समर्पण का सुख

July 1985

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दीपक जल रहा था। घृत चुकने को आया। लौ क्षीण हो चली। वायु के झोंकों ने देखा अब दीपक पर विजय पाना आसान है तो वे वृन्द−वृन्द मिलकर तेज आक्रमण करने लगे। अंधकार नीचे दबा पड़ा था-अट्टहास कर हँसा और बोला- दीपक अब तो तुम्हारा अन्त आ गया अब कुछ ही देर में यहाँ हमारा साम्राज्य होगा।

दीपक मुस्कराया और बोला- बन्धु यह देखना काम विधाता का है, मेरा ध्येय है प्रकाश के लिये निरन्तर जलना सो अब अन्त समय उससे विमुख क्यों होऊँ, यह कहकर वह एक बार इतने वेग से जला कि वहाँ का सम्पूर्ण अन्धकार सिमट कर रह गया, भले ही दूसरे क्षण दीपक का अस्तित्व स्वयं भी शेष न रहा हो।

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अन्तरीप द्वीप से आया जीवन के संघर्ष और आँधियों से दुःखी एक नाविक जहाज से उतर कर बाहर आया। समुद्र के मध्य अडिग और अविचलित चट्टान की स्वच्छता को देखकर उसको कुछ शान्ति मिली। वह थोड़ा आगे बढ़ा और एक टेकरी पर खड़ा होकर चारों ओर दृष्टिपात करने लगा। उसने देखा समुद्र की उत्ताल तरंगें चारों ओर से उस चट्टान पर निरन्तर आघात कर रही हैं तो भी चट्टान के मन में न रोष है और न विद्वेष। संघर्ष पूर्ण जीवन पाकर भी उसे कोई ऊब और उत्तेजना नहीं है। मरने की भी उसने कभी इच्छा नहीं की।

यह देखकर नाविक का हृदय श्रद्धा से भर गया उसने चट्टान से पूछा- तुम पर चारों ओर से आघात लग रहे हैं फिर भी तुम निराश नहीं हो चट्टान। और तब चट्टान की आत्मा धीरे से बोली- तात, निराशा और मृत्यु दोनों एक ही वस्तु के उभय पृष्ठ हैं, हम निराश हो गये होते तो एक क्षण ही सही दूर से आये अतिथियों को विश्राम देने, उनका स्वागत करने से वंचित रह जाते। नाविक का मन एक चमकती हुई प्रेरणा से भर गया, जीवन में कितने संघर्ष आयें अब मैं चट्टान की तरह जिऊँगा ताकि हमारी न सही, भावी पीढ़ी और मानवता के आदर्शों की रक्षा तो हो सके।

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एक था फूल एक था काटा दोनों हरे-भरे उद्यान में आजू-बाजू पल रहे थे। मानो प्रकृति ने उनको यह सन्देश देने को नियुक्त किया हो कि इस संसार की बनावट उभयनिष्ठ है, यहाँ सब कुछ सुखद और सौंदर्ययुक्त ही नहीं, दुःखद और कुरूपता भी उसका आवश्यक अंग है।

काँटे ने कहा- प्यारे दोस्त? तुम्हें भी भगवान ने व्यर्थ ही बनाया, कितने कोमल हो तुम कि शीत और ताप के हलके झोंके भी सहन नहीं कर सकते? एक दो दिन खिलकर मुरझा जाने की तुम्हारी इस क्षण-भंगुरता पर तरस आता है, इधर देखो कितने दिनों से जी रहा हूँ, तुम्हारे कितने ही पूर्वजों को इसी डाली पर खिलते और मुरझा जाते मैंने देखा पर मेरा अब तक भी कुछ नहीं बिगड़ा, जानते हों क्यों? इसलिये कि मैं अपना जो कुछ है तुम्हारी तरह लुटाते नहीं, जो भी मेरे पास आता है, काट खाता हूँ लोग मुझसे भय खाते हैं, हाथ भी नहीं लगाते एक तुम हो चाहे जो, चाहे जब तोड़ ले और मरोड़ कर फेंक दे।

फूल ने कहा- बन्धुवर! तुम्हारा कहना यथार्थ है, किन्तु मैं क्या करूं मुझे मरने जीने का तो कभी ध्यान ही नहीं आता- उत्सर्ग मेरे जीवन का ध्येय बन गया है। मैं चाहता हूँ कि मेरा जीवन एक पल के लिये ही क्यों न हो पर ऐसा हो कि जो भी देखे प्यार और प्रसन्नता से गदगद हो जाये। किसी को यह कहने का अवसर न मिले कि भगवान् ने मेरे संसार को सुखद और सुन्दर न बनाकर दुःखदायी और कुरूप ही बनाया है।

काँटे का घमण्ड चकनाचूर हो गया, उस दिन से उसने ऐंठ छोड़कर फूलों की रक्षा को ही अपना कर्तव्यमान लिया।


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