साधना तपश्चर्या का स्वरूप एवं प्रतिफल

July 1985

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मुक्ति पथ पर चलना कहाँ से आरम्भ किया जाय और कौन से विरामों पर ठहरते हुए लक्ष्य तक पहुँचने की मंजिल कैसे पूरी की जाय, इसका एक सुनिश्चित मार्गदर्शन गीताकार ने इस प्रकार किया है।

विषयाविनिवर्त्तन्ते निराहारस्य देहिनः। रसवर्जं रसोष्यस, परं दृष्ट्वा निवर्त्तते॥

विषय भव बंधन हैं। जीवात्मा को वे ही बाँधते हैं। इन विषयों से छुटकारा प्राप्त करने की पहली मंजिल है उपवास। उपवास का अर्थ यहाँ शत प्रतिशत अन्न जल का परित्याग नहीं वरन् आहार पर नियन्त्रण है। नियन्त्रण अर्थात् मात्रा में कभी। साथ ही स्वाद का परित्याग। सामान्य एवं सात्विक स्वाद प्रत्येक खाद्य पदार्थ में होता है। उसी में सन्तोष किया जाय। ऊपर से जो नमक मिर्च आदि मसाले मिलाये जाते हैं और शक्कर का सम्मिश्रण किया जाता है, उन्हें छोड़ा जाय। मसाले एवं शक्कर की भरमार से भोजन स्वादिष्ट तो हो जाता है पर जीभ के चटोरेपन का पोषण होने से वह अनावश्यक मात्रा में खा लिया जाता है। इसका सीधा परिणाम अपच होता है। अपच का अर्थ है पेट में खाद्य पदार्थ का सड़ना। सड़न विष उत्पन्न करती है जो रक्त के साथ मिलकर अनेक प्रकार के रोगों की उत्पत्ति करता है। तले हुए, भुने हुए, चिकनाई से सने हुए मिष्ठान्न पकवान हर कोई अधिक मात्रा में खा जाता है। एक तो मात्रा की अधिकता, दूसरे मसाले, चिकनाई, मिठाई जैसे गरिष्ठ पदार्थों का मिलना भोजन को तमोगुणी बना देता है। वे पाचन में भारी होने के कारण पाचन तन्त्र को खराब करते हैं और उनका परिणाम स्वास्थ्य के लिए अहितकर होता है।

आहार का मन से सीधा संबंध है। “जैसा खाये अन्न—वैसा बने मन” की उक्ति तथ्यों पर आधारित है। गरिष्ठ भोजन मन को विकारग्रस्त बनाता है। उससे अन्य इन्द्रियों की लिप्सा भड़कती है। मन विषय विकारों से ग्रसित होता है। इसलिए साधना का प्रथम चरण आहार संयम से आरम्भ होता है। व्रतों की व्याख्या करते हुए अस्वाद को प्रथम व्रत बताया गया है। गाँधी जी ने सप्त महाव्रतों की गणना करते हुए अस्वाद को प्रथम व्रत बताया है। इसमें आहार संयम ही नहीं इन्द्रिय निग्रह का भी समावेश है। जो स्वादेन्द्रिय पर काबू कर लेगा उसके लिए ब्रह्मचर्य व्रत की साधना सरल है। चटोरा व्यक्ति जिह्वा को अनियन्त्रित करने के उपरान्त कामुकता का भी शिकार होता है। उसके मन में कामुक अनियंत्रण घूमता रहता है, जो समयानुसार फलित होकर ब्रह्मचर्य भंग एवं व्यभिचार जन्य क्रिया−कलापों तक जा पहुँचता है।

भारतीय धर्मशास्त्रों में व्रतों का सुविस्तृत वर्णन है। आये दिन उपवासों के विधान हैं। उनके अनेक माहात्म्य भी बताये गये हैं। उन अलंकारिक प्रतिफलों में अत्युक्ति हो सकती है किन्तु इतना सर्वथा सत्य है कि आहार संयम हर दृष्टि से उत्तम है। उससे शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्वास्थ्य संभलते हैं।

शरीर से मन बनता है। जीभ का चटोरापन सीधे कामुकता को भड़काता है। यह मनोविकार अकेला नहीं है। इनकी एक पूरी सेना है। जहाँ एक चलता है वहाँ साथी संगतों की पूरी बरात चल पड़ती है। वासना, तृष्णा और अहन्ता का एक समुदाय है। लोभ, मोह, और क्रोध का एक समूह है। यह सब आपस में गुँथे हुए हैं। एक के साथ दूसरा चलता है। जहाँ वासना भड़केगी वहाँ तृष्णा भी पीछे न रहेगी। लोभ−लालच में मन भटकेगा। सम्पदा की ओर मन ललचाएगा कि उसे जैसे बने संग्रह किया जाय। उचित रीति से उपार्जन थोड़ा ही हो सकता है। बहुत संग्रह करके अहंकार की पूर्ति−कुटुम्बियों को विलासी बनाने का मोह बढ़ाती है और उस संग्रह के लिए ईमानदारी से काम नहीं चलता। बेईमानी का आश्रय लेना पड़ता है। अर्थ लोभ मात्र व्यवसाय में बेईमानी करने तक सीमित नहीं रहता वरन् चोरी, ठगी, झूठ, हत्या जैसे अनेकों छोटे−बड़े कुकर्मों में रस आने उगता है। उन्हें करने में भय लज्जा संकोच का अनुभव नहीं होता वरन् रस आने लगता है। रस की कोई सीमा नहीं, वह अमुक सीमा तक पहुँचकर तृप्त कर सके, ऐसा भी तो नहीं होगा। जीभ से आरम्भ हुआ रसास्वादन सभी इन्द्रियों को चटोरी बनाता है और फिर मन की ललक लिप्साएँ भड़कने लगती हैं। फुलझड़ी में माचिस लगाने के उपरान्त एक के बाद दूसरी चिनगारी छूटने लगती है और फिर ऐसा तमाशा बनता है कि पूरे खेल का सफाया करने के उपरान्त ही समाप्त होता है। अवाँछनीयता का रस जीभ के चटोरेपन से आरम्भ होकर जहाँ तक जगह मिलती है वहाँ तक बढ़ता ही जाता है।

व्रत उपवास का प्रथम उपास वह है जिससे मनुष्य अन्यान्य संयम की ओर बढ़ता है। संयम को ही तप कहते हैं। इन्द्रिय संयम के बाद अर्थ संयम, समय संयम, विचार संयम का क्रम है। संयमी तपस्वी कहलाता है। स्वल्प सीमित में अपना काम चलाने की विवेक बुद्धि जिसमें जगती है उसमें साथ ही इतनी उदारता दूरदर्शिता भी जगती है कि बचत को परमार्थ प्रयोजनों में लगता रह सके। मनुष्य यदि आलसी, प्रमादी न हो, पराक्रम पुरुषार्थी हो तो स्वभावतः उसके पास धन ही नहीं, समय, श्रम से लेकर प्रतिभा पराक्रम तक ढेरों साधन बच जाते हैं। तपश्चर्या के साथ में जमी हुई उदारता उसे सत्प्रयोजनों में लगाने की प्रेरणा भरती है। संयमी की विवेकशीलता उदारता के साथ−साथ दानशीलता की ऐसी प्रेरणा भरती है जो चरितार्थ हुए बिना रुकती ही नहीं। चैन से बैठने ही नहीं देती।

यह निराहार रहने के व्रत उपवास की साधना करने के प्रतिफल हैं। जिसने इतनी मंजिल पार कर ली उसकी “परापश्य” परा प्रज्ञा जागृत होती है और परमात्मा को देख सकने वाला तीसरा नेत्र- ज्ञानचक्षु खुलता है। फलस्वरूप वह दिख पड़ता है जिसकी ओर से विषम परायणों की आंखें बन्द रहती हैं।

व्रत उपवासों का प्रथम पाठ साधना क्षेत्र में सर्वप्रथम पढ़ाया जाता है। पूजा−पाठ, जप, तप, देव−दर्शन, नदी सरोवर स्नान आदि की शिक्षा इसके बाद की है। संयम प्रथम, उपासना पश्चात्। संयम के बाद उपासना न ही उदारता का दूसरा चरण आता है। न्यूनतम में निर्वाह। सादा जीवन उच्च विचार का अवलंबन। इतना कर गुजरने पर स्वल्प में निर्वाह करने वाला अपने साधनों से बचत करेगा ही और जहाँ उदारता तथा बचत का संयोग है वहाँ परमार्थ के लिए दान की उत्कंठा उठे बिना रह नहीं सकती। जो संयमी है, जो उदार है, जो मितव्ययी है, साथ ही जो पुरुषार्थ परायण है वह अपने साधनों का पुण्य परमार्थ में नियोजन करता ही रहेगा।

उपरोक्त दो चरण पूरे करने के उपरान्त वह भावना जग पड़ती है जिसके सहारे उपासना सम्भव है। ऐसे व्यक्ति थोड़ा कर्मकाण्ड करने पर भी विशालकाय पूजा−पाठ कर लेने का फल प्राप्त कर लेते हैं। इसके विपरीत जो केवल भजन पूजन की लकीर को पीटते रहते हैं, किन्तु गुण, कर्म, स्वभाव को उत्कृष्ट बनाने वाली संयम साधना से दूर रहते हैं, असंयमी जीवन जीते हैं। काम, क्रोध, लोभ−मोह, मद−मत्सर के भूत−प्रेम साथ लिए फिरते हैं। मात्र नाम उच्चारण अथवा कर्म काण्डों के क्रिया-कलाप से, पूजा-पत्री के उपहार उपचार भेंट करने से परमात्मा को प्राप्त करने के स्वप्न देखते रहते हैं, उन्हें निराश ही रहना पड़ता है। हमें पहले वर्णमाला पढ़नी चाहिए। बीजगणित, रेखागणित का कार्य बाद में हाथ में लेना चाहिए। तपश्चर्या, उदारता के उपरान्त ही उपासना अपनाने की सार्थकता है।


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