जो शरीर के खोखले में प्रखर मस्तिष्क है

July 1985

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

स्वास्थ्य की महिमा बताने के लिए जो भी कहा जाय कम है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन या आत्मा का निवास होता है। यह उत्साहवर्धन कथन है। पर ऐसा नहीं समझना चाहिए कि यह आत्यन्तिक सत्य है। शरीर के बिना तो मन काम नहीं कर सकता। पर वह टूटा−फूटा, रुग्ण, अपंग, असमर्थ शरीर होने पर भी अपनी विलक्षणता यथावत् बनाये रहता है वरन् उसे अधिक सजग, सक्षम, सक्रिय बना सकता है इस प्रतिपादन के उदाहरण भौतिक जगत में भी विद्यमान हैं।

प्राचीन काल में च्यवन और बाल्मीकि जैसों के ऐसे कथानक मिलते हैं, जिनने तप करते हुए शरीर को निष्क्रिय बना लिया था और उसके खोखले में मात्र आत्मा ही काम करती थी। समाधि अवस्था में ऐसा ही होता है। उसका प्रयोगात्मक प्रदर्शन करने वाले हृदय और मस्तिष्क की गति बन्द होने पर भी जो जीवित बने रहते हैं और निर्धारित समय पर उस निष्क्रियता को समाप्त करके पूर्ववत् सक्रिय हो उठते हैं।

यह अध्यात्म प्रसंगों की चर्चा हुई। एक भौतिक उदाहरण अभी भी हमारे सामने है जिसमें शरीर जीवित रहने भर के लिए सक्रिय है अन्यथा उससे कोई उपयोगी कार्य नहीं बन पड़ता है। यह सज्जन हैं ब्रिटेन के ऐसे वैज्ञानिक जिनके बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है। इनने सृष्टि की उत्पत्ति के पुरातन सिद्धान्तों की इस प्रकार व्याख्या की है जिसके आधार पर अब तक की मान्यताओं में भारी उलट−पुलट करनी पड़ सकती है।

बयालीस वर्षीय इस वैज्ञानिक ने एक दशाब्दी पूर्व ऐसे विचित्र पक्षाघात ने घेरा जिसके संबंध में ऊँचे चिकित्सकों को भी कोई विशेष जानकारी न थी और वे ऐसे ही अनुमान के आधार पर चिकित्सा करते रहे। कैंब्रिज विश्व विद्यालय के यह गणित अध्यापक अपनी नियुक्ति के उपरान्त ही संसार में मूर्धन्य भौतिक विज्ञानियों में गिने जाने लगे थे। विशेषतया ब्रह्म संरचना के रहस्यों के नूतन सन्दर्भों के संबंध में।

पक्षाघात का असर तब भी बहुत हद तक हो चुका था किन्तु उनकी प्रतिभा से प्रभावित विज्ञान की एक छात्रा ने उनसे विवाह कर लिया था जिसके उदर से एक बालिका भी जन्मी। पर वे अब पत्नी की सेवा सहायता पर भी निर्भर नहीं हैं। एक विशेष प्रकार की मोटर लगी कुर्सी उनके लिए बना दी गई हैं। उसी पर वे कसे रहते हैं। अब उनके हाथों ने ही साथ नहीं छोड़ा है वरन् वाणी भी दगा दे गई है। उन्हें कुछ कहने में बहुत जोर लगाना पड़ता है फिर भी उच्चारण अस्पष्ट ही रहता है। मेज पर लगे कम्प्यूटर की सहायता से ही वे अपने चिन्तन को प्रकट कर पाते हैं। उनके अभ्यस्त सहायक मन्तव्य समझ लेते हैं और जिन वैज्ञानिकों के साथ वे काम कर रहे हैं उन्हीं के सामने प्रस्तुत कर देते हैं।

कहा जाता है कि वे इस अर्ध-शताब्दी के दूसरे आइंस्टीन हैं। उनने ब्रह्माण्ड की गुत्थियों को इस नये ढंग से सुलझाया है। जिसके संबंध में पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों को कल्पना तक न थी। यदि उनका प्रयास पूरी तरह−सफल हो गया तो प्रकृति की अनेकों अनबूझ पहेलियों पर नया प्रकाश पड़ेगा। यह वैज्ञानिक श्री स्टीफन हाँकिंग अभी 50 वर्ष के नहीं हुए हैं। दस वर्ष से शरीर आहार, निद्रा जैसी काम चलाऊ हरकतें ही कर पाता है। मशीन की कुर्सी और कंप्यूटर ही उन्हें जीवित कहे जाने योग्य ही नहीं संसार का अद्भुत मानसिक क्षमता की स्थिति में बनाये हुए है। ऐसी दिशा में शरीर को मन का निमित्त कारण माना जाय या नहीं यह भी एक नया प्रश्न सामने आता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles