विज्ञान ने अध्यात्म को अस्वीकृत कर दिया है। वह कहता है मनुष्य भी अन्य पदार्थों की तरह एक पदार्थ है। घास-पात की तरह उगता है सूख कर नष्ट हो जाता है। यही उनका आदि और यही उसका अन्त है। परलोक की, पुनर्जन्म की, कर्म-कल की बातें प्रमाण रहित हैं इसलिए उनके भय से उन कामों से हाथ नहीं रोकना चाहिए जो हमारी सुखानुभूति में सहायक होते हैं।
इस अस्वीकृति के दूरगामी परिणाम क्या होंगे यह तो समय ही बतायेगा, पर इतना आज भी प्रत्यक्ष है- कि समस्त मर्यादाओं को तोड़ कर उपभोग के लिए आतुर व्यक्ति प्रकृति के व बन्धन भी अस्वीकार कर बैठा जो उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को स्थिर बनाये रखने के लिए आवश्यक थे। फलतः आधि और व्याधि उसे अपने चंगुल में जकड़ती चली जा रही हैं। शरीर खोखले हो चले और मन का संतुलन बिगड़ कर रुग्णता का जिस तेजी से शिकार होता जा रहा है उसे देखकर विज्ञान द्वारा आविष्कृत चिकित्सा शास्त्र और आहार शास्त्र भी अपनी व्यर्थता स्वीकार करने लगे हैं। समाज को जो कुछ भुगतना पड़ रहा है वह और भी अधिक दुखद है। अपराध एक प्रकार से शानदार कृत्य बन चले हैं। चातुर्य और आतंक का परिचय देने वाला सराहा जाता है- क्योंकि उसने किसी भी प्रकार लाभान्वित होने में सफलता प्राप्त कर ली। यह प्रवाह समाज की उन नीवों को खोखला करता चला जा रहा है, जिस पर कि उसका विशाल भवन खड़ा किया गया था। व्यक्ति जब सज्जनता शालीनता और सद्भावना को प्रत्यक्ष लाभ में बाधक मानेगा तो उन्हें अंगीकार क्यों करेगा ? ऐसी दशा में निरंकुश उच्छृंखलता के लिए उसे खुली छूट मिलेगी ही चतुर व्यक्ति इस नये आधार को अपनाकर तत्काल किसी कदर लाभान्वित हो भी सकता है पर संसार में से वे आधार उठे जा रहे हैं जिन्हें प्रेम, विश्वास, सद्भाव, सौजन्य एवं आत्म-भाव आदि नामों से पुकारा जाता रहा है। चूंकि यह सब अप्रत्यक्ष है इनके द्वारा तत्काल इन्द्रिय-सुख मिलता दिखाई नहीं पड़ता। ऐसी दशा में उन्हें अपनाने की मूर्खता करने के लिए कोई तैयार नहीं। परिणाम स्पष्ट है मनुष्यों को परस्पर सघन सहयोग के बन्धनों में बाँधे रहने वाले-उदार परंपराएं बनाये रहने वाले सभी सूत्र क्रमशः टूटते जा रहे हैं। परिवार तक उसकी लपेट में आ गये। पति-पत्नि, भाई-भाई, पिता-पुत्र, भाई-बहिन के पवित्र सम्बन्ध अब क्रमशः उपयोगिता के आधार पर, उतनी सीमा तक, उतने समय तक स्वीकार किये जाते हैं जब तक उनसे सबल पक्ष को लाभ दिखाई देता है। दुर्बल का भार वहन करके कोई अपने को घाटे में क्यों रखें ? इस सूत्र से परिवार के जिन दुर्बल सदस्यों को पोषण मिलता था वह अब बन्द होता चला जाता है। बालक, वृद्ध, बीमार, दुर्बल, कुरूप, अपंग, कम कमाने वाले, मन्द बुद्धि सदस्य अब परिवार में पोषण एवं स्नेह, सहयोग प्राप्त करने के अनाधिकारी बनते जाते हैं। उन्हें अपनी मौत मरना पड़ता। सम्पन्न देशों की सरकारें उस पिछड़े वर्ग का भार उठा लेती हैं पर भारत जैसे गरीब देशों की सरकारें वैसा भी नहीं कर सकतीं। ऐसी दशा में उन्हें अनाथ और अपंगों की दुर्दशा में दम घुटने की यंत्रणा सहते हुए जीवित मृतकों की पंक्ति में खड़ा होना पड़ता है और जब तक मौत स्वीकार न करे तब तक साँस लेते रहना पड़ता है। बेशक, सबल पक्ष को अपना भार हलका लगता है और वह अधिक सुखोपभोग कर सकता है।
समाज जिस आधार पर ‘समाज’ कहा जाता था वह मूल्य अब ध्वस्त हो रहे हैं। अब हम भीड़ में, मेले में, रह रहे हैं जहाँ चेहरे तो बहुत दीखते हैं उनमें से कितने ही आकर्षक भी लगते हैं पर इनमें अपना कोई नहीं-सच तो यह है कि कोई किसी का नहीं। शुष्क शिष्टाचार अब सभ्यता का अंग भर रह गया है। थेंक्यू, ओ.के. प्लीज, सौरी आदि रटे रटाये शब्द जीभ की नोंक पर नाचते रहते हैं। वे कितने ही नीरस, कितने बनावटी, कितने बाजारू होते हैं यह देखते ही बनता है। लाइन में खड़े होना- समय की पाबन्दी, सफाई आदि कई तरीके ऐसे भी हैं जिन्हें पसन्द किया जाना चाहिए और समय की विकसित सभ्यता का नाम दिया जाना चाहिए। इससे आगे गहराई में उतरेंगे तो सूनापन, खीज, आशंका, अनिश्चितता, अविश्वास और एकाकीपन से ही हर व्यक्ति का अन्तःकरण घिरा होगा वह अनाथ सभीत मृग शावक की तरह चारों ओर नजर उठाकर अपने को शेषकों से ही घिरा देखेगा। ऐसे मरुस्थल में उसे अपना अस्तित्व फँसा धँसा दिखाई देगा, जहाँ उसका अपना कोई नहीं है, जहाँ कठिन समय में वह किसी से किसी प्रकार के सहयोग की आशा नहीं कर सकता।
अपराधों की प्रवृत्ति बेतरह बढ़ रही है। अनपढ़ लोग उसे फूहड़ ढंग से करते हैं और चतुर लोग उसे चातुर्य का रंग चढ़ा कर प्रयोग में लाते हैं। खाद्य पदार्थों में मिलावट, कम तोलना, उठाईगीरी जैसे धन्धे निचले वर्ग के लोग करते हैं। ऊपर के लोग इसमें लाभ कम और बदनामी अधिक देखते हैं इसलिए वे ऐसे जाल बुनते हैं जिनमें एक साथ ढेरों पकड़ा जा सके एक-एक मछली पकड़ने के लिए धूप में बाँस की वंशी पकड़े बैठे रहना उन्हें मूर्खतापूर्ण लगता है। वे बड़े हैं इसलिए बड़ा लाभ कमाने के लिए बड़ी दुरभिसन्धि रचते हैं। अब अपराध एक फैशन है जिसे अपनाकर कोई लज्जित नहीं होता वरन् अपनी उद्दण्ड चतुरता की दाद मिलने की आशा करता है। जो अपराध न कर सके वह बुद्धू, प्रतिगामी, डरपोक आदि न जाने क्या-क्या नाम धराता है। इन परिस्थितियों में वह सामाजिक शालीनता कैसे जीवित रह सकती है, जिसके आधार पर उसके सदस्य कर्तव्य परायण नागरिक, आदर्शवादी उदार चेता एवं महामानव उत्पन्न होते थे और सर्वतोमुखी प्रगति का, सुख-शान्ति भरा सतयुगी वातावरण उत्पन्न करते थे। अवाँछनीय सामाजिक परिस्थितियाँ केवल अनैतिक स्तर के व्यक्ति ही पैदा कर सकते हैं। यह प्रत्यक्ष है, बड़े आदमी बढ़ रहे हैं और महामानव अदृश्य होते चले जा रहे हैं। अब ऐसे व्यक्तियों को ढूंढ़ निकालना दुष्कर है जिन्हें सच्चे अर्थों में आदर्शवादी कहा जा सके। धूर्त, दुष्ट, विलासी और अपराधी प्रवृत्ति के लोग जिस समाज में भरे होंगे उसकी स्थिति कितनी दयनीय हो सकती है इसे हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं।
विज्ञान ने हमें अगणित उपलब्धियाँ प्रदान की हैं। सुख-साधनों के पर्वत सामने खड़े कर दिये हैं फिर भी व्यक्ति को निराश, हारा, टूटा और व्यथित ही देखा जाता है। समाज के सामने इतनी बड़ी कठिनाइयाँ, समस्याएं, उलझनें, विभीषिकाएं, विकृतियाँ खड़ी हैं कि राजनेता यहाँ किंकर्तव्यविमूढ़ हो चले हैं, सुधार और सुव्यवस्था के उसके सारे प्रयास निष्फल होते जा रहे हैं। वे समझ नहीं पाते कि सुरक्षा और सुव्यवस्था की गुत्थी कैसे सुलझाई जाये। रस्सी को दो हाथ जोड़ते हैं, चार हाथ टूट जाती है।
कैसी विडम्बना है कि सुखोपभोग के प्रचुर साधनों के साथ-साथ सार्वभौमिक भय और अविश्वास का आतंक भी बढ़ता चला जा रहा है। एक ओर प्रसन्नता देने वाली वस्तुएं जमा हो रही हैं दूसरी ओर सर्वभक्षी विभीषिकाएं हमारे अस्तित्व को निगल जाने के लिए मुँह फाड़े खड़ी हैं।
क्या यही स्थिति बनी रहेगी ? हम असहाय की तरह महाविनाश के गर्त में इसी गति से बढ़ते चले जायेंगे ? हमारा विश्वास है कि ऐसा नहीं हो सकता अतीत का इतिहास बताता है कि मानव जाति के सामने ऐसे अनेकानेक अवसर आये हैं जिसमें उसके सामने महाविनाश के संकट उत्पन्न हुए हैं और अस्तित्व की चुनौती आई है। ऐसे हर अवसर पर मनुष्य की आत्मा ने अपनी तेजस्विता का परिचय दिया है और प्रवाह को उलट कर नया मोड़ दिया है। भगवान के अवतारों से लेकर सुधारवादी एवं क्राँतिकारी महापुरुषों तक की समस्त गतिविधियाँ इसी प्रयोजन के लिए प्रादुर्भूत हुई हैं कि अवाँछनीयता की चुनौती स्वीकार की जाय और पतन को उत्थान में उलट दिया जाय। इतिहास में ऐसे अगणित अवसर विद्यमान हैं जिनमें प्रचण्ड असुरता के कराल काल जैसे दिखने वाले दाँत और नाखून तोड़कर रख दिये गये हैं और कालिया नाग को नाथ कर उसे निर्विष खिलौना मात्र बना दिया गया है।
विज्ञान एवं बुद्धिवाद भूतकाल में भी रहा है। उसका स्वागत, समर्थन और उपयोग यथोचित रीति से किया गया है, पर ध्यान रखा गया है कि इस आग को स्वच्छन्द न छोड़ा जाय इसे ससीम रखा जाय और सदुपयोग के लिए ही प्रयुक्त किया जाय। आज की भूल यह हुई कि धर्म और अध्यात्म के इस अंकुश को ही तोड़ दिया गया जिससे कि भौतिक प्रगति के मदोन्मत्त गजराज को काबू में रखा जाता था और उससे शानदार प्रयोजनों को पूरा कराया जाता था। अब यह निरंकुश गजराज अपने विराने का बिना ध्यान रखे सब कुछ कुचल डालने के लिए आकुल व्याकुल हो रहा है।
मनुष्य आखिर ‘मनुष्य’ है वह सहज ही मरण स्वीकार नहीं करेगा। भूल को समझना और सुधारना उसकी सहज प्रकृति है। आवेश में कई बार वह कुपथ पर भी चल लेता है पर जब कांटे लगते हैं और मार्ग अवरुद्ध दीखता है तो लौटने में भी संकोच नहीं करता। अगले दिनों यही होने जा रहा है। निरंकुश विज्ञान ने अपनी चमत्कार दिखा दिया और उसका परिणाम देख लिया। अब ज्ञान की पारी है। उसका प्रभाव भी अगले दिनों देखने को मिलेगा। बागी हाथी को पकड़ने के लिए प्रशिक्षित हाथी भेजे जाते हैं। भोगवादी, नास्तिकता समर्थक बुद्धिवाद को तत्वज्ञान के उस दिग्गजों द्वारा दबोचा जायेगा जो ऐसे आपत्ति काल आने पर विसंगतियों का शमन करने के अभ्यस्त रहे हैं।
भौतिकवादी उच्छृंखल बुद्धिवाद की टक्कर में अगले ही दिनों आदर्शवादी तत्वज्ञान की सेनाएं खड़ी होंगी। लगता है अगले ही दिनों एक प्रचण्ड तूफान ऐसे आन्दोलन के रूप में खड़ा होगा जिसे पुराने धार्मिक या अध्यात्म के नाम से न सही पुनर्निर्माण के अन्य किसी नाम से पुकारा जाय किन्तु आवश्यकता उसी प्रयोजन को पूरा करने की करेगा। भारतीय संस्कृति के नाम से न सही, विश्व संस्कृति या मानव संस्कृति के नाम से सही एक ऐसी पुनःस्थापना अवश्य होगी जिससे प्रस्तुत विषाक्तता का निराकरण हो सके। इस बिखरे हुए कालकूट को समेट कर अपने गले में भर लेने वाला कोई न कोई शिव अभियान अवश्य प्रकट होगा।
अन्धकार कहीं से भी क्यों न फैलाया गया हो, प्रकाश की किरणें सदा पूर्व दिशा से ही उदय हुई हैं। भारत एक देश नहीं, मानवी संस्कृति का एक सेतु है जिससे टकरा कर प्रत्येक तूफान को पीछे लौटना पड़ा है। अगले दिनों मानवी गरिमा को विनाश के गर्त से उबारने के लिए भारत अपनी महती भूमिका सम्पादित करेगा। भारत अपने नवोदय के रूप में फिर उभरेगा और वह देशकाल की समस्त सीमाओं को लाँघता हुआ विश्वव्यापी तपन को शान्त करने वाली अमृत वर्षा करेगा।
यह सपना नहीं एक तथ्य है कि अगले दिनों भारत अपनी खोई हुई आत्मा को पुनः कहीं न कहीं से खीज निकालेगा। इस पृथ्वी पर ऋषियों और देवताओं के वर्चस्व वाला युग पुनः अवतरित होगा - भारत अपने तत्वज्ञान का युगान्तरीय आविष्कार पुनः करेगा, यह आशा लगाये मानवता आज भी सजल नेत्रों से प्रतीक्षा कर रही है। यह विश्वास नहीं होता कि जो कुछ खो दिया गया वह पुनः प्राप्त न हो सकेगा। नव जागरण का प्रभात हमें यह आश्वासन देता प्रतीत होता है कि अन्धकार के अब पैर जमे न रह सकेंगे। संसार को ज्योर्तिमय आलोक से लाभान्वित होने का अवसर फिर आ गया।
दूसरों के क्या अनुदान विश्व मानव को मिले। इसका लेखा-जोखा रखना अन्य लोगों का काम है। भारत की आत्मा सदा की भाँति इन विषम परिस्थितियों में मूक दर्शक न रहेगी वह उभरेगी। भारतीय संस्कृति अगले दिनों विश्व संस्कृति के उस रूप में उभरेगी जिसके आधार पर मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न साकार हो सके।