ईश्वर की प्राप्ति−प्रेम से

July 1985

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आध्यात्मिक उन्नति की परम अवस्था तथा ईश्वर प्राप्ति की अन्तिम भक्ति−अवस्था प्रेम है भक्ति का स्वरूप भी निस्वार्थ प्रेम ही कहा गया है। इस विषय में कोई विवाद नहीं है कि परमात्मा की प्राप्ति के अन्य सभी साधनों में प्रेम दिव्य एवं सुखद साधन है और उसका प्रत्येक साधन में समावेश होना चाहिये। वस्तु कितनी ही सुन्दर क्यों न हो यदि उसके प्रति आकर्षण का भाव नहीं होगा तो न तो उसकी प्राप्ति का प्रयत्न ही हो सकता है और न उस प्रयत्न में चिरस्थायी ही रहा जा सकता है। प्रेम का विकसित रूप ही आध्यात्मिक गुणों—श्रद्धा−भक्ति विश्वास आदि के रूप में प्रकट होता है पर ईश्वर उपासना में उसे किसी न किसी रूप में प्रकट होना आवश्यक है। इसके बिना उपासना अधूरी है। सच्ची भक्ति तो प्रेम ही है। प्रेम ही परमात्मा का प्रकट स्वरूप है।

प्रेम ईश्वर प्राप्ति की साधना की वह कसौटी है जिसमें तपकर जीवन विशुद्ध बनता है और ब्रह्म में मिलन की स्थिति प्राप्त करता है। जीव और परमात्मा के बीच जो तादात्म्य है वह अपने शुद्ध रूप में प्रेम द्वारा ही प्रकट होता है। प्रेम न होता तो इस पृथ्वी पर लोगों को आध्यात्मिक तत्वों की अनुभूति भी न होती। यह स्थिति प्रारम्भ में आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिये विकलता, विरह के रूप में प्रकट होती है पर जिन्हें स्वाभाविक रूप में वह स्थिति प्राप्त न हो और वे ईश्वर को प्राप्त करना अपने जीवन का उद्देश्य मान गये हों तो उन्हें भी प्रेम का अभ्यास करना पड़ता है। तप, त्याग और सुख की इच्छाओं का दमन कर अन्तःकरण की प्रेम-प्रवृत्ति को जागृत करना पड़ता है।

प्रेम जो मनुष्य का मनुष्य के साथ संबंध स्थापित करता है उसे उसकी सत्ता के मूल स्रोत में पहुँचा देता है। जो वस्तु मनुष्य-समाज को धारण किये रखती है, उसके विकास और नैतिक उत्कर्ष में सहायक होती है, वह प्रेम ही है। यदि मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम का आदान-प्रदान न रहा होता और मानव जाति को प्रवृत्ति के मूल में प्रेम का प्रेरक भाव न होता तो नैतिक क्षेत्र में उसने कोई भी उन्नति न की होती।

मनुष्य विकास-क्रम में सृष्टि के अन्य जीवों की अपेक्षा बहुत पीछे है। संसार के अन्य प्राणियों में जो नैतिक मर्यादायें देखी जाती हैं वे ईश्वर प्रदत्त होती हैं। यदि उसके जीवन में प्रेम परिचालक न रहा होता तो उसकी सारी नैतिक मर्यादायें भंग हुई होतीं। स्वार्थ या छल−कपट की अधिकता वाले प्रदेशों में आज भी इस सिद्धान्त को स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है।

प्रेम विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली सत्ता है, उसी के आधार पर मनुष्य−समाज जीवित है यह न होता तो मनुष्य बड़ा दरिद्र एवं अविकसित रहा होता। उसे केवल अपना ही ध्यान रहा होता, अपने ही स्वार्थों की फिक्र रही होती, अपने ही सुख सुहाये होते। न तो उसे समाज-सेवा के लिये प्रोत्साहन मिला होता न व्यक्तिगत जीवन में पराक्रम करने की प्रेरणा मिली होती। प्रेम की शक्ति का साम्राज्य आज सुव्यवस्थित और सुनियोजित विश्व के रूप में देखने को मिल रहा है।

प्रेम के बगैर मनुष्य मुर्दा है। जब मनुष्यों में प्रेम का अभाव होगा तो कोई आकर्षण भी किसी चीज के लिये न होगा और जब आकर्षण न होगा तो क्रिया न होगी, क्रिया न होगी तो यह सारा संसार नीरव उदासीन और जड़वत हो जायेगा। इसीलिये प्रेम ही जीवन है।

ईश्वर उपासना में इस उद्दात्त भावना का दर्शन संसार के सभी धर्मों में पाया जाता है। भगवान को प्रेममय समझ कर प्रेम मार्ग द्वारा उसकी साधना सभी देशों के भक्तों एवं साधकों में देखी जाती है। उपनिषद् में भगवान को “मधुब्रह्म” कहा है यह उसका विशुद्ध प्रेममय स्वरूप ही है। परमात्मा प्रेम द्वारा ही मधुर होता है—‘मधुक्षरन्तितद्ब्रह्म’, जिससे मधु अर्थात् प्रेम प्रकीर्ण होता है वही ब्रह्म है। अपने इसी रूप में वे भक्त के लिये, आराधक के लिये पुत्र, धन आत्मीय स्वजन—इन सबसे बढ़कर प्रियतम हो जाते हैं।


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