उठती आयु के आवेशों का शमन

July 1985

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किशोरावस्था से लेकर परिपक्व यौवन काल आने तक जहाँ माँस पेशियों और ऊतकों में दृढ़ता आती है वहाँ एक अनुपयुक्तता यह भी बढ़ती पाई गई है कि जल्दबाजी, नाराजी, उत्तेजना, अविश्वास, आशंका जैसे दुर्गुण उपज खड़े होते हैं।

यौवन के उभार में कुछ लज्जाजनक अवयवों में उभार आता है और उन्हें सतर्कता पूर्वक ढकने की आवश्यकता होती है। छोटे बच्चे कभी−कभी नंग धड़ंग भी फिरते रहते हैं। जान-बूझ कर न सही अनजाने में कपड़े उतर जाँय तो न बच्चे बहुत शर्माते हैं और न बड़े ही उसे अनुपयुक्तता कहकर नाराज होते हैं। किन्तु यह छूट आयु के बढ़ने के साथ-साथ समाप्त होने लगती है। सोलह अठारह वर्ष के लड़के लड़की कपड़ों संबंधी अदब का पग-पग पर ध्यान रखते हैं और ऐसी नग्नता किसी भी कोने में नहीं प्रकट होने देते तो उन्हें अशिष्ट या लापरवाह सिद्ध करे। ठीक इसी तरह स्वाभावजन्य आवेशों पर नियन्त्रण करने की आवश्यकता है।

इसी प्रसंग में यह भी ध्यान रखने योग्य है कि आतुरता, जिसे एक हद तक उच्छृंखलता भी कहा जा सकता है हमारे स्वभाव, वार्त्तालाप एवं आचरण में परिलक्षित न होने पाये। यह हो सकता है कि इन दिनों यह उत्तेजना स्वभावतः उठे। जिस तिस से झगड़ पड़ने की या अपनी बात कटु शब्दों में कह बैठने की आतुरता छलके। किन्तु मानवी सभ्यता का ध्यान रखते हुए उठती आयु के प्रारम्भिक दिनों में ही हमें आत्म नियन्त्रण का अभ्यास करना चाहिए और उसे तब तक जारी रखना चाहिए जब तक वयस्कता की उत्तरदायित्व सम्भालने वाली आयु न आ पहुँचे।

हिन्दुस्तान में एक कहावत में ‘गधा पच्चीसी’ का बार−बार उल्लेख होता रहता है। जिसका अर्थ होता है कि जब तक पच्चीस वर्ष की आयु पूरी नहीं हो जाती तब तक गधेपन जैसी बेवकूफी का खुमार चढ़ा रहता है। जो करना है तुरन्त कर बैठे, जो कहना है, अविलम्ब कह बैठे, भीतर किसी प्रसंग में नाराजी हुई है तो उसे दबाने की अपेक्षा तत्काल उगल बैठे। यह स्वभावतः चढ़ते खून का लक्षण है। पर इससे क्या प्रकृति के अनुरूप हर बात में चलें यह आवश्यक नहीं। दाढ़ी मूँछ के बालों की सफाई न की जाय तो उनसे चेहरा कुरूप हो जाता है। इसी प्रकार दूसरी जगह बढ़े हुए बालों की स्वच्छता पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार उठती आयु के साथ उफनने वाले आवेशों पर नियन्त्रण करने की आवश्यकता है अन्यथा वे तत्काल तो संकट विग्रह उत्पन्न करेंगे ही आदत पड़ जाने पर बड़ी आयु में भी नीचा दिखायेंगे और व्यक्तित्व को तिरस्कृत स्तर का बना देंगे।

जिनमें उग्रता की मात्रा अनुपयुक्त स्तर तक पाई गई उनमें से प्रति हजार 50 को कई प्रकार के रोगों ने घेरा। उन्हें डाक्टरों की शरण लेनी पड़ी और अशिष्टता के लिए जिस-तिस से क्षमा माँगनी पड़ी अथवा द्वेष प्रतिशोध के शिकार हुए। किन्तु जिन्होंने नम्रता का अभ्यास कर लिया था जो आवेशों पर नियन्त्रण की कला सीख गये थे उन्हें हजार पीछे 2 बार ही चिकित्सा करानी पड़ी और मित्र सहयोगियों की संख्या बढ़ी-चढ़ी रहने से कई दिशाओं में प्रगति कर सके, सफलताओं के उत्साहवर्धक सुयोग प्राप्त कर सके। उठती आयु में जिस प्रकार अच्छे कपड़े पहनने की- खेल में आगे रहने की इच्छा होती है उसी प्रकार यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि इस आयु में आवेशों का बाहुल्य रहने के संकटों को स्मरण में रखे और उनसे निपटने के लिए आत्मसंयम का, शिष्टाचार के निर्वाह का, विशेष रूप से समाधान करने के लिए प्रयत्नशील रहें।


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