमित अभ्यास के आधार पर उपलब्ध हुई प्रवीणता को ही कारण बताते हैं। इसमें वे किसी योगाभ्यास का दावा नहीं करते और न उनका रहन-सहन, खान-पान ही ऐसा होता है जिन्हें योगी लोग संयम साधना के रूप में अनिवार्यतः अपनाया करते हैं। उन्हें किसी भी तरह तपस्वी योगी नहीं कहा जा सकता।
स्थूल-दृश्य-शरीर के विशेषतया मस्तिष्क के, कितने ही झटक ऐसे हैं जिन्हें यदि साधारण क्रियाकलाप की सीमा से आगे बढ़कर अभ्यास क्षेत्र में विशेष पराक्रम करने का अवसर मिले तो वे अपनी प्रतिभा का ऐसा विशिष्ट परिचय देने लगते हैं कि अजनबी के लिए उसमें आश्चर्य ही आश्चर्य दृष्टिगोचर होने लगे। कुछ समय पूर्व जब नट विद्या का प्रचलन था तो ऐसे लोग गाँव-गाँव में अपने तमाशे दिखाते थे जिसमें जान जोखिम का खतरा प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता था। अब भी वे कलाएँ प्रख्यात जादूगरों और किन्हीं-किन्हीं सरकस वालों की कृतियों में दृष्टिगोचर होती हैं। यों इनमें इन्द्रजालिक चालाकी का भी सम्मिश्रण होता है पर सर्वथा यह नहीं कहा जा सकता कि इस निमित्त उन्होंने शारीरिक या मानसिक अभ्यास विशेष रूप से नहीं किये हैं। खेल प्रतियोगिताओं में समर्थ शरीर वाले भी हर खेल में विजयी नहीं हो सकते वे उन्हीं में कमाल दिखाते हैं जिनमें पहले से अभ्यास कर रहे होते हैं और प्रवीणता हस्तगत कर लेते हैं। शरीर संरचना में नियोजित हर घटक की स्थिति ऐसी है कि वह सामान्यतया उतनी ही प्रवीणता प्राप्त करता है जितना कि उसे आये दिन काम करना पड़ता है। यदि इससे भिन्न प्रकार का काम करना पड़े तो उनकी स्थिति साधारण या अनगढ़ होते हुए भी वे अपने विषय में पारंगत तो हो ही जाते हैं। वन प्रदेश में रहने वाले आदिवासी लोग तीर-कमान चलाने में इतने प्रवीण होते हैं कि शेरों और सुअरों का शिकार कर लेते हैं। नारियल, खजूर, सुपाड़ी आदि तोड़ने वाले उन ऊँचे और सीधे वृक्षों पर तेजी से चढ़ते उतरते रहते हैं। यही बात आहार-विहार के संबंध में भी है। जिसके कारण साधारण लोगों को तत्काल जुकाम होता या लू मारती है। उसी वातावरण में कुछ लोग पतली लँगोटी लगाते, जीवन भर भ्रमण करते रहते और किसी रोग के शिकार नहीं होते। यह शरीरगत माँसपेशियों की स्थिति का विवेचन है, फिर मस्तिष्क का तो कहना ही क्या, वर्तमान स्थिति में हम मस्तिष्कीय क्षमता का 7 प्रतिशत भाग काम में लेते हैं। 93 प्रतिशत ऐसा हैं जिसे विस्मृत, अनभ्यस्त प्रसुप्त या उपेक्षित ही कह सकते हैं। यदि इस प्रसुप्ति को जागृति में बदला जा सके तो यह सामान्य सूक्ष्म शरीर ही ऐसे करतब दिखा सकता है जैसा कि कीर्तिमान स्थापित करने वालों का पराक्रम देखकर हमें चमत्कृत रह जाना पड़ता है।