दृश्य एवं अदृश्य शरीर

July 1985

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भौतिक विज्ञान के अनुसार चेतना का तात्पर्य उस प्राण विद्युत से है जो शरीर के हर-क्षेत्र में ज्ञान-तन्तुओं के साथ प्रवाहित होती रहती है। इसका केन्द्र मस्तिष्क माना गया है। संगठित ऊतकों द्वारा उसका उत्पादन होता है अथवा कुछ मस्तिष्कीय केन्द्र उसे मिल-मिलकर उत्पन्न करते हैं। यह अब पूर्व काल की तरह विवादास्पद नहीं रहा और यह माना जाता है कि दोनों ही कारण एक-दूसरे के पूरक हैं। इनमें किसे प्रमुख माना जाय, किसे गौण, इस विवाद को अनसुलझा छोड़ देने में भी हर्ज नहीं। दोनों में से एक कारण ही उभर पड़े तो मृत्यु निश्चित है।

विज्ञान की आरंभिक प्रगति के युग में कहा जाता था कि प्राणी समुदाय एक विशेष प्रकार का रासायनिक गुच्छक है और अपनी वंश परंपरा के घटकों द्वारा किये जाने वाले मार्ग दर्शन पर अपना स्वभाव बनाता और रीति-नीति अपनाता है। शरीर के साथ ही चेतना का अन्त बहुत समय तक माना जाता रहा। अणुओं के विघटन के साथ−साथ चेतना की आत्यन्तिक मृत्यु मानी गई। यों यह नास्तिकता की पूर्ववर्ती मान्यता है पर इसमें एक प्रतिशत की कमी है। शरीर के न रहने पर उनके घटक किसी के पेट में जाते भूमि या जल में पड़ते और भटकते भटकाते कोई खाद्य बनते हैं, उसे जो खाता है उसमें यदि पूर्ववर्ती प्राणी के जीवनकोश पहुँचे हैं तो उसी आधार पर पुनर्जन्म हो जाता है। यह आत्मा का नहीं वंशानुक्रम घटकों का पुनर्जन्म है। यह घटक प्रकृति के अंग माने गये। उनके पीछे किसी चेतन तत्व की सत्ता स्वीकार नहीं की गई।

इसी अर्थ में भौतिकवाद को नास्तिकतावादी या नास्तिकवाद को भौतिकवाद माना गया था और कहा गया था कि शरीर ही आत्मा है। शरीर के साथ ही आत्मा का भी अन्त हो जाता है। इस कथन के प्रतिपादन और समर्थन में पिछली शताब्दी में इतना बल दिया जाता रहा मानों उनने कोई आत्यन्तिक सत्य हस्तगत कर लिया हो और उन लोगों की पूरी तरह उपहासास्पद ठहरा दिया गया हो जो आत्मा और परमात्मा की कथा-गाथा कहते रहते थे।

बहुत समय नहीं गुजरा कि उस खोज को बालहठ समझा जाने लगा और इस पर नये सिरे से खोज करने की आवश्यकता अनुभव की गई कि मरने के बाद भी चेतना का अस्तित्व रहता है या नहीं एवं एक शरीर में रहते हुए भी चेतना दूसरे शरीर में प्रवेश करने या प्रभावित करने में समर्थ हो सकती है या नहीं।

पाया यह गया कि शरीर में विद्युत रहती है। यह मान्यता ठीक होते हुए भी उसमें यह परिशिष्ट और जोड़ना पड़ा कि प्राण विद्युत का एक घेरा शरीर के बाहर भी घिरा रहता है, जैसे सूर्य के घेरे से बाहर उसकी किरणों का विस्तार होता है। जिस प्रकार बहुत से तारे चिरकाल पूर्व मर गये पर उनका प्रकाश अभी भी धरती पर आ रहा है उसी प्रकार मनुष्य का शरीर मर जाने पर भी उसका तेजोवलय उसी पूर्व स्थिति में उसी आकार में बना रहता है। स्थिति से तात्पर्य यह है कि उसका स्वभाव प्रायः बहुत कम बदलता है और इच्छा अभिरुचियों का प्रवाह पूर्ववत् बना रहता है और राग द्वेष भी पूरी तरह नहीं छूटता। मरणोपरान्त बना रहने वाला यह प्राण शरीर अब विज्ञान की अनेक कसौटियों पर अपनी सत्ता सिद्ध करने में समर्थ हो चुका है। इसे अदृश्य या अशरीरी शरीर कह सकते हैं। यह अस्थि माँस आदि प्रत्यक्ष पदार्थों का बना न होकर विद्युत तरंगों जैसा होता है। इतने पर भी उसका अस्तित्व सर्वथा समाप्त नहीं होता और उसका परिचय समय-समय पर इन्द्रिय गम्य न होते हुए भी अनुभव गम्य बना रहता है। स्वेच्छा पूर्वक उदासीनता अपनाकर वह किसी अन्य प्रिय विषय की ओर भी लुढ़क सकता है और छोड़े हुए जीवन के पदार्थ व्यक्तियों एवं घटनाओं के साथ विशेष लगाव होने पर वह उसी पूर्व भूमिका के इर्द-गिर्द परिभ्रमण कर सकता है। भीतर से उत्तेजना उमंगें तो वह किन्हीं के सम्मुख अपने वायुभूत शरीर को प्रकट भी कर सकता है। अपनी मनःस्थिति का परिचय भी दे सकता है और कुछ कहना हो तो वह भी अवगत करा सकता है।

इस प्रयोजन में प्रेरक सत्ता की क्षमता अधिक होती है और ग्रहण कर्ता की स्वल्प। जिस प्रकार मैस्मरेजम हिप्नोटिज्म में प्रयोक्ता की सामर्थ्य ही अपनी इच्छा शक्ति की प्रमुखता का परिचय देती है, वही बात यहाँ भी है। ग्रहणकर्त्ता को, सामान्य, साधारण, सहमत मनःस्थिति का होना चाहिए उसे प्रतिरोध खड़ा नहीं करना चाहिए। इतने भर से हिप्नोटिज्म प्रयोगों का सिलसिला चल पड़ता है। मनुष्य के जीवन काल में अथवा मृतक हो जाने पर प्राण शरीर के तेजोवलय का अदृश्य अस्तित्व बना रहता है। वह अपना परिचय जिस भी सम्बन्ध के अनुरूप देना चाहे दे सकता है। अभिभावक-सन्तान, मित्र-मित्र, पति-पत्नी जैसे रिश्ते प्रमुख होते हैं उनमें अपेक्षाकृत अधिक घनिष्ठता पाई जाती है। इस प्रकार की मनःस्थिति वाला प्राण शरीर अपने प्रिय सम्बन्धी को अपने अस्तित्व का परिचय सरलतापूर्वक दे सकता है। यदि घोर शत्रुता हो तो भी आक्रामक या भयावह झलक झाँकी देता रह सकता है। यदि अन्य मनस्कता हो तो फिर मिलन-परिचय की बात झीनी पड़ जायेगी और बहुत समय बीत जाने पर वह उपेक्षा के गर्त में भी जा गिरेगी। स्मरण रखने योग्य बात यह है कि जीवित पक्ष का आग्रह आमन्त्रण उतना काम नहीं करता जितना प्राण शरीरधारी का। फिर सूक्ष्म शरीर की प्रौढ़ता भी आवश्यक है। वयोवृद्ध चिर रोगी, उथले सम्बन्धों वाले, इस प्रकार की मिलन चेष्टा नहीं करते। करते भी हैं तो उनकी शिथिलता अन्य मनस्क स्थिति में रहने के कारण, स्वल्प इच्छा शक्ति के कारण अपनी ओर से कोई प्रभावी हलचल उत्पन्न नहीं कर पाती। स्वप्न में कभी स्मरण ही आने जैसे प्रसंगों में ही उथला-सा मिलन हो सकता है।

प्रौढ़ता की मनःस्थिति में प्राण शरीर अपने प्रियजनों को कुछ लाभदायक परामर्श भी दे सकते हैं। सहयोग करने सहायता देने, कष्ट से उबरने जैसी क्षमता थी उनमें देखी गई है, किन्तु सामर्थ्य की पूँजी स्वल्प रहने के कारण वे कोई वैसी सहायता नहीं दे सकते जैसी कि जीवित अवस्था में अपने बुद्धि कौशल अथवा साधन वैभव के सहारे दे सकते हैं। हाँ यदि शत्रुता या प्रतिशोध का भाव हो तो डराने, तनाव उत्पन्न करने, रुग्णता में धकेल देने, बुद्धि भ्रम उत्पन्न करने जैसे संकट खड़े कर सकते हैं। शत्रुता का बदला एक सीमा तक लिया जा सकता है। विश्वास घात, हत्या, आत्महत्या, छल बहकावा आदि की घटनाओं को प्रायः प्रेतात्माएँ भूल नहीं पातीं और जिस-तिस प्रकार प्रतिशोध लेकर अशान्ति उद्विग्न करती रहती हैं।

यह विवरण स्थूल संकट की छत्र छाया में बने हुए सूक्ष्म शरीर का है। आमतौर से पुनर्जन्म से पूर्ण पिछला प्राण शरीर समाप्त प्रायः हो जाता है और नये शरीर के साथ नई प्राण विद्युत का तेजोवलय बनना बनाना आरम्भ हो जाता है। किन्तु अपवाद स्वरूप ऐसा भी होता है कि पुराने प्रौढ़ शरीर की छाया मजबूत बनी रहे और नये की विनिर्मित होने में मन्द गति से काम कर रही है तो पहले जन्म की घटनाएँ, स्मृतियाँ बनी रहती हैं और ऐसे बालक अपने पुराने जन्म का प्रमाण परिचय देने और विवरण बताने लगते हैं। किन्तु यह स्थिति अधिक समय तक नहीं रहती। दस वर्ष का होते-होते बालक विगत जन्म की स्मृतियों को भुला बैठता है। तब तक नया तेजोवलय परिपक्व होने लगता है और जो बचपन में याद था उसे भी भूल जाता है।

परामनोविज्ञान की पहुँच और पकड़ अभी इसी सीमा तक है। जीवित शरीर के साथ काम करने वाले तेजोवलय की प्रौढ़ता के आधार पर ओजस्, तेजस्, वर्चस् वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है। इस आधार पर व्यक्तित्व का निखार और प्रतिभा का विस्तार होता है। सामान्य जीवन में इस बढ़ोतरी के आधार पर मनुष्य साहसी, पराक्रमी होता है। शरीर दुर्बल होने पर भी उसमें प्रभावोत्पादक क्षमता बढ़ी-चढ़ी होती है। किन्तु यदि इस तत्व की कमी रहे तो व्यक्ति उदास, नीरस, निराश, थका-माँदा दिखाई पड़ता है। यह ओजस् किन्हीं में जन्मजात रूप से अच्छी मात्रा में होता है। कुछ उसे प्रयत्नपूर्वक बढ़ा लेते और कुछ निषेधात्मक चिन्तन से ग्रस्त, भयभीत, शंका शंकित रहने के कारण उसे क्रमशः खोते, गँवाते चले जाते हैं।

परामनोविज्ञान के अंतर्गत मस्तिष्कीय प्रसुप्त शक्तियों का जागरण-शरीर के भीतर ठुसी हुई प्राण विद्युत और बाहरी क्षेत्र में तेजोवलय के रूप में अनुभव की जा सकने वाली, क्षमता का पता लगाया गया है। उससे यह जाना गया है कि उसकी उन्नति या अवगति की स्थिति में मनुष्य किस प्रकार लाभान्वित होता या घाटे में रहता है। इससे आगे के क्षेत्र में परामनोविज्ञान की पहुँच नहीं है। शरीर विज्ञान भौतिक विज्ञान है। इसलिए उससे संबंधित प्रकट और अप्रकट शक्तियों तथा गतिविधियों के प्रमाणों का जो संग्रह किया गया है उसे शरीर क्षेत्र का भौतिक विज्ञान ही कह सकते हैं। भले ही वह प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष।

“फेट” मासिक पत्रिका में मध्य अफ्रीका की कोलोनियल सर्टिस के उच्च पदाधिकारी क्वीलन हेयर ने आप बीती एक घटना प्रकाशित कराई है। उसे सूचना मिली की किवि नदी को पार करके हाथियों का एक बड़ा झुण्ड मैदानी इलाके में उतर रहा है और उस क्षेत्र की वनस्पतियों को तहस-नहस करने पर उतारू है। उसे तत्काल पीछे लौटाना आवश्यक था। इसलिए क्वीलन अपनी साज-सज्जा के साथ उधर चलने की तैयारी करने लगे।

उसी बीच उनकी भेंट उस क्षेत्र के प्रख्यात ताँत्रिक ‘निगी’ से हो गई। उसने विश्वास दिलाया कि उनकी कठिनाई को वह कुछ ही देर में हल कर देगा। उसने चीते की खाल से अपना शरीर ढका और एक वृद्ध के रूप में नियत स्थान पर जा पहुँचा। एक विचित्र ढोल बजाया। फलतः हाथियों का झुण्ड जिधर से आया था, उसी ओर वापस लौट गया।

इस घटना में न कोई दुराव था न षड्यन्त्र। आँखों देखी घटना और परिस्थिति को देखते हुए उसे विश्वास करना पड़ा कि जीवित मनुष्य की काया में घुली हुई किसी शक्तिशाली सत्ता का यह चमत्कार था।

ऐसी ही अनेक प्रत्यक्षदर्शी और आजमाई घटनाओं का संकलन प्रख्यात मनोविज्ञानी गर्नी पाडमेल्या मायस ने ग्रन्थ रूप में प्रकाशित किया है। नाम है उसका- ‘‘फिनामिना आफ दि लिविंग’’। उसके प्रथम संस्करण में 1200 पृष्ठ थे। पर अगले संस्करण में बड़ी हुई घटनाओं के 200 पृष्ठ और जोड़े गये। इसमें 700 में अधिक ऐसी घटनाओं का उल्लेख है। जिसमें मनुष्य की अदृश्य शक्तियों द्वारा प्रस्तुत किये गये चमत्कारों का उल्लेख है। उन उल्लेखों में वह सब भी अंकित किया गया है कि घटनाओं की वास्तविकता को किन सुयोग्य पर्यवेक्षकों की समितियों के सम्मुख किस प्रकार जाँचा गया और जब बात को पूरी तरह विश्वस्त मान लिया गया तभी उनका प्रस्तुत पुस्तक में उल्लेख किया गया।

‘ब्रिटिश सोसाइटी फार साइकिक रिसर्च’ में ऐसी घटनाओं का अपने प्रकाशन में उल्लेख किया है कि अमुक व्यक्ति इच्छा पूर्वक अपने सूक्ष्म शरीर को रात्रि के समय मंगेतर के यहाँ ले जा पहुँचा। उसके बाल छुए। इसकी पुष्टि मंगेतर ने भी की।

ऐसे ही विवरणों का संकलन फ्राँसीसी मनोविज्ञान वेत्ता डी. रोकास ने भी अपनी पुस्तक में किया है। जर्मनी की द्विमासिक पत्रिका ‘डेर ब्लाक’ में लारडल की वर्णित उस घटना का उल्लेख है जिसमें उसने आर्कविशाप के चौके में उस समय क्या पक रहा है यह बताया है तभी ही यह भी कही-ठीक इसी समय सोने की अँगूठी पकाने वाली से खो गई है और वह कोयले की टोकरी में है।

हर बैकर की जर्मन पुस्तक ‘गैस पेंस्टर एण्ड स्यूक’ में विस्तार से लिखा है कि किस प्रकार उसी का छाया पुरुष उसके उलझन भरे गणित को हल करके गायब हो गया था।

परा शक्तियों की अन्वेषक श्रीमती एलीन जे. गैरेट है अपनी पुस्तक “माई लाइफ एण्ड द सर्च फार दि मीनिंग आफ मीडियमशिप” में ऐसे अनेक विवरणों का जिक्र कर चुकी है जिनसे प्रतीत होता है कि मनुष्य उतना ही नहीं है जितना कि दिख पड़ता है। उसमें अदृश्य क्षमताओं का प्रचुर भण्डार भी भरा पड़ा है जिसे अभी कुरेदा नहीं गया है।


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