सफल जीवन की सरल रीति-नीति

February 1975

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जिन्दगी में कोई रहस्यवाद नहीं है- वह सीधी-सादी सचाई है उसे जितना रहस्यमय सोचते हैं उतनी ही उलझन और बढ़ जाती है। कोई अविज्ञात तथ्य हमें ऊंचा उठायेंगे, आगे बढ़ायेंगे इस ‘शार्टकट’ को ढूंढ़ते फिरने वाले लोगों का समय या प्रयास अवास्तविक वस्तुओं के खोजने में लगा रहता है और वे सामान्य जीवन-क्रम में सुव्यवस्था लाकर जितना कुछ कर सकते थे, जो पा सकते थे उससे भी वंचित रह जाते हैं।

जिन्दगी एक हल की हुई समस्या है। आवश्यकता इतनी भर है कि उसे कायदे करीने से जी लिया जाय। बेतुकापन और बेढंगापन यही है जीवन के विकास क्रम का सबसे बड़ा व्यवधान। यदि सज्जनोचित शालीनता के साथ सुव्यवस्थित क्रम से जीवनयापन की व्यवस्था बना ली जाय तो हंसी-खुशी से सन्तोष भरे दिन कट सकते हैं और प्रगति के पथ पर कदम सहज से बढ़ते रह सकते हैं।

हमें हर कार्य को पूरी दिलचस्पी और जिम्मेदारी से पूरा करना चाहिए। पर वह सब होना चाहिए जिस तरह खिलाड़ी अपने कार्य को पूरा करते हैं। खेल में हार भी होती है और जीत भी। खिलाड़ी लोग उसे बहुत महत्व नहीं देते। केवल खट्टा-मीठा रसास्वादन मानते हैं। जीत पर न तो वे हर्षातिरेक से उन्मत्त होते हैं और न हार पर सिर धुनते, रोते-कलपते हैं। यद्यपि खेल के समय उनकी तत्परता एवं दिलचस्पी देखते ही बनती हैं। सुध−बुध खोकर वे बाजी जीतने में अपनी समग्र एकाग्रता एवं स्फूर्ति नियोजित करते हैं तो भी उस भागदौड़ को समझते खेल ही है। यही बात अभिनेताओं के बारे में भी है वे रंगमंच पर अपना क्रिया-कलाप ऐसी अच्छी तरह प्रस्तुत करते हैं मानो घटना-क्रम पूरी तरह उन्हीं के व्यक्तिगत जीवन का हो और वास्तविक हो। इतने पर भी अभिनय में जो हर्ष शोक के अवसर आते हैं उनका उनके मनःक्षेत्र पर कोई गहरा प्रभाव नहीं पड़ता। अभिनय समाप्त होते ही उस विनोद प्रहसन ने निपट कर वे अपने सामान्य जीवन-क्रम में लग जाते हैं।

खिलाड़ी अथवा अभिनेता की भावना से जो जी सकता है उसी को जीवन का कलाकार कहना चाहिए। वे स्वयं हंसते रहते हैं और दूसरों को हंसाते रहते हैं। भाव-अभाव, हर्ष-शोक, विजय-पराजय, हानि-लाभ, उनके लिए रंगमंच पर आते जाते रहने वाले उतार-चढ़ाव मात्र हैं। वह सब उन्हें करना पड़ता है क्योंकि कराया गया है। अथवा विनोद के लिए समय क्षेप के लिए किया गया है। यह मान लेने से जिन्दगी बहुत हलकी हो जाती है और उसका रस लेते हुए जिया जा सकता है।

भावुक प्रकृति के लोग छोटी-छोटी घटनाओं को-परिस्थितियों को बहुत महत्व देते हैं किसी के कहे हुए मीठे-कडुए वचनों को गिरह बाँधे रहते हैं ओर सोचते रहते हैं कि वे शब्द कोई अत्यन्त ही महत्वपूर्ण निधि या पत्थर की लकीर थे। जबकि होता यह है कि भावावेश की भली-बुरी मुद्रा वे लोग प्रायः अनगढ़ वचन बोलते रहते हैं और पीछे शान्त मनःस्थिति होने पर अचम्भा करते हैं कि भला हमने भी कभी ऐसा कुछ कहा था ? भला हम ऐसे अनुत्तरदायी वचन बोल सकते हैं। मनःस्थिति के उतार-चढ़ाव में कहे जाने वाले प्रिय-अप्रिय वचनों को महत्व देना व्यर्थ है। ध्यान देने योग्य, वह मनःस्थिति ही है, जिसकी उत्तेजना में उस प्रकार को प्रिय या अप्रिय बात दूसरों ने हमसे कह दी थी। ज्वर के आवेश में मरीज न जाने क्या-क्या बड़बड़ाता रहता है। परिचर्या करने वाले यदि उन शब्दों की अपेक्षा न करें तो उनका सेवा कार्य ही असम्भव हो जायगा।

बड़े उज्ज्वल भविष्य की बड़ी से बड़ी और अच्छी से अच्छी आशा करनी चाहिए किन्तु बुरी से बुरी परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। आवश्यक नहीं कि हमने जिस प्रकार की आशा लगा रखी है- घटना-क्रम उसी रीति से घटित होता चले। हमारी इच्छा और चेष्टा ही सब कुछ नहीं है। जो हम चाहें वही होना चाहिए इसके लिए प्रकृति के नियम बंधे हुए नहीं है। परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव कई बार ऐसे अप्रत्याशित घटना क्रम सामने कर देते हैं जिनसे आश्चर्य चकित रह जाना पड़े। कल क्या होने वाला है- इसे कोई नहीं जानता है। हम केवल आशा और चेष्टा कर सकते हैं। परिणाम के लिए घटना-क्रम पर निर्भर रहना पड़ता है। जो इस कड़ुई सचाई को समझते हैं वे कड़ुवा-मीठा दोनों की तरह का स्वाद चखने को तैयार रहते हैं। इसके लिए दिन की भी उपयोगिता होती है और रात्रि की भी । दोनों में से जो हमें प्रिय है- वही सदा बना रहे ऐसा कोई चाहेगा तो सफल मनोरथ न होगा। प्रिय प्रसंग ही सदा सामने आये-अप्रिय घटनाएं घटित न हों- इस तरह सोचना बाल बुद्धि का काम है। जो संसार को - जीवन को समझते नहीं वे ही एकाँगी चिन्तन अपनाते हैं और एक पक्षीय दुराग्रह के लिए अड़े बैठे रहते हैं।

जिन्दगी के करीने और सलीके से जीना चाहिए जो मिला हुआ है उसी को अधिकाधिक बुद्धिमत्तापूर्ण सदुपयोग करने की बात सोचनी चाहिए। अपने पास प्रस्तुत साधन भी इतने अधिक होते हैं कि उनका सही रीति से प्रयोग किया जा सके तो उज्ज्वल भविष्य की संभावनाएं एक-एक करके समीप आती चली जाती है। स्वच्छता और व्यवस्था यह दो बहुमूल्य विभूतियाँ जिनके स्वभाव में सम्मिलित हैं वे स्वल्प साधनों में भी अपने व्यक्तित्व को प्रखर और प्रतिभावान बना सकते हैं उनकी जागरुकता हर कार्य में टपकती है और हर संबद्ध पदार्थ स्वच्छता एवं व्यवस्था के साथ सम्भाला संजोया गया होता है। फलतः सम्पन्न किन्तु फूहड़ व्यक्तियों की तुलना में वे कहीं अधिक सम्पन्न, समुन्नत एवं सुसंस्कृत दृष्टिगोचर होते हैं।

अधिक अच्छे साधन मिलने पर अधिक अच्छी तरह रहना, अधिक प्रसन्न सन्तुष्ट रह सकेंगे यह सोचना व्यर्थ है। जिन्हें जीना आता है वे आज के साधनों का ही श्रेष्ठतम उपयोग करने की बात सोचते हैं और उसी पर ध्यान केन्द्रित करते हैं जो आज की परिस्थिति में किया जा सकना सम्भव है। यथार्थवादी व्यक्तियों की रीति-नीति यही रहती है। वे क्षुब्ध, रुष्ट, खिन्न, असन्तुष्ट उद्विग्न एवं व्यग्र दिखाई नहीं पड़ते हैं। जो मिला है उसे ही सौभाग्य मानकर प्रसन्नता का रसास्वादन किया जाय और जो नहीं है उसके लिए उत्साह पूर्वक परिश्रम किया जाय। जिनने यह सोच रखा है वे कम और अधिक साधनों के समान रूप से हंसते-हंसाते हुए जीवनयापन करते पाये गये हैं।

कर्म को खेल मानकर उत्तरदायित्वों के निर्वाह में गौरव अनुभव किया जाय। अपने बारे में बहुत अधिक सोचा न जाय। कुसंस्कारों और असामाजिक लोगों जैसी प्रवृत्तियां तो कहीं अपने पल्ले नहीं बंध गई इस बात पर सावधानी बरती जाय तो समझना चाहिए आनन्दित जीवन का आधा द्वार खुल गया। आधा द्वार तब खुलता है जब हम अपनी अपेक्षा दूसरे के सुख-दुख की बात अधिक सोचते हैं। छिद्रान्वेषण, निन्दा, चुगली अथवा ईर्ष्या-द्वेष को हटाकर यदि हम दूसरों के दुख हटाने और सुख बढ़ाने की बात सोचे और वैसे ही प्रयत्नों में संलग्न रहें तो उसकी प्रतिक्रिया चारों ओर से सद्भावना और सहकारिता के रूप में बरसती हुई दिखाई देगी। दूसरों की सुविधा का ध्यान रखना और उन्हें प्रसन्नता एवं सहयोग देना घाटे का नहीं लाभ और बुद्धिमता भरी रीति-नीति का है। उसे जो भी अपनायेगा उसे प्रतीत होगा कि दुनिया कितनी भली है और परिस्थितियों में अनुकूलता की कितनी अधिक लचक है।

जिन्दगी की प्रसन्नता एवं सफलता का कोई खास रहस्य नहीं। प्रगति एवं गरिमा प्राप्त करने का भी कोई जादू नहीं है। भले मानसों जैसे शालीन और व्यस्त व्यय स्थिति लोगों जैसा क्रिया-कलाप अपनाया जा सके तो उसमें उज्ज्वल भविष्य की किरणें झाँकती हुई दिखाई पड़ेगी, उत्कृष्ट जीवन जीने की आकाँक्षा और चेष्टा को संजोये रखा जाय और उसके लिए सामर्थ्य भर प्रयास करते रहा जाय तो जिन्दगी स्वयमेव उस दिशा में चलने लगती है जिसमें सफलता और प्रसन्नता के अनेकानेक आधार स्वयमेव सामने आते चले जाते हैं।


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