भौतिक प्रगति के सुनिश्चित आधार

July 1985

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वृक्षों की ऊँचाई, चौड़ाई और जिन्दगी इस बात पर निर्भर है कि उसकी जड़ें, कितने मजबूत एवं गहरी हैं। उस पर लगने वाले फल-फूल आसमान से उतर कर नहीं लद पड़ते वरन् उस रस संचय पर अवलम्बित रहते हैं जो जड़ों द्वारा भूमि से खींचा जाता है। दृश्यमान वैभव अदृश्य जड़ों की सक्षमता पर निर्भर रहता है।

मनुष्य को भी एक वृक्ष माना जाय तो गुण, कर्म;, स्वभाव के अदृश्य समुच्चय को वे जड़ें कहा जा सकता है जो बाहरी वैभव के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं। इसलिए पत्तों को सींचने की अपेक्षा जड़ों को उपयुक्त खाद पानी मिलता रहे इसका प्रबन्ध किया जाना चाहिए।

एक जैसी परिस्थितियों में उत्पन्न दो व्यक्तियों का भविष्य एक जैसा नहीं होता। मनःस्थिति के अनुरूप वे अपनी−अपनी स्वतन्त्र दिशाएं पकड़ते हैं। साधनों का उपयोग एक उत्कर्ष के लिए करता है दूसरा अपकार्य के लिए, इसलिए उनका भविष्य एक−दूसरे से सर्वथा भिन्न होता है। एक सम्मान और वैभव का धनी होता है। दूसरा पूर्वजों की सम्पदा की होली जला कर बदले में दरिद्रता और भर्त्सना का भागी बनता है। इसमें यों परिस्थितियों की, व्यक्तियों की, भाग्य रेखाओं की सराहना या शिकायत की जाती है। पर इससे आत्म वंचना के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। वस्तुतः मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है और यह कार्य वह अपने गुण, कर्म, स्वभाव जैसे उपकरणों और कौशलों के सहारे सम्पन्न करता है।

लोग अक्सर बाहरी परिस्थितियों, साधनों और अनुग्रहों की ओर तकते हैं और सोचते हैं, इन्हीं की अनुकूलता पर प्रगति के अवसर निर्भर हैं। पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। अदृश्य गुण संपदा का महत्व है। उन्हीं का चुम्बकत्व अपने अनुरूप, साधन और सहयोग घसीट लाता है। गड्ढा होने पर उसके समीप जाने वाले गिरेंगे ही और पर्वत की चोटी पर निगाह रखने वालों का उत्साह ऊँचा चढ़ने के लिए ही प्रयास करता है। चोटी और खाई की प्रशंसा निन्दा करना व्यर्थ है। वे तो सृष्टि संरचना के अंग भर हैं। उनमें किसी को खींचने और उछालने की सामर्थ्य नहीं है। यह कार्य तो अपना मानसिक स्तर ही करता है।

भौतिक प्रगति अभीष्ट तो हर किसी को है पर वह हस्तगत उन्हीं को होती है जो उसे उपलब्ध करने के लिए समुचित मूल्य चुकाने के लिए तत्पर रहते और तैयारी करते हैं। यह तैयारी मात्र योजना बनाने और साधन एकत्रित करने तक सीमित नहीं है। वरन् उसके लिए वह करना पड़ता है जो अत्यधिक महत्वपूर्ण है भले ही उसकी आवश्यकता और महत्ता कोई समझ पाये या नहीं। तात्पर्य उन सद्गुणों की संपदा से है जो अपने अनुरूप चुपके−चुपके आश्चर्यजनक ताना−बाना बुनती रहती हैं। वृक्ष का वैभव उसकी जड़ों पर निर्भर रहता है, इस उपमा को यहाँ पूरी तरह लागू किया जा सकता है।

प्रगति प्रयोजन के लिए दृश्यमान गुणों में सर्व प्रमुख उठने से लेकर सीने तक के समय का उद्देश्य पूर्ण नियोजन है। यह कार्य रात को सोते समय अगले दिन के लिए अथवा प्रातःकाल उठते ही अपना कार्यक्रम करने के लिए निर्धारित करना चाहिए। किसी आकस्मिक कार्य के आ खड़े होने पर ही यदा-कदा अपवाद स्वरूप ही उसमें परिवर्तन होने की बात ही क्षम्य हो सकती है। अन्यथा मन मर्जी के या दूसरों के सुझाये काम अस्त-व्यस्त रूप में करते रहना और उन्हें आधे−अधूरे छोड़कर दूसरा कुछ करने लगना बाल-विनोद ही कहा जा सकता है। बन्दर प्रायः ऐसी ही बेसिलसिले की उछल−कूद करते रहते हैं। जिन्हें किसी लक्ष्य तक पहुँचना है उन्हें इस दुर्गुण से अपने आपको बचाने के लिए पूरा−पूरा प्रयत्न करना चाहिए।

निर्धारित कार्यक्रम में पूरी तत्परता और तन्मयता से जुटना चाहिए। शारीरिक श्रम में उत्साह और साथ में मनोयोग की गहराई का नियोजन यही है कि वह रहस्य जो काम में अब उच्चाटन उत्पन्न नहीं होने देता, वरन् उसे बढ़िया किस्म का खेल समझकर पूरा−पूरा रस लेता है। उचित समय में, उचित रीति से, उचित मात्रा में काम कर सकना तभी बन पड़ता है जब उसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बिना लिया जाय। इस प्रवृत्ति में कमी रहेगी तो अधूरे मन और अधूरे श्रम से किये हुए काम फूहड़ों जैसे आधे−अधूरे काने−कुबड़े रहेंगे। उन पर लोग तो हँसेंगे ही स्वयं भी कम असन्तोष न होगा। सफल जीवन का प्रथम गुण इसीलिए क्रमबद्ध कार्य पद्धति अपनाना और उनमें पूरी तरह निमग्न हो जाना बताया गया है। प्रत्येक सफल व्यक्ति को यह प्रक्रिया अनिवार्यतः अपनानी पड़ी है।

दूसरा गुण है। साहस और उत्साह बनाये रहना। इनके अभाव में भीतर का शक्ति स्रोत सूखता है और बाहर अनुत्साह, आलस्य, प्रमाद और भटकाव घेरता है। आत्मविश्वास ऊँचे दर्जे का गुण है। सफल होकर रहने की उमंगें मनुष्य को वस्तुतः इस योग्य बनाती हैं और वह कल नहीं परसों लक्ष्य तक पहुँचाकर ही रहती हैं। जो बबूले की तरह उछलते और झाग की तरह बैठते हैं। उनका मन चंचल अस्थिर और अवसाद ग्रस्त देखा जाता है। अनेक सुयोगों के रहते यह एक ही दुर्गुण ऐसा है जो अभीष्ट की पूर्ति में हजार व्यवधान खड़े कर देता है।

आत्मविश्वास की, दृढ़ निश्चय की, प्रामाणिक चरित्र की, बहिरंग पहचान एक ही है। होठों पर मन्द मुसकान और आँखों में आशा की चमक है। सफल जीवन जीने वाले कभी भी निराश, उदास, गम्भीर, विचार मग्न असमञ्जस ग्रस्त नहीं देखे गये। इन व्यथाओं को अपनाने वाला बात-बात में आवेशग्रस्त होने लगता है। यह व्यक्तित्व की कुरूपता है जो कायिक सुन्दरता और परिधानों की शोभा−सज्जा को धूलि में मिला देती है और किसी के संपर्क में आने, मन की बात पूछने या सहयोग करने की हिम्मत नहीं पड़ती। इसलिए आवश्यक है कि हर किसी को अपनी वरिष्ठता का विश्वास दिलाने वाली होठों की मुस्कान और आँखों में आशा की चमक उत्पन्न करने का प्रयत्न करे। यदि यह अब तक अभ्यास में नहीं आया है तो उसे दर्पण की सहायता से वैसा अभिनय करने की साधना करनी चाहिए। कोई भी देख सकता है कि उदासी के रहते चेहरा कितना कुरूप दिखता है और अक्षमता का कितना विज्ञापन करता है। इसके विपरीत खिले फूल सा चेहरा कितना सुन्दर लगता है और कितनी तितलियाँ, मधु-मक्खियों को अपनी आश्रय पाने के लिए आमन्त्रित करता है।

एकाँगी उत्साह प्रायः ऐसी भूलें कराता है जिनके कारण अगले ही दिनों हौसला टूट जाय। हमें अपने कार्य के हर पक्ष पर विचार करना चाहिए। सम्भावना पर भी और व्यवधान पर भी। आशा रखें पर कठिनाइयों से निपटने की भी योजना बनाकर रखें। आवश्यक नहीं कि अपनी कल्पना के अनुरूप ही सब कुछ घटित होता चला जाय, या जिन व्यक्तियों से जो आशा रखी है वह पूरी होती ही चली जाय। आवश्यकता नहीं कि परिस्थितियाँ अनुकूल ही बनी रहें। इसलिए सतर्कता रखना और तथ्यों के दोनों पहलू समझना आवश्यक है। समझदारी बढ़ाने का यही तरीका है और सफलता तक पहुँचने के लिए सामयिक हेर-फेरों की सूझबूझ रखकर चढ़ पाना ही सम्भव होता है। अन्यथा भावुक व्यक्ति सरलतापूर्वक ठगा जा सकता है और अपना धैर्य गंवाँ बैठ सकता है।

स्मरण रखने योग्य बात यह है कि यह समूचा मानव समाज एक−दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यहाँ कोई भी मात्र एकाकी पुरुषार्थ के सहारे नहीं बढ़ सका है। हर छोटे−बड़े कामों में दूसरों के स्नेह सहारे की आवश्यकता पड़ती है। इसे अर्जित करने का तरीका आदान−प्रदान है। हम देते हैं और पाते हैं। शुरुआत अपनी ओर से होनी चाहिए। इस प्रतीक्षा में नहीं बैठे रहना चाहिए कि हम किसी के लिए कुछ न करें और लोग हमारे ऊपर अकारण ही स्नेह सहयोग बरसाते रहें। इसके लिए मधुर वचन बोलने का, व्यवहार के शिष्टाचार का निर्वाह तो आवश्यक ही है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि सम्मान दें और सहयोग करें। इसके आवश्यक नहीं कि किसी पर थोपी ही, उड़ेली ही जाय। जब मिलना हो छुटपुट कार्यों में हाथ बँटाना, खुशी और रंज में सम्मिलित होना और अपने योग्य सेवा की बात पूछना। यह भी सहयोग का एक बड़ा तरीका है। पर छोटा वह है जिसमें कोई बड़ा खर्च नहीं करना पड़ता और बहुत सहयोग नहीं देना पड़ता पर दूसरे के हिस्से के काम में अपना हाथ लगा देना, इतने से भी काम चल जाता है, पर कदाचित किसी को आकस्मिक विपत्तियों में फँस जाना पड़े तो उसकी यथासम्भव सहायता करना ऐसा तरीका है जिससे कितनों को अपना बनाया जा सकता है और उनके योगदान से समयानुसार अपने प्रगति कार्यों में आयाचित सहयोग प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए अपनी आवश्यकता का संकेत कर देने भर से उन्हें प्रत्युपकार की बात स्मरण हो आती है। जो मित्र बनाना, उपेक्षित रहना और सहयोग अर्जित करना यह तीनों ही स्थितियाँ अपनी उदारता, नम्रता और व्यवहार कुशलता पर निर्भर हैं। इस दिशा में प्रयत्नरत रहने का स्वभाव ही बना लेना अच्छा है।

सम्मान, सद्भाव प्राप्त करने की इच्छा तो सभी की रहती है और इसके लिए अपनी विशेषताओं का ढिंढोरा पीटने के लिए लोग प्रयत्न भी करते रहते हैं। पर यह अस्थिर और उथला तरीका है। ठोस और वास्तविक तरीका है- अपनी प्रामाणिकता की छाप दूसरों के मन पर बिठा देना। यह प्रपंचों का विषय नहीं, वरन् सीधा वास्तविकता से संबंधित है। यह एक दिन में नहीं, लंबे समय तक उच्च चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाने से ही सम्भव है। लोक प्रतिभा के आधार पर जितने प्रभावित होते हैं उसकी तुलना में मनुष्य की ईमानदारी सज्जनता, शालीनता के प्रसंगों का यथार्थवादी परिचय जानना चाहते हैं और उसे आसानी से कर भी लेते हैं। हमारी भीतरी और बाहरी दुश्चरित्रता को पैरों तले की जमीन, ऊपर का आसमान देखता है और हवा के साथ उस वास्तविकता को समूचे वातावरण में बिखेर देता है फलतः वह विश्वास के रूप में न सही आशंका के रूप में हर किसी के मन में जा बैठता है। अप्रामाणिकता पर कोई विश्वास नहीं करता और यह सन्देह हर किसी को बना रहता है कि ऐसी ही कुटिलता धूर्तता से कोई कभी हमें भी हानि न पहुंचा बैठे। ऐसे लोग सीधे रास्ते प्रगति तो कर ही नहीं पाते। उलटे रास्ते यदि कर भी लें तो वह अधिक देर टिकती नहीं। विभूति को अर्जित करना जितना कठिन है उससे कहीं अधिक कठिन उन्हें सुरक्षित रख सकना है। संपदा हो या प्रतिभा उन्हें सुरक्षित रख सकना हर किसी के बलबूते की बात नहीं है इसके लिए चरित्रवान होना नितांत आवश्यक है।

सद्गुणों में सुव्यवस्था का अत्यधिक महत्व है। व्यवसाय की, सार्वजनिक क्षेत्र की, परिवार की सुव्यवस्था तथा साथियों को सही रखना तथा उपयोगी बनाना सम्भव होता है। संसार में जितने महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं उनमें प्रत्यक्षतः सुयोग्य साथियों, श्रमिकों एवं साधनों का महत्व दृष्टिगोचर होता है, पर परोक्षतः उसे व्यवहार कुशलता का चमत्कार दिखाते देखा जाता है जिसे सुव्यवस्था कहा जाता है। हानि−लाभ के जितने भी प्रसंग हैं उसमें अस्त−व्यस्तता का अभिशाप अथवा सुव्यवस्था का वरदान ही काम करते दिखता है। जो शतरंज की तरह अपनी गोटें यथास्थान फिट करता रहता है। उसे सूत्र-संचालक कहते हैं। प्रबन्धक, मैनेजर आदि भी। यह योग्यता संसार की अन्यान्य योग्यताओं की तुलना में सैंकड़ों गुनी अधिक महत्वपूर्ण है। व्यवस्था बुद्धि को विकसित करने के लिए व्यक्तिगत क्षमताओं का सुनियोजन करना चाहिए इसके लिए परिवार की प्रयोगशाला अभ्यास के लिए सर्वसुलभ और सर्वोत्तम है। अच्छा हो परिवार को छोटा रखा जाय और जो सदस्य अपने से बँधे हैं उनमें से प्रत्येक के दृष्टिकोण और क्रिया-कलाप को, गुण, कर्म, स्वभाव को, दिशाधारा को सुनियोजित करते रहने में दत्त चित्त रहा जाय, जिससे अपनी प्रसन्नता बढ़े और उनको सही राह मिलने का सन्तोष रहे।

यह मौलिक और आरम्भिक गुणों की चर्चा है। इससे कम में मौलिक प्रगति का तारतम्य बनता नहीं। यदि ये ही सद्गुण उलट कर दुर्गुण बन जाय तो समझना चाहिए कि घड़े में अनेकों छेद हो गये और उसमें भरा हुआ आकाँक्षाओं एवं प्रयत्नों का सार जल बिखर गया। प्रगति शीलों को ऐसा अवसर नहीं ही आने देना चाहिए।


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