बड़ी अहंकारिणी (kahani)

July 1985

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एक बूँद बड़ी अहंकारिणी थी समुद्र में अपनी सत्ता का विलय अच्छा न लगा। वह अपनी अहन्ता और पृथकता बनाये रखना चाहती थी। नदियों ने इस आग्रह से विरत भी करना चाहा पर वह मानी नहीं। अलग ही बनी रही। कड़ाके की धूप निकली और वह भाप बनकर हवा में उड़ गई। बादलों के साथ मिलना उसे फिर भी पसन्द नहीं आया। रात हुई और वह पत्ते पर ओस बनकर अलग-अलग पड़ी रही। धूप रोज निकलती, उसे ऊपर उठाती, पर उसे नीचे ही गिरना पसन्द जो था। सर्प ने उस ओस को चाटा और विष में बदल दिया। जो न समुद्र बनते हैं, न बादल तो विष बूँद बनकर रहना ही पड़ता है।


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