विघातक इरादे बदल भी सकते हैं।

July 1985

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पाल ब्रिटेन ने अपनी “गुप्त भारत की खोज” में जहाँ अनेकों योगियों की अद्भुत चमत्कारी घटनाओं का उल्लेख किया है वहाँ अध्यात्म विषय में अभिरुचि रखने वालों और खोजियों के मन्तव्यों का भी संकलन किया है। उनके अनुसार भारतीय वैज्ञानिक सी.वी. रमन के सम्मुख एक योगी को साइनाइड विषपान करने का उदाहरण सामने आया तो उनने इतना ही कहा कि यह विज्ञान के लिए एक चुनौती है। उसे तथ्य प्रमाणों एवं तर्कों द्वारा इनका खण्डन अथवा मण्डन करना चाहिए।

“लिविंग यूनीवर्स” के लेखक सर यंग हस्वैण्ड का कथन है कि जैसे जड़ ब्रह्माण्ड का ऊहापोह भौतिक विज्ञान द्वारा किया जाता है, उसके अन्तराल में एक चेतन ब्रह्माण्ड भी है जिसमें आत्मा की गतिविधियाँ और रीति-नीतियाँ काम करती हैं। इस संदर्भ में भारत अभी भी बहुत कुछ रहस्योद्घाटन करने की स्थिति में है। हिमालय की कन्दराओं में ऐसी आत्माएँ अवस्थित हैं जिन पर मानवी शरीर के साधारण नियम लागू नहीं होते।

अपने इसी ब्रह्माण्ड में एब्सोल्यूट वैक्युम (पूर्ण शून्य) की यत्र−तत्र परिस्थितियाँ हैं। वे स्वेच्छाचारी प्रतीत होती हैं। मनमर्जी से जहाँ−तहाँ परिभ्रमण करती हैं पर यह सम्भव है कि उन्हें आत्म−शक्ति द्वारा किसी स्थान विशेष पर घसीट कर लाया जा सके और उस क्षेत्र में चलने वाली समस्त गतिविधियों को ठप्प किया जा सके, भले ही वे कितनी ही शक्तिशाली क्यों न हों।

इन दिनों अणु बम, हाइड्रोजन बम, रसायन बम, नापाम, बम आदि की बहुत चर्चा होती है और इनकी विघातक शक्ति का भयावह वर्णन किया जाता है। यह हो सकता है कि जिस क्षेत्र में इनका उत्पादन एवं प्रयोग की योजना है उसे पूर्ण शून्य के प्रभाव में ले लिया जाय और इनका प्रयोग ही न हो सके। अन्तरिक्ष में एक इस प्रकार की “पूर्ण शून्य” की रचना हो सकती है जिसमें “लेसर” और मृत्यु किरणों तक को ठप्प किया जा सके। उनके सामने प्रक्षेपणास्त्रों और बमों की क्षमता तो खिलौने जैसी कही जा सकती है।

विनाश की शक्तियाँ अद्भुत हैं, वे अपने मारक कृत्यों और क्षमताओं का प्रदर्शन बहुधा करते रहते हैं। पर यह भी असम्भव नहीं है कि पूर्ण शून्य की क्षमता के सम्मुख वे अपने को असहाय एवं असमर्थ अनुभव करें और विघातक योजनाएँ उनके निर्माताओं के मस्तिष्क तक ही सीमित रहें। जो करना चाहती हैं, वे न कर सकें।

प्रकाश की गति सर्वोपरि मानी गई है। अब तक के गणित की पहुँच यहीं तक है कि एक सेकेंड में 1, 86,000 मील चल सकने वाला प्रकाश ही सर्वाधिक द्रुतगामी है। किन्तु इससे भी आगे गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में प्रवेश पा सकने पर प्रकाश की गति से भी अधिक गति हस्तगत हो सकती है।

“ब्लैक होल” जिन ग्रहों के—पदार्थ के संपर्क में आते हैं उसे इस प्रकार पराभूत कर लेते हैं कि उसे तनिक दूरी तक भी देखा न जा सके। किन्तु इन ब्लैक होलों के केन्द्र बिन्दु जहाँ होता है वहाँ इतनी गति होती है कि प्रकाश का समूचा परिकर ही उसमें अदृश्य हो सके। यह गति की ज्ञात चरम सीमा है। इसे प्रकाश गति से कही अधिक समर्थ माना गया है।

जिस प्रकार वर्षा के दिनों में पानी, ठण्डक के दिन में ओस और गर्मी के दिनों में धूल ऊपर से नीचे की ओर बरसती देखी जाती है। उसी प्रकार अनन्त अन्तरिक्ष में कितने ही तारक और प्रवाह अपनी धरती पर विभिन्न स्तर के प्रमाण एवं तरंग विकिरण बिखेरते रहते हैं। इनमें पृथ्वी की पाचन शक्ति जिन्हें उपयोगी एवं आवश्यक समझती है उन्हें ग्रहण करती एवं पचाती रहती है। जो अनुपयोगी होते हैं उन्हें अपने इर्द−गिर्द तनी छतरी से रोकती और जिधर−तिधर छितरा जाने देती है। फिर भी उस छतरी को बेधकर कुछ न कुछ मात्रा में वह विशिष्ट विद्युत प्रवाह नीचे आता रहता है।

छतरी तान लेने पर कड़ी धूप का एक अंश ऊपर रुक जाता है फिर भी उसे पार करके गर्मी का एक अंश नीचे उतर आता है और मनुष्य अनुभव करता है कि उसे गर्मी लग रही है। इसी प्रकार वर्षा के दिनों में छाता लगा होने पर पानी का एक अंश इधर−उधर बह जाता है फिर भी उसके बारीक छेदों में से रिसकर पानी हलकी फुहारों के रूप में नीचे आता रहता है और छाता लगाकर चलने पर भी कपड़े या शरीर का कुछ भाग नम हो जाता है। छाते का कपड़ा मोटा है या झीना इस बात पर छनकर नीचे आने वाली बात बहुत कुछ निर्भर करती है।

पृथ्वी से कुछ मील ऊँचाई पर विचित्र पदार्थों की विनिर्मित छतरियां तनी हैं जिन्हें आयनोस्फियर, ट्रोपोस्फियर, लीयोस्फियर, बायोस्फियर आदि नाम दिये गये हैं। यह कवच पृथ्वी से लेकर 4000 किलोमीटर तक चले गये हैं। इन्हें एक छलनी के बाद दूसरी छलनी कह सकते हैं। इनसे टकराते और छितराते हुए अन्तरिक्षीय विकिरण का अनुपयुक्त भाग इधर−इधर बिखर जाता है और ऊपर ही रुक जाता है और पृथ्वी अपनी काम चलाऊ स्थिति में बनी रहती है। यदा−कदा ऐसे अवसर भी आते रहते हैं कि अधिक सशक्त ऊपर से नीचे तक आ पहुँचता है और उससे वातावरण असाधारण रूप में प्रभावित होता है। ऐसे अवसर पृथ्वी के जन्म से लेकर अब तक अनेक बार आये हैं जिसमें अन्तरिक्षीय तरंग वर्षा की प्रबलता से पृथ्वी की परिस्थितियों में असाधारण उथल−पुथल होती रही है। हिम युग, जल प्रलय, अत्यधिक ऊष्मा, प्राण घातक वायु आदि के अभिवर्षण से ऋतुओं में भारी उलट−पुलट हुई है और अभ्यस्त वातावरण में अन्तर आने से जीवधारियों ने या तो अपनी प्रकृति बदली है या फिर उनमें से अधिकाँश समाप्त हो गये हैं। यही बात वनस्पतियों के संबंध में है। उनकी आकृति और प्रकृति में हेर−फेर हुआ है। प्राणधारी जल, वायु और वनस्पति जन्य आहार के आधार पर अपना जीवन धारण किये रहते हैं। इस आधार पर उनकी आदतें बदलती हैं और गुण स्वभाव में परिवर्तन होता है। यों ऐसे अवसर यदाकदा ही हजारों वर्षों बाद कारण विशेष में आते हैं अन्यथा एक बार का निर्धारित ढर्रा लंबे समय तक चलता रहता है थोड़े परिवर्तन को ध्रुव प्रदेशों की संरचना और कार्य पद्धति अपने ढंग से सन्तुलित कर लेती है। यह क्रम इस प्रकार चलता रहता है कि सर्व साधारण को उसका पता भी नहीं चल पाता और आने वाले आँधी तूफान अपने ढंग से उतर जाते हैं।

पृथ्वी के ऊपर चढ़े हुए छातों का यथा स्थिति बने रहना आवश्यक है। वह ऐसे ही हैं जैसे शरीर पर कपड़े या मकान पर छत का आच्छादन। यह आवरण फट जाय या झीना पड़ जाय तो ऋतु प्रभाव शरीर को प्रभावित करेगा और असाधारण होने पर स्वस्थता को लड़खड़ा देगा।

ब्रह्माण्ड में बरसने वाले तरंग प्रवाह को जितना पृथ्वी की साधारण संरचना रोक सकती है उतना ही सम्भाल कर पाती है यदि वह दबाव अत्यधिक मात्रा में हो जाय तो बेचारी पृथ्वी क्या, कोई भी सशक्त ग्रह पिण्ड भी उसकी चपेट में आ सकता है और उसका कचूमर निकल सकता है। तारकों का जन्म−मरण इसी आधार पर होता रहता है। स्वाभाविक मौत तो उनमें से बहुत कम की आती है। उनमें से अधिकाँश को ऐसे ही किसी अन्तरिक्षीय प्रवाह की चपेट में आकर दुर्घटनाग्रस्त होना पड़ता है।

आवश्यकता इस बात की है कि भौतिक विज्ञान के आधार पर विघातक शक्तियों पर अंकुश लगा सकने जैसी कोई विशिष्ट क्षमता विकसित हो और अनर्थ को रोक सकने के लिए ऐसे साधन जुटायें जो भयभीत मानवता को सान्त्वना दे सके और जो उपलब्ध सामर्थ्य के आधार पर मदोन्मत्त हो रहे हैं उन्हें नये ढंग से सोचने के लिए सहमत कर सके। आवश्यक नहीं कि जो आज का निश्चय है, वह कल भी उसी रूप में बना रहे। एकाँगी चिन्तन मनुष्य की दुराग्रही बनाता है पर जब विपरीत पक्ष को ध्यान में रखते हुए विचार करने का अवसर मिलता है तो वह अपनी राह बदल भी सकता है।

परा मनोविज्ञान के अंतर्गत मेण्टल ट्रान्स फार्मेशन की, ‘ब्रेन वाशिंग’ की एक सशक्त प्रक्रिया है जो मनुष्य को आज की अपेक्षा कल दूसरे ढंग से सोचने और अहंकारी उन्माद को दूरदर्शी विवेक अपना कर नये ढंग से सोचने के लिए सहमत कर सकती है।

यहाँ अणु आयुध सब कुछ हैं, अन्तरिक्ष बढ़िया किस्म का रण क्षेत्र है, दूसरे का विनाश करके हम सुरक्षित रह सकते हैं, यदि इस विचारधारा का कोई दूसरा विकल्प सूझ पड़े, अपनी भूल का आभास हो और साथ ही यह अनुभूति हो कि जिस आक्रामक योजना को सफल सुनिश्चित माना गया था वह व्यर्थ निरर्थक भी सिद्ध होने जा रही है तो कोई कारण नहीं कि आक्रमण की दिशा में उठते पैर और बढ़ते हाथ रुक न सकें।


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