आत्मसंयम की तीन दीवारें

July 1985

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बीमार हो जाने के उपरान्त चिकित्सा करने या कराने का प्रचलन है। पर होना यह चाहिए कि ऐसी नौबत ही न आये जिससे बीमार पड़ना पड़े।

सृष्टि के समस्त जीवधारियों में प्रकृति प्रदत्त वह क्षमता है कि अपने शरीर की क्रमबद्धता अनायास ही बनाये रहते हैं। चोट दुर्घटना की बात दूसरी है पर वे साधारणतया बीमार नहीं पड़ते। पालतू पशुओं को छोड़कर वन क्षेत्र के निवासियों में पशु−पक्षी तो क्या, जनजातियों के लोग तक बीमार नहीं पड़ते। उन्हें कोई टॉनिक मिलते हों, रोग निवारक औषधियाँ खाते रहते हों, सो बात भी नहीं। प्रकृति के साधारण नियमों का पालन करने भर से हर किसी के स्वास्थ्य की सहज सुरक्षा हो सकती है।

क्या आरोग्य साधना के कोई गुप्त रहस्य हैं? क्या बीमारियों से निपटने की कोई चमत्कारी रसायनें हैं? इसका उत्तर नहीं में ही दिया जा सकता है। कारण कि इसमें यदि कहीं रहस्यवाद का समावेश होता तो शिक्षा से हजारों मील दूर रहने वाले प्राणी उन्हें किससे, क्यों कर सीखते और उस जटिल प्रणाली से अपरिचित रहने की स्थिति में ऋतु प्रकोपों को सहते हुए आहार तक का सुप्रबंध न होने की स्थिति में निरोग कैसे रह पाते?

मानव शरीर दूसरे प्राणियों की तुलना में हर दृष्टि से श्रेष्ठ है। मस्तिष्कीय संरचना ही नहीं, कायिक ढाँचा भी ऐसा है जिसकी सुरक्षात्मक दीवारें बहुत मोटी और मजबूत हैं। उसमें साधारण रोग कीटकों का प्रवेश नहीं हो सकता। यदि हो भी जाय तो वे संरक्षक चौकीदारों से लड़कर जीत नहीं सकते। यहाँ सफाई कर्मचारियों का उदाहरण सामने है। वे संक्रामक बीमारियों के मरीजों का भी मल−मूत्र साफ करते रहते हैं। कपड़े धोते रहते हैं। उनकी सेवा में निरत रहते हैं। डाक्टर, कम्पाउण्डर, नर्स, आदि रोगियों को छूकर हाथ भर धो लेते हैं पर उनकी साँसों में से उड़ने वाली रुग्णता की फौज को किस प्रकार बाहर रोके या दूर भगाते रह सकते हैं। ऐसी दशा में घर की परिचर्या करने वालों—कुशल क्षेम पूछने वालों—स्नेह दुलार में स्पर्श करने वालों को उस विपत्ति में फँस जाना पड़ता। बीमार माता के संपर्क में रोकने पर भी न रुकने वाले बालकों की सुरक्षा का क्या प्रबन्ध होता? उनकी सुरक्षा कैसे हो पाती?

हमारा रक्त, तापमान, विशेषतया श्वेत कण- स्रवित होने वाले रसायन सभी ऐसे होते हैं जो रोग कणों को नष्ट करने में पूरी तरह समर्थ हैं। कठिनाई तब आती है जब इस रक्षा पंक्ति को हम स्वयं दुर्बल करते हैं।

इसके लिए तीन मोर्चों पर सतर्कता बरतने की आवश्यकता है। एक-आहार, दूसरा-श्रम, तीसरा-मानसिक सन्तुलन। यदि इन तीनों पर सतर्कता भर से काम लिया जाय तो हम सहज ही निरोग रह सकते हैं और बीमारियों के वातावरण में रहकर भी अपने को बचाये रह सकते हैं। जब महामारियाँ फैलती हैं तो अनेक स्वयंसेवी सज्जन बीमारों की परिचर्या करने से लेकर मृतकों की लाशें जलाने में निरन्तर लगे रहते हैं किन्तु देखा गया है कि उनका बाल भी बाँका नहीं होता।

आहार की प्रथम सुरक्षा-दीवार में आवश्यक यह है कि भूख से कम खाया जाय, कड़ाके की भूख लगे बिना कुछ न खाया जाय। तली भुनी, चिकनाई या मसालों से भरे स्वादिष्ट पदार्थों को स्वाद वश अधिक मात्रा में खा लिया जायेगा तो उन दुष्पाच्य पदार्थों से अपच होने की सम्भावना रहेगी। इसलिए जल्दी हजम होने वाले दूध, फल, तरकारी, दलिया, खिचड़ी वस्तुओं पर निर्भर रहा जाय और उन्हें अच्छी तरह चबाकर खाया जाय तो पाचन सही रहने से रक्त भी शुद्ध बनेगा और उसके आगे रोगों का प्रकोप ठहर न सकेगा।

नशे सभी ऐसे हैं जो जीवनी शक्ति पर घातक प्रहार करते हैं। सिगरेट से लेकर शराब तक सभी मादक द्रव्य ऐसे हैं जो अपनी विषाक्तता से सभी अवयवों को अशक्त ही नहीं विषाक्त भी बनाते हैं। इनसे बचे रहना उसी प्रकार आवश्यक है जैसे साँप बिच्छू से बचा जाता है। इनका अभ्यास अनेक रोगों को आमन्त्रित करता है। जो किसी प्रकार भीतर पहुँच जाते हैं उनकी जड़ काटना कठिन पड़ता है।

श्रम के कारण सभी अंगों का संचालन होता रहता है और वे सक्षम एवं सक्रिय बने रहते हैं। यह बड़े आदमियों के नखरे हैं कि वे शारीरिक श्रम करते हुए हेटी अनुभव करते हैं और बैठे−ठाली आरामतलबी में समय बिताते हैं। बौद्धिक श्रम को वस्तुतः परिश्रम नहीं माना गया। उससे पाचन में सहायता नहीं मिलती और अवयवों को सुसंचालित रहने की प्रक्रिया में बाधा पड़ती है। बेकार पड़ा रहने वाला चाकू भी जंग खाकर भौंथरा हो जाता है। श्रम से जी चुराने वाले भी थुलथुले होते जाते हैं और मधुमेह, रक्तचाप जैसे रोगों के शिकार बनते हैं। जिनके पास कृषकों श्रमिकों जैसा काम नहीं है उन्हें टहलने की आदत डालनी चाहिए। प्रातः सायं एक−एक मील रीढ़ सीधी रखकर हाथ हिलाते हुए तेज चाल से चला जाय तो भी अंग संचालन हो सकता है। एक तरीका यह भी है कि बिस्तर पर पड़े−पड़े समस्त अवयवों का क्रमबद्ध नीचे ऊँचे, करने का क्रम चलाया जाय। दुर्बल बीमार, बच्चे, वृद्ध आदि के लिए व्यायाम का यह तरीका सरल पड़ता है।

तीसरी सुरक्षा दीवार है—मानसिक सन्तुलन बनाये रहना। कोई न कोई घटना, आशंका, सम्भावना, कल्पना ऐसी हो सकती है जो आवेश या अवसाद उत्पन्न करे। आवेश अर्थात् क्रोध, चिन्ता, भय, ईर्ष्या आदि। अवसाद का अर्थ है निराशा, उदासी, आत्महीनता आदि। जिस प्रकार शरीर में गर्मी या ठण्डक का नियत अनुपात बढ़ जाने से शरीर अस्त-व्यस्त हो जाता है उसी प्रकार मानसिक असन्तुलन भी ऐसी स्थिति उत्पन्न करता है जिससे शरीर की सहज स्वाभाविकता लड़खड़ाने लगे और मानसिक अस्त-व्यस्तता का प्रभाव शरीर पर पड़ने लगे।

हँसते मुसकाते रहने, निश्चिन्त, निर्भय और सन्तुष्ट रहने का स्वभाव न केवल मनुष्य को सुन्दर, चरित्रवान एवं सद्गुणी एवं साहसी प्रामाणित करता है वरन् शरीर के भीतरी क्रिया-कलाप को ऐसा बनाये रहता है जिस पर बीमारियों का असर न पड़े। मानसिक सन्तुलन मनुष्य को बुद्धिमान, दूरदर्शी, साहसी तो बनाता ही है साथ ही ऐसी स्थिति भी उत्पन्न करता है कि किसी बाहरी रोग का आक्रमण न होने पाये और यदि होने लगे तो उसके ठहरने की गुंजाइश न रहे।

चरित्रवान व्यक्ति बाहर से भले ही किसी कठिनाई में हो पर भीतर अपने सज्जनता एवं चरित्रनिष्ठा के कारण सन्तुष्ट प्रसन्न रहते हैं। जिनके मन में छल, कपट, झूठ, पाखण्ड के ताने−बाने बुने जाते रहते हैं उनके भीतर दुहरा—परस्पर विरोधी व्यक्तित्व बढ़ने लगता है और अन्तर्द्वन्द्व के कारण अनिद्रा, आशंका जैसे रोग घेरने लगते हैं। उद्विग्नता का पाचन तन्त्र पर बुरा असर पड़ता है। जो विक्षुब्ध रहता है उसकी मनोदशा अर्ध विक्षिप्तों जैसी बनने लगती है। इतना ही नहीं रक्त संचार, श्वसन क्रिया, मूत्राशय तन्त्र, एवं पाचक रसों का उचित मात्रा में स्राव अवरुद्ध होने लगता है। ऐसी दशा में स्वस्थ जीवाणु भी सड़कर रोग कीट बन जाते हैं। भीतर की गन्दगी साफ न होती रहे तो उस भीतरी सड़न में भी कई रोग अनायास उठ सकते हैं। किन्तु जिनकी सुरक्षात्मक तीनों दीवारें सुदृढ़ हैं उन्हें बीमार नहीं होना पड़ता और कदाचित् कोई प्रकोप होने भी लगे तो वह देर तक ठहर नहीं सकता।


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