संसार में जितने भी जड़-चेतन पदार्थ हैं सभी अपूर्ण, विकार युक्त, हैं। कोई भी निर्विकार एवं पूर्ण नहीं हैं। फिर भी उसमें कुछ गुण अवश्य हैं। भले-बुरे तत्व सभी में विद्यमान हैं। केवल एक मात्र ब्रह्म परमात्म-सत्ता ही पूर्ण निर्विकार है।
मनुष्य इतना निकृष्ट दृष्टिकोण का है कि वह केवल एक कृष्ण पक्ष को ही ग्रहण करता है। दूसरों के दोष-दुर्गुण ही देखा करता है। अच्छाई उसे नजर नहीं आती क्योंकि उसने प्रतिगामी दृष्टिकोण का चश्मा पहिना है। जिस रंग का चश्मा आँखों पर चढ़ा होता है वैसा ही रंग इस दृश्य दुनिया का दिखाई देता है। एक बढ़ई एक पेड़ को इमारती लकड़ी, दार्शनिक विश्व चेतना और जड़ के सम्मिलित सौंदर्य, पशु भोजन तथा साधारण व्यक्ति केवल लकड़ी के रूप में देखता है।
हमारे मानसिक विचार ही बाह्य संसार के प्रति दृष्टिकोण के रूप में सामने आते हैं। हमारा दृष्टिकोण जैसा रहता है उसी के अनुसार हमें संसार दिखाई देता है। पुरोगामी दृष्टिकोण वाला संसार में अच्छाई देखकर मित्र समझता है। प्रतिगामी दृष्टिकोण वाली उसी संसार में बुराई देखकर शत्रु समझता है।
जिस दृष्टिकोण से वह देखता है उसी के अनुसार उसे सोचता है। उसे वातावरण भी उसी के अनुसार प्राप्त हो जाता है। बुराई देखने वाला अच्छी वस्तु को भी बुरी तथा अच्छाई देखने वाला बुरी वस्तु को भी अच्छा समझता है। एक चाकू को डाकू या हत्यारा पराक्रम में सहयोगी, चाकू का शिकार प्राणघातक तथा एक गृहस्थ स्त्री सब्जी काटने का उपकरण समझती है।
दुर्योधन और युधिष्ठिर से पूछा गया था कि सभा में कितने बुरे तथा कितने अच्छे लोग है ? दुर्योधन ने सभी को बुरा गया और युधिष्ठिर की दृष्टि से सभी अच्छे थे। इससे यह ज्ञात होता है कि हमारा दूसरों के प्रति दृष्टिकोण ही हमारे अन्तर की सच्ची भावना है। वह पूर्ण रूप से परिचय करा देती है कि कौन व्यक्ति किस तरह का है। हमारा बाह्य जीवन आन्तरिक भावों की छाया है। जिन राह से आन्तरिक जीवन गमन करता है बाह्य जीवन की छाया उसी पथ से अनुगमन करती है।
मनुष्य अपने लिये अपनी कब्र तैयार करता है।अपने इन छिद्रान्वेषी विचारों के द्वारा सारे संसार को अपना विरोधी देखकर भीषण आपत्ति, दुख, असन्तोष आदि प्राप्त करता है। यह अमृतमय संसार नीरस एवं वीभत्स लगता है। इसी परेशानी की उधेड़-बुन में उसका जीवन नरक के समान बन जाता है। गुणग्राही को यही नारकीय संसार अमृतमय, मित्र, सहायक दिखाई देता है। कठिनाइयों को शिक्षक, मार्गदर्शक, सद्गुणवर्धन की कसौटी और साथी मानता है। कठिनाइयों को सहर्ष सहकर उनसे गुण, शिक्षा और निर्देशन प्राप्त करता है।
जो प्रतिगामी होते हैं वे दूसरों के साथ लड़ने-झगड़ने, पीड़ित करने के आदी हो जाते हैं। जब उन्हें अपने विरोधी नहीं मिल पाते या स्वयं को असमर्थ पाते हैं तब स्वयं को ही परेशान कर आत्महत्या तक कर लेते हैं। अपना तन, मन, धन दूसरों की बुराई के लिए नष्ट कर देते हैं। प्रतिरोधी के प्रति नुक्ताचीनी का अवसर खोजते रहते हैं। इसी में अपने बहुमूल्य समय और धन का अपव्यय करते रहते हैं। अपने चारों और बुराई का कीचड़ उछालते रहते हैं। किन्तु भला मनुष्य दूसरों के सुख सम्वर्धन में अपना समय, सहयोग अर्पित कर भलाई की सुगन्ध बिखेरता रहता है।
यह संसार ईश्वर की कृति है। कहीं भी बुरा, गन्दा अपवित्र नहीं है। मंगलमय भावना की यह कृति मंगलमय है। मनुष्य के देखने का तरीका गन्दा हो जब चारों ओर गन्दा संसार देखकर दिन-रात बेचैन रहेगा। वह ईश्वर को, अपने भाग्य को सभी को गालियाँ देता है। सारा दोष उन पर लादता है। स्वयं को दुखी, अभागा, परेशान, संकटग्रस्त ही देखता है। अन्तर्वेदना सुनाते समय विश्व का सारा दुख, परिताप एवं अभाव अपने ऊपर ही लदा हुआ पाता है। इतिहास के पन्नों से पता चलता है कि सारे सुख एक साथ किसी के पास नहीं रहे। अभाव अवश्य रहा है।
जो विवेकशील, विचारवान होते हैं वे प्राप्त सुविधाओं के लिए ही ईश्वर को धन्यवाद देते हैं। स्वर्ग के समान सुख अनुभव करते हैं। कुछ अभाव एवं दुख कौतूहल लगते हैं। जो विकृत दृष्टि वाले होते हैं अनेकों सुविधाओं को कम मानते हैं। इस असन्तोष की धारा में अपने समय और बल का अपव्यय करके सुर-दुर्लभ जीवन को पशु के समान गंवा देते हैं। विवेकवान इस समय कठिनाइयों के हल करने में उपयोग करता है। कष्टों से छुटकारा पाकर सुखी बन जाता है। मकान में आग लगने पर रोने-धोने में समय खर्च न करके आग बुझाने के साधन जुटाकर अग्नि से रक्षा करेगा किन्तु बुरा व्यक्ति भाग्य को कोसता, रोता चिल्लाता ही दुख का सागर सिर पर बाँध लेगा तथा कुछ भी रक्षा नहीं कर पायेगा।
एक परीक्षा में अनुत्तीर्ण छात्र दुखी होकर आत्महत्या तक कर लेता है। किन्तु समझदार को अपनी स्थिति देखकर सन्तोष होगा। भविष्य में अच्छी पढ़ाई करने को तत्पर होगा। अपनी तुलना अभावग्रस्तों से करने पर हमें अपना जीवन सुखदायक प्रतीत होगा। कुछ आर्थिक कमी रहने पर आय के अन्य साधन ढूंढ़कर आय वृद्धि करेगा या खर्च कम करेगा। इन तरीकों से पूर्ति न हो तो अभाव ग्रस्तों की तुलना में अपने को सुखी मानकर सन्तोष करेगा, किन्तु बुरे लोग अपनी तुलना साधन सम्पन्न से करके ईर्ष्या, असन्तोष की आग में जलते रहेंगे। यह दृष्टिकोण का अन्तर है।
एक भोगी पत्नी को भोग का साधन मानता है। सफल गृहस्थ सहचरी मानता है। कामुकता से प्रेरित युवा एक युवती को वासनात्मक दृष्टि से देखता है। अध्यात्मवादी उसे ही आत्मा की सुरम्य आभा की खान देख पुलकित होता है। भगवान की मूर्ति को आस्तिक घट-घट वासी ब्रह्म, एक भौतिकवादी सजावट तथा चोर उसकी कीमत आँकता है। इसी दृष्टि के प्रतिफल से वे अलग-अलग फल प्राप्त करते हैं।
वास्तविक सुख का आगार भावनाएं हैं, दृष्टिकोण है। भौतिकता के पदार्थों में सुख नहीं है। भावनाओं को ऊंचा उठाने से, परिष्कृत करने से, आदर्शवाद का पुट देने से आध्यात्मिकता की वृद्धि होती है, प्रत्येक सुन्दर, सुरम्य, आनन्ददायक दृष्टिगोचर होकर कण-कण में व्याप्त प्रभु के दर्शन होते हैं।
हमारे जीवन में बाह्य पवित्रता, सुन्दरता, व्यावहारिक जीवन है तथा आन्तरिक पवित्रता भावनाओं में दृष्टिगोचर होती है। हमें गुणों का पौधा पल्लवित करने के लिए दुर्गुणों का कचरा उखाड़ कर फेंकना होगा। दूसरों के गुण देखने तथा अपने अवगुण देखने से विश्व के जीव चराचर सभी मित्र तथा सहयोगी दिखाई देंगे। आत्म सुधार होगा , इसके विपरीत दूसरों के अवगुण को अपने गुण देखने से सारा विश्व दुश्मन दिखाई देगा तथा अनेकानेक दुर्गुणों के शिकार बनते जायेंगे।
निकृष्ट विचारधारा कलह, कटुता के बीच बोती है। वह निरादर, मुसीबत, अविश्वास एवं असहयोग का पात्र बनाती है। सहानुभूति अन्तःकरण की गहन, मौन तथा अव्यक्त कोमलता है। इससे संसार की वास्तविक आनन्दमयी रसानुभूति होने लगती है। हमारा दृष्टिकोण ही मित्र-शत्रु, सुख-दुख, आनन्द-परिताप, सन्तोष-असन्तोष आदि का कारण है। हमें जीवन का सही लाभ लेने के लिए दृष्टिकोण को उत्कृष्ट रखकर इस सुरदुर्लभ मानव -तन का फल प्राप्त करना चाहिए।