सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म

July 1985

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भौतिकी के क्षेत्र में निरंतर अनुसंधान चल रहे हैं एवं नये-नये अनुसंधान सृष्टि में क्रियाशील मूल बलों तथा उनके एकीकरण संबन्धी प्रतिपादनों पर हो रहे हैं। इस क्षेत्र में एक कठिनाई यही आती है कि पदार्थ विज्ञान तक दृष्टि सीमित रखने वाले भौतिकी विद पराभौतिकी (पैराफिजीक्स) के प्रतिपादनों को गले उतारने को तैयार नहीं हैं। देखा यह गया है कि ब्रह्माण्ड संबंधी आत्मिकी की मान्यताओं को यदि आज के अनुसंधानों से समन्वित किया जाता है तो कई सिद्धान्त ऐसे जन्म लेते हैं जिन्हें बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वीकार किया जा सकता है। ब्रह्माण्ड के रहस्यों को उजागर करने वाली यह प्रतिपाद्य सामग्री गणित के सिद्धान्तों पर भी खरी उतरती है।

एक भारतीय अणु वैज्ञानिक परमहंस तिवारी के अनुसार यह भौतिक संसार जो हम अन्तरिक्ष में देखते हैं सब शून्य से बना है। डा. तिवारी का कहना है कि यह ब्रह्माण्ड खाली खाली नहीं है वरन् भार रहित, लचीलेपन से युक्त (इन्काम्प्रेसी बल), गतिशील तथा ऊर्जा से लबालब द्रव इसमें भरा हुआ है।

इस द्रव द्वारा ही किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में खाली स्थान में से पदार्थों की रचना हुई है। श्री तिवारी द्वारा लिखित पुस्तकों “स्पेसवोर्टेक्स प्योरी” तथा “ओरिजिन आफ इलेक्ट्रान्स फ्राम एम्टी स्पेस” में इसका विस्तृत वर्णन है।

श्री तिवारी ने गणित के माध्यम से सिद्ध करके बताया कि गतिशील द्रव जब प्रकाश की गति से चलता है तो छोटे−छोटे छिद्र “द्रव में” पैदा हो जाते हैं। यही छिद्र (परशुन्य) जो वास्तव में खाली हैं और 1।3000,00,000000 मी.मी. व्यास के हैं।

श्री तिवारी के अनुसार मूल बल (बेसिक फोर्स) की उत्पत्ति घूमते हुए ब्रह्मांडीय द्रव से हुई है। हमें ज्ञात गुरुत्वाकर्षण विद्युत चुम्बकीय तथा नाभिकीय बल इस “बेसिक फोर्स” के ही कारण हैं। भौतिकी की सभी मूल इक्वेशन्स “वोरटेक्स थ्योरी” के अनुसार प्रतिपादित की जा सकती हैं। जिसमें आइन्स्टीन की “थ्योरी आफ रिलेटिविटी” भी शामिल है। एक और नया तथ्य ब्रह्माण्ड की इस शोध से उभर कर आया है। अब तक प्रकाश की गति को ही सर्वोपरि गति माना जाता रहा है। आइन्स्टीन कहते थे, इससे तीव्रगति नहीं हो सकती। पर अब ‘कर्क’ निहारिका की गतिविधियों का विश्लेषण करते हुए इस गतिशीलता का नया कीर्तिमान सामने आया है। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के डा. एल. एल. और डा. ज्याफे एनडीन ने इस निहारिका के विद्युतीय चुम्बकीय क्षेत्र की चल रही गतिशीलता को प्रति सेकेंड 5, 95, 200 मील नापा है जो प्रकाश गति की तुलना में लगभग चार गुना अधिक है। इस निहारिका के मध्य एक छोटा सूर्य ऐसा पाया गया है जिसका तापमान अपने सूर्य से 100 गुना अधिक है। वह अपनी धुरी पर प्रति सेकेंड 33 बार परिक्रमा कर लेता है, यह भ्रमण गति भी अब तक की कल्पनाओं से बहुत आगे है।

कार्ल साँगा जैसे कुछ साइन्स फिक्शन लिखने वाले ब्रह्माण्ड वैज्ञानिकों का विचार है कि अब शीघ्र ही वह दिन निकट आता चला आ रहा है, जब अपनी आकाश गंगा के साथ जुड़े हुए ग्रह उससे छिटक कर दूर चले जायेंगे और अनन्त अन्तरिक्ष में स्वतंत्र रूप से विचरण करने लगेंगे। इसका प्रभाव सौर परिवार पर ही नहीं; ग्रहों के साथ भ्रमण करने वाले उपग्रहों पर भी पड़ेगा और एक विश्रृंखल अराजकता की ऐसी बाढ़ आयेगी कि सर्वत्र एकाकीपन दृष्टिगोचर होने लगेगा, पर अन्तर्ग्रहीय आदान की श्रृंखला टूट जाने से ऐसी स्थिति उत्पन्न होगी कि हर नक्षत्र विविधताओं के कारण बनी हुई विशेषताओं और सुन्दरताओं को खोकर अपने स्वरूप की तुच्छताओं से सीमाबद्ध अपंग और कुरूप स्तर को ही प्राप्त होगा। लेकिन यह मात्र कल्पना ही है। विधेयात्मक चिन्तन वाले वैज्ञानिकों का मत है कि अपने सौरमण्डल में नौ ग्रह हैं, इक्कीस उपग्रह हैं और जो गिन लिये गये ऐसे बीस हजार क्षुद्र ग्रह हैं। ये सभी अपनी-अपनी कक्षा मर्यादाओं में निरन्तर गतिशील रहने के कारण ही दीर्घ जीवन का आनन्द ले रहे हैं। यदि वे व्यतिक्रम पर उतारू हुए होते तो इनमें से एक भी जीवित न बचता। कब के वे परस्पर टकराकर चूर्ण विचूर्ण हो गये होते।

इन नौ ग्रहों में से जो ग्रह सूर्य के जितना समीप है उसकी परिक्रमा गति उतनी ही तीव्र है। बुध सबसे समीप होने के कारण प्रति सेकेंड 45 किलोमीटर की गति से चलता है और एक परिक्रमा 88 दिन में पूरी कर लेता है। पृथ्वी एक सेकेंड में 28.6 किलोमीटर की चाल से चलती हुई 365.25 दिन में परिक्रमा पूरी करती है। प्लूटो सबसे दूर है वह सिर्फ 4.3 कि0मी0 प्रति सेकेंड की चाल से चलता है और 248.43 वर्ष में एक चक्कर पूरा करता है।

वास्तविकता यह है कि अपना सौर मण्डल इतना व्यवस्थित, जीवित और गतिशील है कि वहाँ प्रत्येक ग्रह अपनी मर्यादाओं में चल रहा है और एक दूसरे के साथ अदृश्य बन्धनों में बँधा हुआ है। यदि यह प्रकृति इन ग्रहों की न होती तो वह न जाने कब का बिखर गया होता और टूट-फूट कर नष्ट हो गया होता।

सौर परिवार अति विशाल है। सूर्य की गरिमा अद्भुत है। उसका वजन सौर परिवार के समस्त ग्रहों उपग्रहों के सम्मिलित वजन से लगभग 750 गुना अधिक है। सौर-मण्डल केवल विशाल ग्रह और उपग्रहों का ही सुसम्पन्न परिवार नहीं है, उसमें छोटे और नगण्य समझे जाने वाले क्षुद्र ग्रहों का अस्तित्व भी अक्षुण्य है और उन्हें भी समान सम्मान एवं सुविधायें उपलब्ध हैं। यह क्षुद्र यह किस प्रकार बने? इस संबंध में वैज्ञानिकों का मत है कि दो समर्थ ग्रह परस्पर टकरा गये। टकराहट किसी को लाभान्वित नहीं होने देती। उसमें दोनों का ही विनाश होता है, विजेता का भी और उपविजेता का भी। यह विश्व सहयोग पर टिका हुआ है, संघर्ष पर नहीं, संघर्ष की उद्धत नीति अपना कर बड़े समझे जाने वाले भी क्षुद्रता से पतित होते हैं। यह क्षुद्र ग्रह यह बताते रहते हैं कि हम कभी महान थे पर संघर्ष के उद्धत आचरण ने हमें, दुर्गति के गर्त में पटक दिया।

मंगल और बृहस्पति के बीच करोड़ों मील खाली जगह में क्षुद्र ग्रहों की एक बहुत बड़ी सेना घूमती रहती है। सीरिस, पैलास, हाइडालगो, हर्मेस्ट, वेस्ट, ईराल आदि बड़े हैं। छोटों को मिलाकर इनकी संख्या 44 हजार आँकी गई है इनमें कुछ 427 मील व्यास तक के बड़े हैं और कुछ पचास मील से भी कम।

कहा जाता है कि कभी मंगल और बृहस्पति के बीच कई ग्रह आपस में टकरा गये हैं और उनका चूरा इन क्षुद्र ग्रहों के रूप में घूम रहा है। पर यह बात भी कुछ कम समझ में आती है क्योंकि इन सारे क्षुद्र ग्रहों को इकट्ठा कर लिया जाय तो भी वह मसाला चन्द्रमा से छोटा बैठेगा। दो ग्रहों के टूटने का इतना कम मलबा कैसे? कल्पना यह है कि सौर मण्डल बनते समय का बचा खुचा फालतू मसाला इस तरह बिखरा पड़ा है और घूम रहा है।

वैज्ञानिकों की एक कल्पना यह भी है कि प्रशान्त महासागर की जमीन किसी खण्ड प्रलय के कारण उखड़ पड़ी और उड़कर चाँद बन गई। जहाँ से वह मिट्टी उखड़ी- वहाँ का गड्ढा समुद्र बन गया। यह उखड़ी हुई जमीन आकाश में मंडराने लगी और धरती का चक्कर काटती हुई चन्द्रमा बन गई। इस प्रकार वह पृथ्वी का बेटा हुआ। इसी संदर्भ में यह भी कहा गया है कि जिन दिनों पृथ्वी की सतह लाल अंगारे की तरह तप रही थी, उन दिनों वह घूमती भी तेजी से थी, अपनी धुरी पर तब वह एक चक्कर तीन घंटे में ही लगा लेती थी और आये दिन गरम लावे के ज्वार-भाटे जैसे भूकम्प आते थे। उन्हीं दिनों कई विशालकाय उल्कायें धरती से टकराई और कई समुद्र तथा झील सरोवर बन गये।

स्थूल दृश्यमान इन पिण्डों की चर्चा न भी करें तो भी हमारे समक्ष एक पहेली तो अब भी रह जाती है। वह है इस पोले आकाश में अवस्थित प्लाज्मा की। गैलेक्सी की व्याख्या करते हुए एस्ट्रोफिजिसिस्ट कहते हैं कि दस खरब नक्षत्रों के समुच्चय से विनिर्मित इसके केन्द्रीय क्षेत्र में कणों का विघटन तेजी से होता है। तारों से अदृश्य कण निकलकर प्लाज्मा के रूप में पोले दिखने वाले आकाशीय क्षेत्र में फैल जाते हैं। इनके इस फैलाव से ही विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र तथा गुरुत्वाकर्षण आदि की क्रियायें सम्पन्न होती हैं। ऐसे फैले हुये प्लाज्मा को आयनीकृत प्लाज्मा (आइनोस्फेरिक प्लाज्मा) कहते हैं। आइनोस्फेरिक प्लाज्मा द्वारा कई तरह के क्षेत्र बनते हैं। आइनोस्फेरिक प्लाज्मा के रूप में फैले हुये ये कण ही विभिन्न विचारों प्रक्रियाओं, घटनाओं, दृश्यों वाले हलचल पूर्ण जगत का कारण हैं तथा उसे प्रभावित नियन्त्रित करते हैं। लाखों वर्षों से आवारागर्दी करते-करते ये कण भूल ही गये हैं कि वे कहाँ से आये हैं।

ये भूले हुए कण की कास्मिक कणों के रूप में पृथ्वी की ओर भी आते रहते हैं। इन कणों में उच्च गति वाले प्रोटान तथा कई तत्वों के परमाणु होते हैं, इनमें अत्यधिक ऊर्जा होती है। वायुमण्डल में इनके प्रवेश करते ही हलचल मच जाती है। इसी हलचल से एक्सटेन्डेड एयर शावर्स (फैले हुए वायु—शावरों) का निर्माण होता है। पृथ्वी की स्थूल हल-चल इस प्रकार इन अनेक स्वभाव तथा गुणों वाले कणों के कारण ही होती है।

1959 में डा. मेघनाद साहा ने अपनी खोजों से यह सिद्ध किया था कि सूर्य के प्लाज्मा में दृश्य जगत का हर तत्व विद्यमान है। उनका मत था कि लोगों को सूक्ष्म अस्तित्व में भी आत्मिक आनन्द की सभी सामग्री बताई जाती है तो लोग विश्वास नहीं करते उनकी स्थूल दृष्टि में दृश्य जगत और स्थूल पदार्थ ही प्रसन्नता के मूल हैं, पर हमारी अनुभूतियाँ जितनी सूक्ष्म और विशाल होती जाती हैं रस और आनन्द के तत्व भी उसी अनुपात में असीम तृप्ति वाले बनते चले जाते हैं। इस भारतीय वैज्ञानिक से सम्मति व्यक्त करते हुए विज्ञानी हाइसेन वर्ग ने प्रतिपादन किया था कि “अन्तरिक्ष में अमुक स्थिति पर पहुँचने पर परमाणु पदार्थ न रहकर अपदार्थ में, ऊर्जा में परिणत हो जाते हैं। पदार्थ सत्ता परिधि, काल और रूप में ढाँचे में बँधी है मनःसत्ता में अनुभूतियाँ, स्मृतियाँ, विचार और बिंब के रूप में व्याख्या होती है। इतना अन्तर रहते हुए भी उन दोनों के बीच अत्यधिक घनिष्ठता है यहाँ तक कि वे दोनों एक दूसरे को प्रभावित ही नहीं वरन् परस्पर रूपांतरित भी होते रहते हैं।

इस तथ्य को नोबेल पुरस्कार विजेता यूजोन विगनर ने और भी अधिक स्पष्ट किया है। वे कहते हैं कि “यह जान लेना ही पर्याप्त नहीं कि वस्तुओं की हलचलों से चेतना ही प्रभावित होती है। वस्तुस्थिति यह कि चेतना से पदार्थ भी प्रभावित होता है।”

गेटे ने कहा था ब्रह्माण्डीय चेतना का अस्तित्व सिद्ध कर सकने योग्य ठोस आधार मौजूद हैं। रुडोल्प स्टीनर ने अपने ग्रन्थ में गेटे के प्रतिपादन को और भी अच्छी तरह सिद्ध करने के लिये आधार प्रस्तुत किये हैं।

जीव विज्ञानी टामस हकसले ने ब्रह्माण्डीय चेतना के अस्तित्व और उसके कार्य क्षेत्र पर और भी अधिक प्रकाश डाला है वे उसे जीवाणुओं में अपने ढंग से और परमाणुओं में अपने ढंग से काम करती हुई बताते और भारतीय दर्शन की परा और अपरा प्रकृति को ब्रह्मपत्नी के रूप में प्रस्तुत करने वाली मान्यता के समीप ही जा पहुँचते हैं।


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