आस्था की परीक्षा

July 1985

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पारसी धर्म के प्रवर्त्तक महात्मा जरथुश्त्र का प्रभाव बढ़ रहा था। सुसंस्कारी बादशाह गुश्तास्प ने विवेक पूर्वक परख कर उन्हें गुरु मान लिया था। उनके बढ़ते प्रभाव से संकीर्ण सभासद जलने लगे। उन्होंने धूर्तता पूर्ण चला चली। जरथुश्त्र के चौकीदार को लालच देकर मिला लिया और उनके घर में मनुष्य की खोपड़ी तथा हड्डियाँ रखवा दीं। बादशाह से शिकायत की कि जरथुश्त्र संत नहीं छिपकर हीन जादू टौने करते हैं। प्रमाण के रूप में घर से वे वस्तुएँ बरामद करा दीं। चौकीदार ने भी बयान दे दिया कि जरथुश्त्र की गैर हाजिरी में कोई भी घर में नहीं गया है। इस प्रकार बादशाह भ्रम में पड़ गये और उन्होंने जरथुश्त्र को कैद खाने में डाल दिया। प्रभु की लीला मानकर संत उस समय चुप रहे।

कुछ ही दिनों बाद बादशाह के सबसे प्रिय घोड़े की चारों टाँगे पेट से चिपक कर रह गयीं। वह उठने से लाचार हो गया। हर प्रकार की दबा दारु बेकार होने लगी।

एक पहरेदार ने सूचना दी कि संत जरथुश्त्र ने कहा है कि बादशाह चाहें तो वे एक प्रयास कर सकते हैं। बादशाह ने उन्हें कैद खाने से बाहर बुलवाया और कहा आपके महान प्रभु का प्रभाव देखना चाहता हूँ।

संत बोले शहंशाह महाप्रभु का प्रभाव आँखों से नहीं आस्था से देखा जाता है। आस्था की दृष्टि आपकी ठीक होगी तो देख लेंगे। मैं आस्था की चार परीक्षाएँ लूँगा और उसी आधार पर उपचार करूंगा। बादशाह मान गये।

जरथुश्त्र ने पहला प्रश्न किया गुश्तास्प तुम विवेक पूर्वक मेरी परीक्षा कर चुके हो, मेरे जीवन और उसके उद्देश्य को भी परख समझ चुके हो। बोलो क्या तुम्हारे अंदर से यह विश्वास उठता है कि मैं ईश्वर के लिए समर्पित उसका संदेश वाहक हूँ?

बादशाह ने आत्म चिन्तन किया और अनुभव किया कि सचमुच ही उसने महान सन्त पर सामान्य लोगों के कहने से शक किया? वह बोला हे पवित्र आत्मा! मुझे क्षमा करें मैं सचमुच भ्रम में पड़ गया था। अब आपके और महाप्रभु के निर्देशों का ही पालन करूंगा।”

सन्त सन्तुष्ट हुए। उन्होंने प्रार्थना की हे प्रभु! बादशाह भ्रमित था, यह अपनी आस्थाएँ शुद्ध कर रहा है, इसे विकास का मौका दें।” इस प्रार्थना के साथ घोड़े का एक पैर मुक्त हो गया।

जरथुश्त्र ने दूसरा प्रश्न किया “तुम स्वयं जिस मार्ग पर बढ़ रहे हो क्या उस पर अपने बेटे को भी चलाना चाहोगे? बादशाह ने स्वीकार किया तथा युवा बेटे को संत के सामने हाजिर कर दिया। सन्त बोले “नौजवान तुम राज्य के सबसे वीर पुरुष हो। क्या यह प्रतिज्ञा ले सकते हो कि अपनी बहादुरी का उपयोग सदा न्याय के पक्ष में ही करोगे? शाहजादे ने यह प्रतिज्ञा की। संत ने पुनः प्रार्थना की हे परमपिता! बादशाह अपने उत्तराधिकारी को भी आपके आदर्शों के लिए समर्पित कर रहा है इसे शरण में आने दें।” इसके साथ घोड़े का दूसरा पैर भी मुक्त हो गया।

अब संत ने महारानी को तलब किया। उनसे पूछा “हे बुद्धिमान पति और वीर पुत्र वाली सौभाग्य शालिनी! क्या आपको भी प्रभु की राह स्वीकार है? अपने प्रभाव और साधनों का उपयोग उसके लिए करेंगी? रानी ने श्रद्धापूर्वक अनुगमन की शर्त स्वीकार की। जरथुश्त्र ने प्रार्थना की “प्रभु! बादशाह अपनी अर्धांगिनी को भी आपके चरणों में झुकाता है, इसे अपने तक पहुँचने का रास्ता दें और घोड़े का तीसरा पैर भी ठीक हो गया।

चौथी परीक्षा में उनके घर के चौकीदार को पुनः बुलाया गया। संत ने पूछा “बादशाह अपनी पत्नी और पुत्र सहित प्रभु मार्ग पर चलना चाहता है। क्या उसके अधिकारियों को उसका सहयोग नहीं करना चाहिए? चौकीदार रो पड़ा, बोला “चाहे जो सजा दे लें, मैं झूठ बोला था। खोपड़ी आदि सभासदों ने घर में रखवायी थी। बादशाह आग बबूला हो उठा। उसने भ्रष्ट सभासदों को देश निकाला दे दिया।

सन्त बोले- ‘‘बादशाह! यह आपके लिए प्रभु का शिक्षण है। थोड़ा तुम्हारी प्रगति क प्रतीक है। इसके पैर ठीक न होने से तुम यात्रा नहीं कर सकते थे। इसी प्रकार जब तक मनुष्य अपनी निजी आस्था, धर्मपत्नी, उत्तराधिकारी पुत्र और अपने अधिकार क्षेत्र, इन चारों को ईश्वर के अनुकूल नहीं बनाता, तब तक पूर्णता नहीं प्राप्त कर सकता।


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