एक समय था जब नव विकसित विज्ञान ने मनुष्य को भी पेड़ पौधों की तरह उगने और मरने वाला कहा था। उसके पुनर्जन्म की वैसी मान्यता को झुठलाया था जैसी कि धर्मग्रन्थों में व्यक्त की गई थी। बीज के पेड़-पेड़ से बीज-वाले सिद्धान्त को ही पदार्थ विज्ञानी मान्यता देते थे और कहते थे कि यदि पुनर्जन्म होता है तो वह वंशजों के रूप में ही होना चाहिए। आत्मा का अलग अस्तित्व मानने और मृत्यु के उपरान्त भी उसकी कोई सत्ता बनी रहने से वे इनकार करते थे।
यह प्रतिपादन कुछेक दार्शनिकों को भी भाया और उनमें से चार्वाक जैसों ने कहा इस देह का भस्मीभूत होने पर अन्त हो जाता है। दुबारा जन्म नहीं होता। पर यह मान्यताएं नये उत्साह के उभार में ही पनपी थीं। पीछे इस संदर्भ में जब गहराई के साथ दार्शनिक आधार पर विचार किया गया और विज्ञान ने अपनी विकास पृष्ठभूमि पर विचार करना आरम्भ किया तो माना कि आरम्भिक अत्सुहास में कही गई इनकारी पर नये सिरे से विचार की आवश्यकता है। उन्हें ऐसे अनेक प्रमाण मिले जो मरने के बाद भी जीवन का अस्तित्व बने रहने की पुष्टि करते थे।
जन्मजात रूप से पशु पक्षियों और कीट पतंगों में प्रायः एक जैसी आदतें होती हैं। किन्तु मनुष्य में ऐसी विलक्षणताएँ बहुत बार पाई गई हैं जिनका वंश परम्परा एवं विशेष प्रशिक्षण के साथ कोई संबंध नहीं जुड़ता। पड़ोसियों से साथियों से अनुकरण का अक्सर मिला होगा ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं मिलता।
साम्प्रदायिक मान्यताओं के अनुसार यह तो मतभेद है कि मरने के बाद कितने दिन बाद- किस कारण- किस रूप में नया जन्म होता है। पर सभी धर्म यह मानते हैं कि मरने के बाद दूसरा जन्म भी होता है और उसमें भले−बुरे कर्मों का फल भुगतना पड़ता है। भले−बुरे कर्म क्या हैं? इसमें भी मतभेद है। कई मान्यताओं में इसके लिए स्वर्ग नरक में रहना पड़ता है और वहाँ सुविधाओं तथा असुविधाओं का उपभोग करना पड़ता है।
कुछ मान्यताएँ यह बताती हैं कि मरने के बाद पशु-पक्षियों की योनि में जाना पड़ता है और असुविधा जन्य त्रास भुगतना पड़ता है। दूसरी मान्यताएं यह हैं कि मनुष्य को दूसरा जन्म भी मनुष्य रूप में ही मिलता है। सुख−दुःख इस शरीर में भी कम नहीं हैं। मनुष्यों में से कितने ही बहुत सुखी होते हैं और कितने ही रोग आदि के कारण कष्ट भी बहुत सहते हैं।
पिछले जन्म की स्मृति गाथा सुनाने वालों में से कितनी ही घटनाएँ अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करती हैं जिनसे प्रतीत होता है कि मनुष्य को दूसरी बार भी मनुष्य जन्म ही मिला। एक जन्म का अंत होने पर दूसरा कितने दिन में मिला और वह मध्यवर्ती समय कहाँ व्यतीत हुआ। इस पर थोड़ा प्रकाश परामनोविज्ञान को आधुनिक शोधों के अनुसार मिला है।
पूर्व जन्म की स्मृति सुनाने वालों के पुराने और नये जन्मों के बीच कई वर्षों का अन्तर रहा है। इससे प्रतीत होता है कि उस अन्तर वाले समय में स्वर्ग नरक आदि में निवास करना पड़ा होगा।
कितनी ही घटनाएँ भूत-प्रेतों की भी इस रूप में सामने आई हैं जिनसे प्रतीत होता है कि मध्यवर्ती समय सम्भवतः इस प्रकार सूक्ष्म शरीर में रहते हुए व्यतीत करना पड़ता होगा।
पाश्चात्य देशों में पुरानी मान्यता प्रलय के बाद नया जन्म मिलने की रही है। पर मध्ययुग में दार्शनिकों ने इस शास्त्र प्रतिपादन का खण्डन किया है। पैथागोरस—प्लेटों, प्लाटीनस, क्रेल, प्रिटन के अतिरिक्त यहूदी एवं हिंदू धर्माचार्यों ने भी अपने व्यक्तित्व अनुभवों के आधार पर यह कहा है कि पुराने और नये जन्म के बीच दस वर्ष से अधिक का अन्तर होना चाहिए।
ईसाई और इस्लाम धर्म की मान्यता के अनुसार प्रलय काल तक नये जन्म पाने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। हिन्दू, धर्म के अनुसार प्रेतात्मा एक वर्ष तक अपने कुटुम्बियों के साथ संबंध बनाये रहता है और इसके बाद प्रेत लोक में स्वर्ग नरक की अनुभूतियों के लिए चला जाता है। पुनर्जन्म होता है यह तो कहा गया है पर यह नहीं बताया गया कि इसमें कितना समय लगता है।
वंशानुक्रम वाद की मान्यता भी निर्विवाद नहीं है क्योंकि कितने ही बच्चों की आकृति तथा प्रकृति ऐसी पाई जाती है जो माता−पिता की कई पीढ़ियों तक नहीं पाई गई। चमड़ी का रंग, बाल जैसी मोटी पहचान ही वंश परम्परा में चलती है। इनमें वर्ण भेद उदाहरणों में दोनों के सम्मिश्रित लक्षण पाये जाते हैं अफ्रीकी काले तथा यूरोपियन गोरों के संपर्क से उत्पन्न हुई सन्तान के बारे में जब मिश्रित चिन्ह पाये जायें तो उसे किसका वंशज कहा जाय? मिश्रित होने पर आत्मा के पुनर्जन्म का सिद्धान्त कटता है।
हैक्सले, मैलस्का, आर्थर, थामसन, डार्विन जैसे विकासवादी कहते हैं कि वंश परम्परा में विकासवाद के सिद्धान्त भी जुड़ते हैं और सन्तानें, अपने जन्म दाताओं की अपेक्षा अधिक समय एवं सुयोग्य होती हैं।
डा. डंकन मैकडानल्ड ने मरणासन्न रोगियों को काँच के बक्से में रखकर तोला तो मालूम हुआ कि जीवन और मरण के मध्य एक औंस वजन घट गया। इस आधार पर वे आत्मा को कोई भौतिक पदार्थ मानते हैं तो मृत्यु के उपरान्त अन्तरिक्ष में चला जाता है।
‘अमेरिकन सोसाइटी फार साइकिक रिसर्च’ के अन्वेषण का निष्कर्ष यह है कि जीवन एक पदार्थ है जिसका आकार भी है और वजन भी। शरीर के इर्द−गिर्द जो तेजोवलय पाया जाता है वह बाहर ही नहीं भीतर भी होता है यही आत्मा का रूप है और जीवन और मरण के बीच जो वजन घटता है वह उसका वजन। इस प्रकार जीवात्मा भी एक खास प्रकार का पदार्थ ही होना चाहिए।
वरनार्ड जानसन फाउण्डेशन के डा. वाटर्स ने भी काँच के चम्बर में प्राणियों को रखकर उनके जीवन और मरण के अन्तर को देखा। एक चूहे का प्राण चैम्बर के भीतर ऊपर हवा में तैरता पाया गया। इस आधार पर वे प्राणी के सूक्ष्म शरीर की कल्पना करते हैं और सोचते हैं कि मृतक का अस्तित्व भाप जैसा होना चाहिए।
पैरासाइकिक रिसर्च द्वारा अनेक क्षेत्रों में अनेक आधार पर जो खोजें की हैं उनसे प्रतीत होता है कि प्राणी अपने साथ अपनी आदतें और इच्छाएँ साथ लेकर जाता है। नया जन्म लेने पर वे विशेषताएँ भी पाई जाती हैं। भले ही आकृति पूर्व जन्म की तुलना में भिन्न हो।
कई आत्म विज्ञानी वंशानुक्रम का इतना ही संबंध मानते हैं कि किसी माता−पिता की सन्तानें उनके रंग रूप से मिलती−जुलती हों। पर आत्मा का उस शरीर से कोई संबंध नहीं होता। आत्मा का सूक्ष्म शरीर ही प्रबल होता है और वह नया जन्म लेने के लिए ऐसे वातावरण की तलाश करता है जिसमें उसके पूर्व संचित संस्कारों का चरितार्थ करने का अवसर मिल सके। मनुष्य प्रगतिशील है अपनी भली या बुरी आदतों को आगे बढ़ाने के लिए वह पिछली स्थिति में प्रेरणा ग्रहण करता है और जैसा भी कुछ था अगले जन्म में उससे प्रगतिवान बनने की कोशिश करता है।