जीवन यात्रा के अवरोधों से सतर्क रहें

February 1975

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हम एक लम्बी यात्रा के राहगीर हैं। बहुत दूर चल चुके, पर जो शेष पड़ा है वह भी कम नहीं है। लक्ष्य तक यथासमय पहुँचने के लिए वर्तमान गति को तीव्र करना होगा अन्यथा अनावश्यक विलम्ब होते चलने से हम पिछड़ते ही चले जायेंगे।

आत्मा अन्य प्राणियों का शरीर धारण करता हुआ मनुष्य योनि तक पहुँच पाया है। पिछले दिनों के खट्टे-मीठे अनुभवों को ध्यान में रखते हुए इस बहुमूल्य अवसर का सही सदुपयोग कर लेने का सौभाग्य उसे मिला है। पेट और प्रजनन तक की गतिविधियों में सीमाबद्ध जीवन-क्रम कितना सरस, कितना नीरस, कितना मृदुल, कितना कटुक, कितना सारगर्भित, कितना निस्सार होता है उसे पिछली पिछड़ी योनियों में जाना जा चुका है, अब उसी अनुभव को दुहराने की आवश्यकता हमें नहीं पड़नी चाहिए। मनुष्य जन्म को यात्रा के लक्ष्य तक पहुँचने में अधिक सहायक बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।

अपूर्णता से पूर्णता तक पहुँचना जीवन लक्ष्य है। इसी के लिए अनेक प्राणियों के शरीरों में ठहरते विरमते इस सुखद स्थिति तक पहुँचा जा सका है जहाँ से लम्बी छलाँग लगाई जा सकती है और मंजिल पूरी की जा सकती है। इस अवसर को इन्द्रिय लिप्सा और तृष्णा अहंता की उस निम्न स्तरीय पूर्ति में नष्ट नहीं किया जाना चाहिए जिनके लिए पिछले दिनों अनवरत प्रयत्न किये जाते रहे हैं और कुछ हाथ नहीं लगा है। बिजली की कौंध की तरह इन्द्रिय लिप्सा की पूर्ति का सुख क्षण भर को चमकता है और फिर पीछे के लिए गहरा अन्धेरा छोड़कर कहीं चला जाता है।

जन्म-मरण की जराजीर्णता और रुग्णता की रस्सियों में बँधा हुआ, जीवन-मरण के गर्त में जा गिरने के लिए किसी अदृश्य शक्ति द्वारा घसीटा जा रहा है। जिन्दगी का लट्ठा दिन रात की काले सफेद दाँतों वाली आरी से निरंतर चीरा जा रहा है। आज का अखण्ड, कल का खण्डित होना निश्चित है। नाटक का पटाक्षेप कब हो जाये - पता नहीं। ऐसी सर्वथा अनिश्चित परिस्थितियों में रहते हुए - धूप-छाँह जैसी नगण्य उपलब्धियों पर इतराना और तृष्णा, अहंता की तनिक-सी पूर्ति पर गर्वोन्मत्त होना बालबुद्धि का चिन्ह है। तृष्णा कब किसी की पूरी हुई है। किसी काम में थोड़ी सफलता मिली भी तो आग में घी पड़ने की तरह ललक और भी चौगुनी-सौगुनी बढ़ती है और अभिलाषा की आग पहले से भी अधिक प्रज्ज्वलित हो जाती है।

शरीर को गलाते चलने वाली वासना और मन को जलाते रहने वाली तृष्णा की ही पूर्ति करना अभीष्ट हो तो मनुष्य जन्म सबसे निरर्थक है। अन्य योनियों में इन दोनों की आवश्यकता स्वल्प रहती है और आसानी से पूरी हो जाती है। मनुष्य की अधिक चैतन्य मनःस्थिति भोग और संग्रह के लिए अधिक लालायित रहती है और उनकी पूर्ति सीमित साधनों से सम्भव नहीं होती। अतएव अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य को अधिक असन्तुष्ट-उद्विग्न रहना पड़ता है। इस दृष्टि से विचार करने पर तो लगता है अन्य प्राणियों का जीवन - क्रम अधिक शान्त सन्तुष्ट है। आकाँक्षाओं की न्यूनता और उपलब्धि की सरलता से वे अपेक्षाकृत अधिक सुखी रहते होंगे।

मनुष्य जीवन का लक्ष्य सुख सम्पादन नहीं आनन्द की प्राप्ति है। इसे आत्मबल का परिणाम कह सकते हैं। आत्मबल सम्पन्न आनन्दी उत्साह से भरा अन्तःकरण ही उच्चस्तरीय चिन्तन और श्रेष्ठ कर्तृत्व अपना सकता है। इन्हीं दो साधनों के सहारे अपूर्णता को पूर्णता में परिणत करने का अवसर मिलता है और जीवन लक्ष्य पूरा होता है। लम्बी यात्रा इसी सफलता की प्राप्ति के लिए करनी पड़ती है जब तक गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुँच जाते तब तक अशान्ति में ही भटकना पड़ेगा।

यात्रा को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने की दृष्टि से मनुष्य जीवन की विशिष्ट स्थिति को ध्यान में रखना होगा और उसके सदुपयोग के लिए अधिक तत्परतापूर्वक कटिबद्ध होना होगा। यहाँ प्रमाद बरतने से - उस सौभाग्य से वंचित हो जाना पड़ेगा जो इन दिनों थोड़ी सतर्कता बरतने पर सहज ही उपलब्ध किया जा सकता है।

बुद्धिमान यात्री रास्ते के मनोरम दृश्यों को देखते भर हैं उनसे मोहित नहीं होते। मोहित होने पर तो उन्हीं में रमने का जी करेगा और उन खेल-खिलौनों में उलझ जाने से गंतव्य स्थान तक पहुँचना कठिन हो जायेगा। मार्ग में कितने ही राहगीरों से परिचय होता है और उनमें से कोई-कोई घनिष्ठ भी बन जाते हैं। जहाँ तक सौजन्य का प्रश्न है सभी से सद्भावना रखी जानी चाहिए, उस सद्भाव विस्तार में साथ चलने वाले राहगीरों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। यहाँ तक सब कुछ ठीक है, पर जब इन राहगीरों के साथ इतनी घनिष्ठता जोड़ली जाय कि उनके पीछे चलकर अपना गन्तव्य ही याद न रहे तो उसे अबुद्धिमत्तापूर्ण ही कहा जायेगा।

जीवन यात्रा के मार्ग में कहीं मीठी, कहीं कड़ुई वस्तुएं तथा परिस्थितियाँ मिलती ही चलेंगी उन्हें देखना, समझना चाहिए। उनका उपयोग भी करना चाहिए और अनुभव भी लेना चाहिए। पर यह सब कर्तव्य और औचित्य की परिधि में ही किया जाना चाहिए। सुखद स्थिति को देखकर उसी में रम जाने की - प्रिय व्यक्तियों को देखकर उन्हीं के हो जाने की बालबुद्धि नहीं बरतनी चाहिए अन्यथा लक्ष्य तक पहुँचना कठिन हो जायेगा। व्यामोह के जंजाल में - पैर फँसा बैठने पर गन्तव्य की प्राप्ति कठिन हो जायेगी।

वस्तुओं का लोभ और प्राणियों में मोह रहने की प्रकृति हमें इसलिए मिली है कि अधिक अभिरुचि और अधिक तत्परता के साथ उन्हें सम्भाला सँजोया जा सके। यदि प्रयोग के लिए मिली वस्तुओं में ममता न हो तो उनकी साज-सम्भाल न हो सकेगी और वे उपेक्षापूर्वक जहाँ-तहाँ बिखरी पड़ी रहेंगी। लोभ वृति इसीलिए मिली हैं कि हर व्यक्ति अपने उपयोग की वस्तुओं की ठीक तरह रुचिपूर्वक व्यवस्था रखें। यही बात मोह के सम्बन्ध में है। जिनके साथ पारिवारिक या सामाजिक सम्बन्ध जुड़े हुए हैं उनकी सेवा सहायता करने में उपेक्षा बुद्धि उत्पन्न न हो जाये इसलिए परमात्मा ने इस सम्बद्ध परिकर को मोह-बन्धनों में बाँधा है। जहाँ अपनापन जितना गहरा होता है वहाँ सेवा, साधना अधिक अच्छी तरह बन पड़ती है। जिम्मेदारी अधिक सतर्कतापूर्वक निभ जाती है। मोह न हो तो सम्भव है एक दूसरे के साथ सहयोग और सद्भाव उतना न बरते जितना बरता जाना चाहिए। यही है लोभ और मोह का उपयुक्त प्रयोजन। औचित्य की सीमा में यह दोनों ही प्रवृत्तियां अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं।

इन्हें निन्दनीय और हानिकारक तब ठहराया जाता है जब वे मर्यादा का उल्लंघन करके अति के क्षेत्र में प्रवेश करती हैं। उपलब्ध की वस्तुओं के प्रति - धन सम्पदा के प्रति यदि लालच इतना अधिक बढ़ जाय कि उन्हें अधिक संग्रह करने की ललक लगी रहे और सदुपयोग करने की बात चित्त से उतर जाये तो समझना चाहिए कि लोभ निन्दनीय बिन्दु तक पहुँच गया। इस स्तर तक पहुँची हुई लिप्सा अनीति उपार्जन पर उतर आती है और उसका उचित उपयोग होने से कृपणतापूर्वक रोकती है। लोभ की आसक्ति ऐसी लौह शृंखला होती है जिसमें बंधा हुआ मनुष्य न तो मानवोचित कर्तव्यों का पालन कर पाता है और न लक्ष्य की ओर बढ़ सकने में सफल हो पाता है।

मोह की अति का दुष्परिणाम और भी अधिक भयावह है। जिन व्यक्तियों को अपनी संपत्ति मान लिया जाता है उनके प्रति असन्तुलित व्यवहार होने लगता है। या तो स्त्री, बच्चों को इन्द्र जैसे सुख-साधनों से लाद देने की ललक रहती है या फिर उनके अवज्ञाकारी निकले पर सिर काट लेने जैसा क्रोध आता है। यह न बन पड़े तो फिर अपना ही सिर फोड़ने को जी करता है। दोनों ही प्रकार की मनःस्थिति अतिवादी है। इससे मोह पात्रों को दुहरी हानि होती है। उनको विलासी वैभव का अमर्यादित उपभोग करने का लाभ मिलते रहने में उनकी आदतें बिगड़ती हैं और जीवन संग्राम में जूझते हुए प्रगति पथ पर बढ़ चलने की - प्रतिभा नष्ट होती है। यदि कड़े अनुशासन में बाँधा गया तो भी उनका मस्तिष्क एवं व्यक्तित्व दीन-दासता में जकड़ कर बेतरह कुचल जाता है और उसकी मौलिकता और व्युत्पन्न मति का ही अन्त हो जाता है। स्वतन्त्र चिन्तन और स्वतन्त्र पुरुषार्थ में चाहे खतरा ही क्यों न हो वह कठोर परावलम्बन की अपेक्षा कहीं अधिक उत्तम होता है। मोहग्रस्त अभिभावक अपने प्रियजनों के प्रति कभी न्याय नहीं कर सकते और न उनके स्वस्थ विकास में कोई महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।

लोभ की तरह ही मोह के बन्धन भी विकट हैं। उनमें भारी खिंचाव और भारी आकर्षण रहता है। कुछेक व्यक्तित्वों के लिए बहुत कुछ- सब कुछ करने सोचने की मनःस्थिति जहाँ होगी वहाँ इस परिधि से बाहर के कर्तव्यों का पालन बन ही नहीं पड़ेगा। समाज के प्रति हर व्यक्ति के कुछ कर्तव्य और उत्तरदायित्व हैं। उन्हें पूर्ण किये बिना महानता का परिपोषण हो नहीं सकता। मोहग्रस्त व्यक्ति की दुनिया चन्द व्यक्तियों तक सीमित होकर रह जाती है। उन्हीं के लिए वह इतना मरता-खपता है कि अन्य किसी के सम्बन्ध में कुछ सोच सकने या कर सकने की गुंजाइश ही नहीं रहती। आसक्ति के साथ जुड़ा हुआ पक्षपात ऐसा विकट होता है कि समस्त जीवन रस को निचोड़ कर वह कुटुम्बियों के लिए ही खपा देने के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य के लिए कुछ उपयोगी अनुदान प्रस्तुत करने ही नहीं दे सकता।

जीवन यात्रा का लक्ष्य स्थान मनुष्य जन्म की दहलीज के साथ जुड़ा हुआ है। यदि जागरुकता बरती जा सके और दूरदर्शिता का प्रयोग हो सके तो ऐसी सन्तुलित रीति- नीति अपनाई जा सकती है जिसमें शरीर निर्वाह, परिवार पालन करते हुए लक्ष्य की ओर अग्रसर बना सकने वाले क्रिया-कलापों को भी ठीक तरह अपनाया जा सके। उपलब्ध वस्तुओं का श्रेष्ठतम सदुपयोग और सम्बद्ध व्यक्तियों के साथ आदर्श कर्तव्य पालन को ध्यान में रखते हुए चला जाय तो धन का संग्रह तथा विलासी उपयोग न किया जायेगा और न अनीति उपार्जन की इच्छा होगी। यह उद्धत आचरण तो लोभ की अति से ही बन पड़ते हैं। परिवार के सम्बद्ध स्वजनों को स्वावलम्बी सद्गुणी बनाने की बात को प्रधानता दी जाय उनके लिए विलासी साधन जुटाते रहने की मूर्खता न बरती जाय तो घर खर्च मितव्ययितापूर्वक अच्छी तरह चलेगा और सभी छोटे-बड़े उपार्जन तथा बचत से योगदान देकर अर्थ तन्त्र को सही रखेंगे। इसमें उनके प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का विकास लाभ तो सुनिश्चित ही है। इन लाभों से वे ही परिवार लाभान्वित हो सकते हैं जिन पर मोहग्रस्तता की कालिमा ने काली चादर नहीं फैलाई है।

हमारी दृष्टि जीवन-यात्रा के गन्तव्य स्थल पर रहनी चाहिए। भूल नहीं जाना चाहिए कि हम ऐसे लम्बे मार्ग के पथिक हैं जिसे लगातार द्रुतगति से और सतर्कतापूर्वक चलते रहना ही उचित है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तव्यों की दो टाँगें ही इस यात्रा को पूरी करा सकती हैं। उन्हें लोभ और मोह के आक्रमण से बचाना चाहिए अन्यथा घायल होने पर वे चरण आगे बढ़ ही न सकेंगे और वह बहुमूल्य अवसर हाथ से चला जायेगा जिसे गँवा देने पर मात्र पश्चाताप से हाथ मलते रहने के सिवाय और कुछ शेष न रहे।


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