एक तपस्वी ने इन्द्र देव की आराधना की। वे प्रसन्न हुए और वरदान देने पहुँचे। तपस्वी ने उनका वज्र माँगा ताकि संसार को आतंकित करके चक्रवर्ती शासन कर सके।
इन्द्रदेव रुष्ट होकर वापिस चले गये। वरदान न पाने के दुख में तपस्वी निराशाग्रस्त मनःस्थिति में शरीर त्याग गया।
इन्द्र को यह समाचार मिला तो वे बहुत दुखी हुए और सोचने लगे तपस्वी को कष्ट देने की अपेक्षा उनकी मनोकामना पूर्ण करना उचित है।
कुछ समय बाद किसी तपस्वी ने फिर इन्द्र की वैसी ही आराधना की। निदान उन्हें वरदान देने के लिए जाना पड़ा।
अब की बार वे वज्र साथ ही लेकर गये और पहुँचते ही बिना माँगे वज्र तपस्वी के आगे रख दिया। तपस्वी ने आश्चर्यचकित होकर उस निरर्थक वस्तु को देने का कारण पूछा- तो इन्द्र ने पूर्व तपस्वी का सारा वृत्तांत कह सुनाया।
वज्र को लौटाते हुए उसने निवेदन किया देव, ऐसे वरदान से क्या लाभ जिसे पाकर अहंकार भरी तृष्णा जगे और न मिलने पर निराशाग्रस्त मरण का वरण करना पड़े। मुझे तो ऐसा वर दीजिए कि उपलब्ध तप शक्ति का सत्प्रयोजनों के लिए नियोजित कर सकूँ।