अपनों से अपनी बात

February 1975

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नवयुग निर्माण अभियान का शंखनाद विगत 38 वर्ष से ‘अखण्ड-ज्योति’ मिशन के रूप में निनादित हो रहा है और उसकी प्रतिध्वनि से वातावरण गूँज रहा है, इस हम सब अपने इन्हीं आँख, कानों से देख सुन रहे हैं। मनुष्य मनुष्य बनकर रहे - पेट और प्रजनन के लिए कृमि-कीटकों की तरह न जिये - वरन् उस लक्ष्य की ओर बढ़े जिसके लिए उसका महान अवतरण हुआ है इस सन्देश को इस लम्बी अवधि में जन-मानस में उतारा और हृदयंगम कराया गया है। यह प्रेरणा निष्फल नहीं गई। उससे प्रेरित होकर कोटि-कोटि मनुष्यों ने आत्म-निरीक्षण किया है, अपने को सुधारा और बनाया है। आत्म-निरीक्षण किया है, अपने को सुधारा और बनाया है। आत्म विकास की दिशा में बढ़ते हुए कितनों ने अपना चोला नर से बदलकर नारायण का पहना है - कितने पुरुष पुरुषोत्तम बने हैं - उसका लेखा-जोखा लेने से सहज ही यह विश्वास होता है कि अखण्ड-ज्योति का ज्वलन्त आलोक अन्धकार को प्रकाश में बदलने की अपनी साधना में बहुत हद तक सफल रहा है। इसके 38 वर्ष निरर्थक नहीं गये।

बसन्त पर्व पर अखण्ड-ज्योति का 38 वाँ जन्मोत्सव मनाते हुए उसके परिवार का हर सदस्य गर्व और गौरव अनुभव कर सकता है - सन्तोष और मुस्कान व्यक्त कर सकता है कि हम लोगों ने मिल जुलकर सही दिशा में सही कदम बढ़ाये और उसके सही परिणाम निकले।

लोक परम्परा के अनुरूप इसी 16 फरवरी में अपने मिशन का जन्मोत्सव सदा की भाँति इस वर्ष भी मनाया जा रहा है। मानवी प्रकृति के अनुसार श्रेष्ठ अवतरणों की जयन्तियाँ मनाने का प्रचलन है। यह परम्परा उचित है और आवश्यक भी। प्रसुप्त चेतना को इस स्रोत से अभिनव प्रेरणा प्राप्त करने का अवसर मिलता है, जिसका कि अवतरण दिन मनाया गया। अखण्ड-ज्योति मिशन ने हर वर्ष नये उत्साह के साथ नये कदम बढ़ाये हैं और उनके सत्परिणाम एक से एक बढ़कर सामने आये हैं।

16 फरवरी को कुछ विशेष कठिनाई ग्रसित अथवा कुछ बहुत शिथिल लोगों को छोड़कर प्रायः 99 प्रतिशत परिजन अपने -अपने यहाँ किसी न किसी रूप में उस दिन हर्षोत्सव की व्यवस्था करेंगे। जहाँ सामूहिक रूप में सम्भव होगा, वहाँ प्रभात-फेरी, सामूहिक जप, हवन, प्रवचन संगीत, भजन, कीर्तन, दीपदान आदि की तैयारी की जा रही है। पत्रिका के नये सदस्य बनाना, पुरानों से चन्दा इकट्ठा करके भिजवाना यह कर्मठ कार्यकर्ताओं के लिए -

अध्यात्म सिद्धान्तों का समर्थन ही नहीं अनुकरण भी शाखा संचालकों के लिए हर वर्ष का एक सामयिक परम पवित्र कर्तव्य है। तो भी उसे बसन्त पर्व की श्रद्धांजलि के रूप में गिना गया है। हर वर्ष इसके लिए प्रतिस्पर्धा होती है - लोग इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हैं और प्रतियोगिता में एक दूसरे से बाजी मारने वाले दंगल का रूप देते हैं। यह स्वस्थ परम्परा एवं भावभरी प्रतियोगिता है, इसे सराहा ही जा सकता है। यों ‘एक से दस’ का नारा पुराना है, पर इस वर्ष उस पर विशेष रूप से बल दिया गया है और कहा गया है कि कोई पत्रिका पन्ने उलटकर रद्दी में नहीं फेंकी जानी चाहिए वरन् उसके कम से कम दस अनुपाठक अवश्य होने चाहिए। जिसने मंगाई उसी ने पढ़ी तो समझना चाहिए एक वृक्ष पर एक ही फल लगा। ऐसा कहीं भी नहीं होना चाहिए। यदि एक लाख ग्राहक है तो उसके पाठक दस लाख से कम नहीं होने चाहिए। जब तक रेडियो से कई व्यक्ति समाचार सुन सकते हैं तो एक अखण्ड ज्योति के कई पाठक क्यों नहीं होने चाहिए। घर के-बाहर के सभी क्षेत्रों में इस विचारधारा का-ज्ञान-गंगा का लाभ मिलना चाहिए।

सबसे महत्वपूर्ण तथ्य बसन्त पर्व के सन्देश के रूप में यह समझा जाना चाहिए-जिस लक्ष्य को लेकर अखण्ड-ज्योति पिछले 38 वर्षों से चल रही है उसे ठीक तरह समझने के लिये प्रयत्न किया जाय और यदि वह सही प्रतीत हो तो मात्र समर्थन देने तक सीमित न रहकर उसे व्यावहारिक जीवन में उतारने का साहस जुटाया जाय।

तत्व-ज्ञान इन दिनों चर्चा का-कथन श्रवण का एक विषय बनकर रह गया हैं जबकि उसकी सार्थकता तब बनती है जब उसे निष्ठा बनकर व्यावहारिक जीवन में उतरने का साहस जुटाना चाहिए। यदि ऐसा हो सके तो समझना चाहिए इस वर्ष अधिक सार्थक रूप से बसन्त पर्व मनाया गया।

अखण्ड - ज्योति अपने जन्म दिन से लेकर अन्तिम श्वाँस तक एक ही सत्य को प्रतिपादित करती रहेगी कि मनुष्य सम्पत्तियों से नहीं-विभूतियों से ही सुखी और समुन्नत हो सकता है। गुण, कर्म, स्वभाव को उच्च स्तरीय बनाये बिना-दृष्टिकोण में उत्कृष्टता का समावेश किये बिना-कर्त्तव्य को आदर्शवादी बनाये बिना आत्मिक उत्कर्ष को प्राप्त कर सकता तो दूर प्रचुर सम्पत्ति के होते हुए भी चैन से नहीं रहा जा सकता। अस्तु हमारे प्रयत्न आत्म संशोधन और आत्म-निर्माण की दिशा में बढ़ने चाहिए। यही सबसे बड़ी दूरदर्शिता है। उलझी हुई अगणित समस्याओं का समाधान इस एक ही सूत्र में सन्निहित है। सर्वतोमुखी प्रगति के एकोंएक आधार इसी मार्ग पर चलने वाले को मिलते हैं। व्यक्ति की अन्तःचेतना निकृष्ट स्तर की बनी रहे तो कुबेर जैसा धनी और इन्द्र जैसा समर्थ होते हुए भी उसे निरन्तर असन्तोष एवं विक्षोभ की आग में जलते रहना पड़ेगा।

संक्षेप में अखण्ड-ज्योति के अब तक के समस्त वाचन का यही साराँश हैं अध्यात्म और धर्म का विशाल कलेवर इसी तथ्य को हृदयंगम कराने के लिये खड़ा किया गया है। आस्तिकता-आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता की त्रिवेणी में स्नान करके ही मानवी चेतना धन्य बनती है।

अध्यात्म की दो भुजा है एक योग दूसरा तप। योग का अर्थ है अपनी कामनाएँ, लिप्साएँ, तृष्णाएँ, वासनाएँ सब कुछ को ईश्वर रूपी समष्टि में-उत्कृष्ट आदर्शवादिता में जोड़ देना-व्यक्तिवाद को समूहवाद में बदल देना। तृष्णा के अनगढ़ लोहे को संयम, अपरिग्रह की आग में पकाकर बहुमूल्य लौह भस्म बना देना। मनोकामनाओं को पूर्ण करने के लिए उन्हें समाप्त अथवा परिष्कृत करने के लिये अध्यात्म का सहारा लिया जाता है। तृष्णाएँ असीम है। एक व्यक्ति की कामनाएँ समस्त देवता मिलकर भी पूरी नहीं कर सकते। संसार में जितनी सामग्री है वह एक व्यक्ति की इच्छाएं पूरा कर सकने में भी स्वल्प है। एक की पूर्ति होते ही नई हजार उठ खड़ी होती है। उनकी प्राप्ति ही नहीं सुरक्षा भी अत्यधिक कष्टसाध्य है। फिर वह जंजाल इतना बड़ा है कि उसमें उलझा हुआ व्यक्ति जीवन-लक्ष्य की ओर चलना तो दूर अपनी व्यस्तता के कारण उस दिशा में कुछ सोच तक नहीं सकता। अस्तु आत्म-कल्याण की आवश्यकता अनुभव करने वाले को पहला कदम न्यूनतम निर्वाह के साधन मिलने पर सन्तुष्ट रहना और अपनी बची हुई शक्तियों को सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में लगाना। अध्यात्म का प्रतिफल मनोकामनाओं की पूर्ति नहीं वरन् उस अनावश्यक जंजाल की मन क्षेत्र में जड़ कट जाना है। ऐसे ही लोग आप्तकाम कहलाते हैं। उन्हीं को अपनी दिव्यता विकसित करने का अन्तरात्मा को निर्मल बनाने का अवसर मिलता है। ऐसे लोगों को ही अपने भीतर ईश्वर की झाँकी होती है। वे ही अपना ओर दूसरों का कल्याण कर सकने में समर्थ बनते हैं।

उपरोक्त पंक्तियों में अध्यात्म की एक धारा योग का उल्लेख हुआ। नाला अपने आप को गंगा में मिलाकर गंगा बनता है। भक्त अपनी समस्त आकांक्षाएं ईश्वर के आदेशों में घुलाकर भगवान बनता है। यह ईश्वर को अपनी इच्छानुसार नहीं नचाना चाहता वरन् उसकी इच्छानुसार नाचना चाहता है। अध्यात्म की दूसरी धारा है तप। तप का अर्थ है तपना, कष्ट सहना। कुछ लोग धूप में खड़ा होना, ठण्ड में नहाना, नंगे बदन, नंगे पाँव रहना, मौन रहना, अन्न जल ग्रहण न करना आदि शारीरिक कष्ट सहन करने को तप समझते हैं और सोचते हैं इन बातों से दया-द्रवित होकर ईश्वर हमारे प्रति कृपालु हो जायेंगे। ऐसा सोचना ईश्वर जैसी महान और नियामक सत्ता के सम्बन्ध में ओछा दृष्टिकोण अपनाना है। अकारण शारीरिक कष्ट सहने वालों से - शरीर को हठपूर्वक जलाने वालों से ईश्वर को क्यों और क्या सहानुभूति हो सकती है ? तप के नाम पर इन दिनों इसी प्रकार की अन्ध-मान्यताओं का बोलबाला है।

तप का वास्तविक अर्थ है- संसार में संव्याप्त पीड़ा और पतन की निवृत्ति के लिये अपनी सुख-सम्पदा का बड़े से बड़ा भाग दे डालना। दूसरों पर बखेर देना। स्वभावतः दुख बँटाने वाले और सुख बाँटने वाले लोग भौतिक दृष्टि से गरीबों जैसे स्तर पर निर्वाह करते हैं। अमीरी का उपभोग तो केवल वे पाषाण हृदय कर सकते हैं जिन्हें दूसरों के कष्टों से कोई सहानुभूति नहीं। जब समस्त मानव जाति के लोग हमारे कुटुम्बी हैं तो हमारा निर्वाह स्वभावतः अपने भाइयों के स्तर पर होना चाहिए। गरीबी में रहने से न किसी का स्वास्थ्य खराब होता है और न अन्य दिशा में हानि होती है। ऋषि जीवन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। प्राचीनकाल के साधु और ब्राह्मण अपना निर्वाह गरीबों जैसा करते थे ताकि उस उपभोग की बचत का लाभ समाज को ऊंचा उठाने में-सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में-पीड़ा और पतन के निराकरण में लगाया जा सकना सम्भव हो सके। ऐसा तपस्वी दृष्टिकोण अपनाकर जीवन की गतिविधियों का निर्धारण करने वाले को सच्चे अर्थों में तपस्वी कह सकते हैं। ऐसे लोगों में उन सभी दिव्य शक्तियों का अवतरण हो सकता है जिनका वर्णन योग और तप के माहात्म्यों के संदर्भ में लिखा गया या कहा गया है।

आज का हमारा धर्म और अध्यात्म सचमुच उतना ही घिनौना है जिसकी सड़ांध में सहज ही नास्तिकता जैसी महामारियाँ उपजें। धर्म क्या है- अमुक वंश, अमुक वेश के लोगों को लूट-पाट का खुला छूट पत्र। धर्म क्या है- कुरीतियों मूढ़ताओं, रूढ़ियों, भ्रांतियों का पुलिंदा। अध्यात्म क्या है- थोड़ी-सी पूजा-पाठ की विडम्बना रच कर देवताओं सहित ईश्वर को अपना वंशवर्ती बना लेने और उनसे उचित-अनुचित मनोकामनाएं पूरी करने के लिए बन्दर की तरह नचाने का दुःस्वप्न। आज का अध्यात्म लगभग जादू मन्तर के स्तर पर पहुँच गया है जिसके अनुसार कुछ अनगढ़ शब्दों का उच्चारण और कुछ वस्तुओं की औंधी-सीधी, उलट-पुलट। इन्हीं क्रिया कृत्यों की बाल क्रीडा करने वाले लोग शेखचिल्ली जैसी उड़ानों के साथ किसी कल्पना लोक में विचरण करते रहते हैं और चमत्कारी ऋद्धि-सिद्धियों के मन-मोदक खाते रहते हैं। इस सनकी समुदाय के हाथ क्या कुछ लग सकता था-लगा भी नहीं, वे टूटे हारे लोग नकटा सम्प्रदाय के गुण गाते रहते हैं और अपनी भूल पर पर्दा डालते रहते हैं। यही है आज के तथाकथित अध्यात्मवादियों की नंगी तस्वीर जिसे देखकर हमारा शिर लज्जा से नीचे झुक जाता है और रुलाई आती है। इतने लोगों का इतना श्रम, समय, धन एवं मन यदि सच्च अध्यात्म के लिये नियोजित हुआ होता तो वे स्वयं धन्य बन सकते थे और अपने प्रकाश से सारे वातावरण में आलोक भर सकते थे।

मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा, सबसे बड़ी सफलता आत्मिक उत्कर्ष रूप से बनता है। यह महानता परलोक के ही लिये उपयोगी नहीं है इस लोक में भी उपार्जनकर्ता को देवोपम स्तर पर ले जाकर रख देती है। भले ही उसके पास भौतिक साधन स्वल्प हों, पर उसके स्थान पर जो आत्म कमाई उसके पास संग्रहित रहती है वह क्षण भंगुर सम्पत्तियों की तुलना में हजारों, लाखों गुना हर्षोल्लास, गौरव वर्चस्व प्रदान करती है। ऐसा व्यक्ति जहाँ भी रहता है वहीं स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न करता है। उसके भीतर की सुगन्ध चन्दन वृक्ष की तरह दूर दूर तक फैलती है और समीपवर्ती झाड़-झंखाड़ों को भी सुगन्ध युक्त कर देती है। मनुष्य में देवत्व का उदय कोई कल्पना नहीं है। स्वयं प्रकाशित और समीपवर्ती क्षेत्र को प्रकाशित करने वाला व्यक्ति सच्चे अर्थों में देव है। उसे किसी देवलोक में जाने की अपेक्षा नहीं रहती क्योंकि जहाँ कहीं भी उसका रहना होता है; वहाँ सहज ही देव वातावरण बनकर खड़ा होता है। अध्यात्म किसी को स्वर्ग में भेजता नहीं वरन् साधक को कहीं भी स्वर्ग का सृजन कर लेने की सामर्थ्य प्रदान करता है। अस्तु हमें अध्यात्म की गरिमा समझनी चाहिए और उसकी उपलब्धि के लिए धन, बल, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि संग्रह करने में भी अधिक ध्यान देना चाहिए। शरीर-गत वासनाएँ और मनोगत तृष्णाएँ अपनी तृप्ति माँगती हैं और उसके लिए हमारा सारा समय, श्रम एवं मनोयोग हथिया लेती है। आत्मा की भूख और पुकार की और नितान्त उपेक्षा बढ़ती जाती है; उसके क्षुधार्त रहने से कितनी क्षति उठानी पड़ती है उसे हम वासना, तृष्णा के गुलाम नर कीटक देख समझ ही नहीं पाते। हमारी दृष्टि और दिशा बदली जानी चाहिए।

अखण्ड-ज्योति इन 39 वर्षों में यह बताती सिखाती रही है कि आध्यात्मिक उद्देश्य का एक आरम्भिक चरण उपासना अवश्य है, पर उतने भर से लक्ष्य की प्राप्त नहीं हो सकती। पूजा करते रहने भर से किसी को भी आत्मबल नहीं मिल सकता। इसके लिए जीवन साधना अभीष्ट है। हमारी आस्थाएँ विचारणाएँ गतिविधियाँ तीनों ही उस स्तर तक परिष्कृत होनी चाहिए जिसे उत्कृष्ट आदर्शवादिता के नाम से कहा समझा जा सकता है। साधना व्यक्तित्व के अन्तरंग और बहिरंग स्वरूप में काया-कल्प उपस्थित करती है। दुनिया वाले जिस तरह सोचते और जिस राह पर चलते हैं। उससे अध्यात्मवादी की दिशा इतनी भिन्न होती है कि गीतकार को योगी और भोगी लोगों में दिन रात जितना अन्तर बताना पड़ा। गीता में एक जगह आता है जब दुनिया सोती है तब योगी जगता है। जब दुनिया जगती है तब योगी सोता है। अलंकारित रूप से संकेत यह है कि पेट और प्रजनन के लिए मरने, खपने वाले अधम नर-पशुओं से भरी हुई इस दुनिया में योगी की गड़रिये की भूमिका प्रस्तुत करनी चाहिए। उनके पीछे नहीं चलना चाहिए वरन् उन अन्धी भेड़ों को अपनी लाठी से हाँकने का प्रयास करना चाहिए। लोगों की सलाह नहीं चाहिए वरन् उन्हें अपनी सलाह पर चलने की जिम्मेदारी सम्भालनी चाहिए।

अखण्ड ज्योति ने अपनी प्रिय परिजनों को सदा से यह कहा है- लोग बड़े निकम्मे हैं- लोक-प्रवाह पतन और नरक की दिशा में बह रहा है। तुम इनके साथ मत चलो-इनके प्रवाह में मत बहो- इनकी सलाह मत मानो अन्यथा इनके साथ-साथ तुम भी उस गर्त में औंधे मुँह गिरोगे जिसमें से उबरना अति कठिन है। लोग प्रशंसा करें तो समझना तुम किसी निन्दनीय आधार को पकड़े खड़े हो। लोग उपहास उड़ायें तो समझना, तुमने विवेकशीलता का परिचय देना आरम्भ कर दिया। मछली जल की धारा चीरकर उलटी चलने का साहस करती है तुम लोक-प्रवाह से-उलटे वही। अपना आदर्श उपस्थित करो और प्रकाश स्तम्भ बनो। माया और भ्रांति का सबसे बड़ा लक्षण ग्रह है कि मनुष्य लोगों का मुँह तके- उनसे प्रशंसा सुनने की आशा करे। लोगों ने कभी किसी को अच्छी सलाह नहीं दी। किसी के स्वजन सम्बन्धी कदाचित ही किसी को महान बनने का परामर्श देते हों। उनको बड़प्पन पसन्द है, भले ही वह कितने ही अवाँछनीय तरीकों से उपार्जित क्यों न किया गया हो जिसे ‘महान’ बनना है उसे पहला कदम यहाँ से उठाना पड़ेगा कि अपनी अन्तरात्मा को-अपने भगवान को और आदर्शवादी परम्पराओं के परामर्श को पर्याप्त मानें। जहाँ यह तीनों मिल सकें वहाँ फिर लोगों की सलाह को सर्वथा उपेक्षित करने का साहस सँजोलें। इन दिनों इससे कम में कोई सच्चा आध्यात्मवादी नहीं बन सकता। आत्मबल का अर्थ है- दिव्य प्रयोजनों के लिए बढ़ चलने के समस्त अवरोधों को कुचल सकने वाला प्रचण्ड शौर्य और अटूट साहस। हमें आत्मबल सलाह करना चाहिए और देव-मानव की भूमिका सम्पादित करने के लिए आगे बढ़ना चाहिए।

पिछले पृष्ठों पर संक्षेप में यह बता दिया गया है कि पूरे 39 वर्षों में अखण्ड-ज्योति ने सनातन अध्यात्म तत्व-ज्ञान को किस प्रकार अनेक तर्क, उदाहरण, प्रमाण और आधार प्रस्तुत करते हुए स्वजनों के सामने रखा है। यदि 39 वर्ष के अंकों को निचोड़ा जाय तो उसमें से सार तत्व की इतनी ही बूँदें मिलेंगी जिन्हें इन पृष्ठों पर अंकित कर दिया गया है।

प्रसन्नता की बात है कि विचारशील वर्ग द्वारा सैद्धान्तिक रूप से इसे सही माना गया। प्रतिपादन की यथार्थता को सराहा गया। इस पसन्दगी और समर्थन का ही प्रभाव है कि अखण्ड ज्योति इतनी बड़ी संख्या में लोकप्रिय हो सकी और उसकी अनुवाद रूप में अँग्रेजी, गुजराती, मराठी, उड़िया आदि भाषाओं में दूसरी पत्रिकाएँ, प्रकाशित करनी पड़ी। लाखों व्यक्ति अपने को युग-निर्माण मिशन का अनुयायी कहने लगे।

सफलता का प्रथम चरण समर्थन के रूप में सामने आया यह सन्तोष की बात है, पर इससे कुछ अधिक प्रयोजन सिद्ध न होगा। बात तब बनेगी जब लोग उस राह पर चलना आरम्भ करें। कुछ आध्यात्मवादी आगे आयें और बतायें कि इस क्षेत्र में प्रवेश करने वाले देव मानव आखिर होते कैसे है। इस जीवन्त प्रतिभाओं के दर्शन करके ही लोग गहरी प्रेरणा प्राप्त करेंगे और उनके सान्निध्य में आकर अपने को उस साँचे में ढालने का प्रयत्न करेंगे। समर्थन को साकार होने के लिए आवश्यक है कि उस महान आदर्श को लोग अपने व्यवहार में उतारें और प्रेरणा की प्रत्यक्ष प्रतिमा बनकर दूसरों को अनुगमन का साहस प्रदान करें।

स्वजनों ने इस दिशा में कुछ-कुछ साहस भी किया है। न किया होता तो इतना बड़ा संगठन और उसकी उत्साहवर्धक गतिविधियाँ कैसे चल सकी होती। यदाकदा थोड़ा समय और थोड़ा पैसा खर्च कर देने से भी बूँद-बूँद घट भरता है और उस सम्मिलित प्रयास के फलस्वरूप कुछ न कुछ हलचल पैदा होती है। अभी उतना ही होता रहा है। ऐसे साहसी लोग उँगलियों गिनने जितने ही आगे आये हैं और अपने को लोभ, मोह की गहरी दलदल में से निकाल कर अपनी आन्तरिक विभूतियों और भौतिक सम्पत्तियों का इतना अंश आदर्श निष्ठा के लिए समर्पित कर सके जिससे उनकी साहसिकता सिद्ध होती है - जिसे देखकर दूसरों में अनुगमन की प्रेरणा दे सकने वाला प्रकाश उत्पन्न हो सके।

अखण्ड परिजन इस बसन्त पर्व पर इस दिशा में विशेष रूप से विचार करें कि क्या वे सच्चे अध्यात्म के सच्चे अनुयायी बन सकने का साहस जुटा सकते हैं ? यदि वैसी कुछ उमंग अन्तःकरण में उठती दिखाई पड़े तो कुछ कदम अवश्य ही उस दिशा में उठाने की चेष्टा करनी चाहिए। आदर्शों की चर्चा से नहीं उन्हें जीवन में उतारने से काम चलता है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि अगणित व्यक्तिगत दोष, दुर्गुणों को अलग-अलग करके - एक-एक करके नहीं हटाया जा सकता है। रानी मधुमक्खी जहाँ रहती है वहाँ पूरा शहद का छत्ता जमा रहता है और अन्य मक्खियों का पूरा झुण्ड वहाँ जमा रहता है। संकीर्ण स्वार्थपरता की रानी मक्खी जब तक उड़ेगी नहीं तब तक दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का छत्ता ज्यों का त्यों बना रहेगा, हमें विचारना चाहिए कि पेट और प्रजनन के लिए, वासना और तृष्णा के लिए, सर्वतोभावेन समर्पित हमारा जीवन क्या परमेश्वर के लिए, आदर्शों के लिए-नियोजित किया जा सकता है ? यदि हाँ तो कितना, कैसे और किस प्रकार ? बसन्त पर्व पर हमें हजार बार इस तथ्य पर आत्म चिन्तन करना चाहिए और यदि कुछ अन्तः प्रकाश उत्पन्न हो तो अगले वर्ष अपने समय, श्रम, मनोयोग एवं मन का कोई महत्वपूर्ण अंश युग की पुकार को पूरा करने के लिए नियत करना चाहिए। जितना स्वार्थ पर अंकुश लगाया जा सकेगा उतने अनुपात में परमार्थ बन पड़ेगा। सादगी, संयम, अपरिग्रह और स्वल्प संतोष की आध्यात्मिक आस्थाएँ बढ़ाई जा सके तो अपने पास इतना अधिक वैभव दृष्टिगोचर होगा कि उसे युग देवता के चरणों पर समर्पित करके अध्यात्म को अपने को सच्चे अर्थों में प्रकाश पुँज सिद्ध किया जा सके।

आज भावनाशील प्रबुद्ध आत्माओं कि दसों दिशाओं से पुकार उठ रही है। उनकी आँतरिक और वाह्य विभूतियाँ लोक-मंगल के लिए नियोजित हो सकें तो प्रस्तुत नरक को स्वर्ग में बदला जा सकना सम्भव हो सकता है। इस संदर्भ में नवम्बर अखण्ड-ज्योति के पृष्ठ 56 पर युग देवता का आह्वान छपा है। बसन्त पर्व का आध्यात्मिक चिन्तन परिजनों को उस दिशा में धकेल सके तो समझना चाहिए कि इस वर्ष का बसन्तोत्सव सच्चे अर्थों में सार्थक हो गया। अध्यात्म का स्वरूप समझाने में अखण्ड-ज्योति को सफलता मिली यदि वह कुछ ऐसे व्यक्ति विनिर्मित कर सके जो अपने जीवन को अध्यात्म आदर्शों के अनुरूप प्रस्तुत करे तो समझना चाहिए अखण्ड-ज्योति का अब तक का जीवन श्रम सार्थक हो गया। 38 वें जन्म दिन पर इसी सफलता के लिए प्रबुद्ध परिजनों से साहसिक कदम बढ़ाने की अपेक्षा है।

*समाप्त*


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