दुःख और सुख मिल बाँट कर हलके करें

February 1975

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दुःख और सुख को मनुष्य उपार्जित तो स्वयं करता है पर उन्हें अकेला हजम नहीं कर सकता। मिल-बाँटकर खाने से ही वे पचते और हलके होते हैं। अकेले इनका भार वहन कर सकना कठिन है।

एकाकी रोते-कलपते रहने वाला मनुष्य श्मशान में रहने वाले प्रेत-पिशाच की तरह उद्विग्न रहता है। जिसके आँसू पोंछने वाला कोई नहीं-जिसे सहानुभूति और आश्वासन के शब्द सुनने को नहीं मिलते वह अपनी घुटन में आप घुटता है और अपनी जलन में आप जलता है। यह एकाकीपन उस दुख से भी भारी पड़ता है जिसने कसक और कराह की स्थिति उत्पन्न की। दुख कष्टकर अवश्य होते हैं पर वे तब मधुर भी लगते हैं जब इस बहाने मित्रों की सहानुभूति और संवेदना उस दुखिया पर बरसती है।

आपत्ति के समय आशा-बंधाने वाले और यथासम्भव सहायता से यत्किंचित् भार हलका करने के लिए प्रयत्नशील मित्र दैवी वरदान की तरह लगते हैं। डूबते को तिनके का सहारा भी बहुत होता है। संकट की अंधेरी निशा में छोटे से दीपक की हलकी सी किरण भी अनिश्चित भटकाव को दूर कर सकती है और उबरने की राह तक पहुँचा सकती है। विपदा का सबसे बड़ा आघात, आक्रमण यह होता है कि वह हिम्मत तोड़ती और निराश बनाती है। मनुष्य दिशा भूल जाता है और उबरने की चेष्टा छोड़ बैठता है। यदि कोई इन आघात के घावों पर मरहम लगा सके तो संत्रस्त मनुष्य आगे बढ़कर विपत्ति से लड़ सकता है और क्षति पूर्ति का आधार ढूंढ़ सकता है। यों मनस्वी अपने आप भी अपने को लड़खड़ा कर गिरने से अपनी हिम्मत के बलबूते भी बचाये रह सकते हैं। किन्तु यदि कोई सच्ची सहानुभूति प्रकट करने वाला-आशा और विश्वास दिलाने वाला मित्र मिल जाय तो दुख का बोझ अनायास ही आधा रह जाता है।

हमें ऐसे विश्वासी चरित्रनिष्ठ और परिष्कृत दृष्टिकोण के मित्र तलाश करने चाहिए जो स्वयं गिरने से बचे रह सकें हों ओर दूसरों की गिरी स्थिति से उबारने की सामर्थ्य संग्रह कर सके हों। इस प्रकार के साथी केवल उन्हें ही मिलते हैं जिनने स्वयं आगे बढ़ कर समय-समय पर दूसरों के दुख बंटाये हैं जो कष्टों को बंटाने वाली करुणा से सम्पन्न हैं उनके कष्टों को बंटाने वाले सहज ही उत्पन्न होते हैं और विपत्ति का बोझ हलका करने में कन्धा लगाते हैं।

हम सभी में एक ही आत्मा समाई हुई है। एक धागे में पिरोये हुए मनकों की माला की तरह ही हम सब परस्पर जुड़े और गुँथे हुए हैं। सुख को अकेले हजम करने का प्रयत्न करने वाला अन्तरात्मा की धिक्कार का-परमात्मा के कोप का और विश्वात्मा के प्रतिशोध का भोजन बनाता है। निष्ठुरता, कृपणता और संकीर्ण स्वार्थपरता को सरकारी कानून भले ही दण्डनीय न मानता हो पर ईश्वर के कानून ऐसे व्यक्ति को पतित ही घोषित करते रहेंगे, जिसने आप ही कमाया और आप ही खाया। मिल बाँटकर खाने की नीति जिसे सुहाती नहीं-उदारता के लिए जिनकी भावना उमंगती नहीं-उसे नर-पशु से अधिक और कुछ नहीं कहा जा सकता ऐसे लोग उस आनन्द से सर्वथा वंचित रहते हैं जो मानव-जीवन का उद्देश्य समझने वाले और उदार आचरण करने वालों को सहज ही मिलता रहता है।

कपास बेच कर पैसा जमा कर लेने में बुराई कुछ नहीं- वरन् सुविधा ही रहती है। सुख को बेचकर बदले में लोक-सम्मान और आत्म-सन्तोष से अनेकों ऐसे सद्गुणों का विकास होता है जो व्यक्तित्व में प्रखर प्रतिमा उत्पन्न करते हैं। लोक-सम्मान पाकर मनुष्य जितना गौरवान्वित होता है उतना लालची के लिए कल्पना कर सकना भी सम्भव नहीं। सुख को बाँटकर खाना घाटे का काम दीखते हुए भी वस्तुतः अतिशय लाभदायक ही सिद्ध होता है।


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