जिजीविषा की अजेय सामर्थ्य

February 1975

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प्राणी यो प्रकृति की विपरीत चपेट में आकर अवसर अस्तित्व गंवा बैठता है। नियति के उग्र परिवर्तनों का सामना कर पाता और विपरीत परिस्थिति के सामने अपने को निरीह असमर्थ अनुभव करता है, पर ऐसा तभी होता है जब वह उस आपत्ति का सामना करने के लिए पहले से ही तैयार न हो।

यदि प्राणी को विपरीत अनभ्यस्त परिस्थिति में रहने की विवश होना पड़े तो वह अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए क्रमशः ऐसे परिवर्तन उत्पन्न कर लेता है- ऐसी विशेषता को उत्पादन कर लेता है जिसके आधार पर वह प्राणघातक समझी जाने वाली परिस्थितियों से भी तालमेल बिठा ले और अपना अस्तित्व कायम रख सके, सुविधा पूर्वक निर्वाह कर सके।

जीवाणुओं की असह्य तापमान पर मृत्यु हो जाती है। वे अधिक उष्णता एवं शीतलता सहन नहीं कर सकते, यह मान्यता अब पुरानी पड़ चली है। पानी खोलने से अधिक गर्मी ओर 270 आ॰ से॰ नीचे शीत पर जीवाणुओं की मृत्यु हो जाने की बात ही अब तक समझी जाती रही है। इसका कारण यह था कि शरीर में पाया जाने वाला ग्लिसरोद रसायन असह्य तापमान पर नष्ट हो जाता है और जीवाणु दम तोड़ देने हैं। अब वे उपाय ढूंढ़ निकाले गये हैं कि इस रसायन को ताप की न्यूनाधिकता होने पर भी बचाया जा सके और जीवन की अक्षुण्ण रखा जा सके।

अत्यधिक और असह्य शीतल जल में भी कई प्रचार के जीवित प्राणी निर्वाह करते पाये गये हैं इनमें से प्रोटोजोआ, निमैटोड, क्रस्टेशिया, मोलस्का आदि प्रमुख हैं।

येलोस्टोन की प्रयोगशाला में लुइवाक और टामन नामक दो सूक्ष्म जीव-विज्ञानी-माइक्रो बायोलॉजिस्ट यह पता लगाने में निरत हैं कि जीव सत्ता के कितने न्यून और कितने अधिक तापमान पर सुरक्षित रह सकने की सम्भावना है। वे यह सोचते हैं कि जब पृथ्वी अत्यधिक उष्ण थी तब भी उस पर जीवन सत्ता मौजूद थी। क्रमशः ठण्डक बढ़ते जाने से उस सत्ता ने क्रमिक विकास विस्तार किया है, पर इससे क्या-अति प्राचीन काल में जब जीवन सत्ता थी ही तो वह विकसित अथवा अविकसित स्थिति में अपनी हलचलें चला ही रही होगी भले ही वह अब की स्थिति की तुलना में भिन्न प्रकार की अथवा पिछड़े स्तर की ही क्यों न रही हो। विकसित प्राणी के लिए जो तापमान असह्य है वह अविकसित समझी जाने वाली स्थिति में काम चलाऊ भी हो सकता है।

यदि यही तथ्य हो तो फिर जीवन की मूल मात्रा को शीत, ताप के बन्धनों से युक्त माना जा सकता है और गीताकार के शब्दों में यह कहा जा सकता है कि आत्मा को न आग जला सकती है, न पवन सुखा सकता है न जल डुबा सकता है। पंचभूतों की प्रत्येक चुनौती का सामना करते हुए वह अपना अस्तित्व सुरक्षित रख सकने में पूर्णतया समर्थ है।

समुद्र तट के सभी पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली धूसर रंग की मक्खी ‘एफिड्रिल’ की 45 डिग्री से 51 डिग्री से0 के बीच तापमान वाले गर्म जल में प्रवेश करते देखा गया है। यह प्राणियों के जीवित रहने के असम्भव बनाने वाली गर्मी है। सामान्यतया धरती की सतह पर 12 डिग्री से0 तापमान रहता है। प्राणियों को उतना ही सहन करने का आभास होता है। अधिक उष्ण या अधिक स्थिति के अभ्यास ही कह सकते हैं।

एफिड्रिल मक्खी के अतिरिक्त कुछ जाति के बैक्टीरिया भी ऐसे पाये गये हैं जो खौलते पानी के 92 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान में भी मजे से जीवित रहते हैं। अमेरिका के येलोस्टोन नेशनल पार्क में स्थित गर्म जल के झरने प्रायः इसी तापमान के हैं और उनमें जीवित बैक्टीरिया पाये गये हैं। इन गर्म झरनों अथवा कुण्डों में से एक प्रकार की काई की मोटी परत जमी रहती है जिसे हिन्दी में शैवाल कहा जाता है। अंग्रेजी में उसका नाम एल्गी है। इसमें जीवन रहता है। आमतौर से वह 750 से0 तक गर्म जल में मजे का निर्वाह करती है बैक्टीरिया उसी के सहारे पलते हैं। एफिड्रिड मक्खी का प्रमुख भोजन यह एल्गी ही है। उसे प्राप्त करने के लिए वह उस असह्य तापमान के जल में डुबकी लगाती है और बिना जले झुलसे अपना आहार उपलब्ध करती है।

यह तो हुई छोटे जीवों की बात अब अधिक कोमल समझे जाने वाले मनुष्यों की बात आती है वह भी प्रकृति की असह्य कही जाने वाली स्थिति में निर्वाह करने के लिए अपने को ढाल सकता है। उत्तरी ध्रुव प्रदेश में रहने वाले एस्किमो लोग अत्यधिक शीत भरे तापमान में रहते हैं। भालू, हिरन और कुत्ते भी उस क्षेत्र में निवास करते हैं। वनस्पतियाँ और वृक्ष न होने पर पेट भरने के लिए माँस प्राप्त कर लेते हैं इसके लिए उनने बर्फ की मोटी परतें तोड़ कर नीचे बहने वाले समुद्र में से मछली पकड़ने की अद्भुत कला सीखली है आयुध साधन रहित होते हुए भी हिरन, भालू और कुत्तों का भी वे शिकार करना सीख गये हैं और लाखों वर्ष से उस क्षेत्र में निर्वाह कर रहे हैं।

दूसरे जीवों की तुलना में मनुष्य को अनेक अनुदान ऐसे उपलब्ध हैं जिन्हें असाधारण ही कह सकते हैं। बुद्धि की विशेषता, इच्छा शक्ति, भाव सम्वेदना लक्ष्य निर्धारण, स्मृति जैसी मस्तिष्कीय विशेषताएं ऐसी हैं जो अन्य प्राणियों को बहुत ही स्वल्प मात्रा में मिली हैं। उसके देखने तथा सुनने की शक्ति अत्यधिक संवेदनशील है। घ्राण शक्ति तो अन्य प्राणियों में अधिक है पर वे मनुष्य जैसी उच्चस्तरीय दृष्टि एवं श्रवण शक्ति का वरदान नहीं ही पा सके हैं। मनुष्य की मस्तिष्कीय संरचना की अन्य किसी प्राणी से तुलना नहीं की जा सकती। उसकी बनावट अपने आप में विलक्षण है।

अन्य प्राणी प्रकृति के आक्रमण को एक सीमा तक ही सहन कर सकते हैं और अधिक दबाव पड़ने पर दम तोड़ देते हैं पर मानवी काया का निर्माण इतना लोचदार है कि वह विपन्न परिस्थितियों में भी निर्वाह कर सकता है और अपने आपको इस प्रकार ढाल सकता है, जिससे प्रकृति का दबाव उसे चुनौती न दे सके।

‘न्यूरोफिजियोलाजिकल वेसिस आफ साइन्स’ ग्रंथ में उदाहरणों और प्रमाणों में यह बताया गया है कि मनुष्य का सामान्य निर्वाह 150 में होता है पर वह 10 हजार फुट से अधिक ऊँचाई पर जहाँ टेंपरेचर- 150 सेन्टीग्रेड होता है तथा आक्सीजन की कमी से असुविधा पड़ती है वहाँ भी कुछ ही दिनों के अभ्यास से सरलता पूर्वक निर्वाह करने लगता है। यहाँ तक कि 20 हजार फुट पर जहाँ 250 सेन्टीग्रेड तापमान रहता है वहाँ भी जिन्दा रह सकता है और 25 हजार से अधिक ऊंचाई पर जहाँ 45 डिग्री सेन्टीग्रेड शीत होता है, सामान्य बुद्धि के हिसाब से मनुष्य का जीवित रह सकना सम्भव नहीं, पर उसकी लोच ऐसी है जो वहाँ भी जिन्दा बनाये रह सकती है।

हिमालय पर रहने वाले हिम-मानव की जीवनचर्या भी कम रहस्यमय नहीं है। यह प्राणी मनुष्य जैसी आकृति प्रकृति का है उसे रीछ और मनुष्य का सम्मिश्रण कह सकते हैं। अत्यन्त शीत भरे हिमाच्छादित प्रदेश में उतनी ऊँचाई पर वह रहता है जहाँ साँस लेने के लिए आक्सीजन के सिलेण्डर पीठ पर बाँधकर पर्वतारोही जाया करते हैं और खुली हवा में साँस लेना मृत्यु को निमन्त्रण देना मानते हैं। लम्बे समय से वह एकाकी जीवन जीता चला आ रहा है। युगीय सभ्यता से दूर रहते हुए भी उसने अपने रहस्यमय जीवन-क्रम को किसी प्रकार अक्षुण्ण बनाये ही रखा है।

हिमालय के उत्तुँग शिखरों पर रहने वाला हिममानव अपने अस्तित्व के समय-समय पर अगणित परिचय देता रहा है। पर अभी तक उसे पकड़ने के प्रयास सफल नहीं हो सके। इस अद्भुत प्राणी के सम्बन्ध में अधिक जानने के लिए उसे निकट से देखना, समझना आवश्यक है। यह तभी हो सकता है जब वह पकड़ में आवे। किन्तु अति बुद्धिमान समझे जाने वाले मनुष्य को भी यह हिममानव अभी तक चकमा ही देता आया है उसके पकड़ने के प्रयत्नों को निष्फल ही बनाता है। इतने पर भी हिममानव का अस्तित्व प्रायः असंदिग्ध ही समझा जाता है।

सन् 1970 की 25 मार्च को अन्नपूर्णा शिखर पर चढ़ाई करने और उस क्षेत्र की सबसे ऊँची चोटी पर विजय पताका फहराने के उद्देश्य से ब्रिटिश पर्वतारोहियों का एक दल अपनी दुस्साहस भरी यात्रा कर रहा था। दल के लोग कैंप में विश्राम कर रहे थे। चन्द्रमा की चाँदनी सारे हिमाच्छादित प्रदेश को आलोकित कर रही थी। अभी वे लोग सोने भी न पाये थे कि हाथी जैसी भयानक आकृति अपनी लम्बी परछाई सहित उधर घूमती हुई दिखाई दी। खतरे की आशंका से वे लोग बाहर निकल आये और रायफलें तान लीं। गौर से देखने पर पाया गया कि यह प्राणी ठीक वैसा ही है जैसा कि हिममानव का वर्णन करते हुए समय-समय पर कहा या सुना जाता रहा है। आधा घण्टे तक उसकी हरकतें दल ने शान्तिपूर्वक देखी। उनका उद्देश्य मारना नहीं जानना था। सो उन्होंने आँखें भर कर देखा। थोड़ी देर में वह उछल-कूद करता हुआ पर्वत श्रृंखलाओं की ओट में गायब हो गया।

रात को पहरा देने की पद्धति अपनाकर बारी-बारी से दल के लोग सोये तो सही पर आक्रमण का आतंक रात भर छाया रहा। प्रातःकाल वे लोग तलाश करने गये कि कुछ वास्तविकता भी थी या कोई भ्रम ही था। उन लोगों ने मनुष्य जैसे किन्तु बहुत बड़े साइज के पद चिन्ह देखे जिनके उन लोगों ने फोटो लिये। वे फोटो तत्कालीन कई प्रमुख पत्रों में उस देखे हुए विवरण के साथ प्रकाशित भी हुए।

इससे पूर्व सन् 1958 में एक अमेरिकी पर्वतारोही दल विशेषतया हिममानव को जीवित अथवा मृतक किसी भी स्थिति में पकड़ने का उद्देश्य लेकर ही आया था। इस दल के एक सदस्य प्रो0 टेम्बा अपने साथ कुछ शेरपा लेकर एक क्षेत्र खोज रहे थे। उनने आश्चर्य के साथ एक झरने के किनारे बैठे देखा वह पानी में से मेंढक और मछलियाँ बीन-बीन कर बिना चबाये निगल रहा था। प्रो0 टेम्बा ने उस रात में प्लेश लाइट जलाई तो क्रुद्ध हिममानव उनकी ओर दौड़ा। शेरपा समेत वे बड़ी कठिनाई से अपनी जान बचाकर वापिस लौटने में सफल हुए।

सन् 1958 में इटली के प्रख्यात पत्रकार माडविन हिममानव की खोज में अपने दल समेत हिमाच्छादित चोटियों पर घूमे। एक जगह उनकी मुठभेड़ हो ही गई। रायफल का घोड़ा दबाने की अपेक्षा उनने कैमरे का बटन दबाना अधिक उपयुक्त समझा। कुछ ही मिनट सामने रहकर वह विशालकाय प्राणी भाग खड़ा हुआ। उसे पकड़ा या मार तो न जा सका पर फोटो बहुत साफ आये। उसके पैरों के निशानों के भी फोटो उनने लिये और अपने देश जाकर उन चित्रों को छापते हुए हिममानव के अस्तित्व की सृष्टि की।

तिब्बत और चीन की सीमा पर किसी प्रयोजन के लिए गये एक चीनी कप्तान ने भी हिममानव से सामना होने का विवरण अपने फौजी कार्यालय में नोट कराया था।

स्विट्जरलैंड का एक पर्वतारोही दल एवरेस्ट पर चढ़ाई करने के लिए आया था। उनके साथ पन्द्रह पहाड़ी कुली थे। दल का एक कुली थोड़ा पीछे रह गया। उस पर हिममानव ने आक्रमण कर दिया। चीख-पुकार सुन कर अन्य कुली उसे बचाने दौड़े और घायल स्थिति में उसे बचाया।

सन् 1887 में कर्नल बेडैल के नेतृत्व में एक ब्रिटिश पर्वतारोही दल भारत आया था उसने सिक्किम क्षेत्र में यात्रा की थी। 16 हजार फुट ऊँचाई पर उनने बर्फीली चोटियों पर पाये गये हिममानव के ताजे पद चिन्हों के फोटो उतारे थे।

वनस्पति विज्ञानी प्रो0 हेनरी ल्यूस जिन दिनों वनस्पति शोध के संदर्भ में हिमाच्छादित प्रदेशों में भ्रमण कर रहे थे तब उन्होंने मनुष्याकृति के विशालकाय प्राणी को आँखों से देखा था। वह तेजी से एक ओर से आया और दूसरी ओर के पहाड़ी गड्ढों में कहीं गायब हो गया। ठीक इसी से मिलते-जुलते साथी सन् 1921 में एवरेस्ट चढ़ाई पर निकले कर्नल हावर्ड व्यूरी की है उनके सामने से भी वैसा ही वन-मानुष से मिलता-जुलता प्राणी निकला था। उस क्षेत्र में आने-जाने वाले बताते थे कि वह अकेले दुकेले आदमियों और जानवरों की अवसर मार कर खा जाता है।

भारतीय हिम-यात्री ए॰ एन॰ तोम्बाती ने सिक्किम क्षेत्र में हिममानव देखने का विवरण बताया था। स्विट्जरलैंड के डायरन फर्थ ने भी सन् 1925 में उसे आँखों देखा था। नार्वे के दो वैज्ञानिक थोरवर्ग और फसिस्ट किसी अनुसन्धान के सम्बन्ध में सिक्किम क्षेत्र में गये थे। उन पर हिममानव ने हमला कर दिया और कन्धे नोंच डाले। गोलियों से उसका मुकाबला करने पर ही वे लोग बच सके। गोली उसे लगी नहीं किन्तु डर कर वह भाग तो गया ही। सन् 1951 में एक ब्रिटिश यात्री एरिक शिपटन ने भी हिममानव के पैरों के निशानों के बर्फीले क्षेत्र से फोटो खींचे थे। ऐसे ही फोटो प्राप्त करने वालों में डा0 एडमंड हिलेरी का भी नाम है। सन् 1954 में कंचन जंघा चोटियों पर सन् जानहन्ट के दल ने 20 हजार फुट ऊँचाई पर हिममानव के पद चिन्हों के प्रमाण एकत्रित किये थे। वे निशान प्रायः 18 इंच लम्बे थे। न्यूजीलैंड के पर्वतारोही जार्जलोंव ने उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर हिममानव के अस्तित्व को असंदिग्ध बताया था।

सन् 1955 में इंग्लैण्ड के दैनिक पत्र ‘डेलीमेल’ ने अपना एक खोजी दल मात्र हिममानव सम्बन्धी अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए भेजा था। दल ने बहुत समय तक हिमाच्छादित प्रदेशों में दौरे किये इस बीच उन्होंने हिममानव देखा या पकड़ा तो नहीं पर ऐसे अनेक प्रमाण अवशेष एवं चित्र संग्रह करके उस पत्र में छपाये जिनसे हिममानव सम्बन्धी जन श्रुतियाँ सारगर्भित सिद्ध होती हैं।

असह्य माने जाने वाले व्यक्ति शीत और ताप से प्राणियों का विशेषतया मनुष्य जैसे कोमल प्रकृति जीवधारी का निर्वाह होते रहने के उपरोक्त प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि प्रतिकूलताएं कितनी ही बड़ी क्यों न हों जीव उन सबसे लड़ सकने में समर्थ हैं। उसका संकल्प बल ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर सकता है जिसमें असह्य को सह्य और असम्भव को सम्भव बनाया जा सके। न केवल प्रकृति से जूझने में वरन् पग-पग पर आती रहने वाली कठिनाइयों को निरस्त करने में भी संकल्प बल की प्रखरता का तथ्य सदा ही सामने आता रहता है।


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