शरीर तब स्वस्थ रहेगा जब मन स्वस्थ हो

February 1975

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संसार में किसी भी महान कार्य के सम्पादन हेतु स्वस्थ, दीर्घ जीवन की आवश्यकता है। क्योंकि कार्य की महानता, सुदीर्घ अनुभूति की दिव्यता एवं उसकी उपलब्धि का ही परिणाम होता है। संसार के महान पुरुषों ने जो उत्तम उपलब्धियाँ संसार को दी हैं वह लगभग 60 वर्ष की आयु के होने के पश्चात ही सम्पन्न कर विश्व को प्रदान की हैं। प्रसिद्ध नाटककार बर्नार्डशा 94 वर्षों की लम्बी अवधि तक लेखन कार्य करते रहे। जर्मन कवि और नाटककार गेटे ने जब अपना “फ्रास्ट” पूरा किया तब वह 80 वर्ष की आयु को पार कर चुके थे। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर 90 वर्ष की जीवन अवधि में लेखन कार्य करते रहे और विश्व को उत्तम साहित्य प्रदान किया। साहित्य के ही क्षेत्र में नहीं विज्ञान, राजनीति, समाज-सुधार आदि सब में दीर्घ जीवन की अनुभूति से ही महानता की चमक आती है। अतएव दीर्घ जीवन प्राप्ति स्वयं में एक महान समस्या है ? भारत में मानव 50 - 60 वर्ष में अपने को वृद्ध मान लेता है और 70 - 80 तक काल के गाल में जा बैठता है।

इसी संसार में वे मानव भी देखे जाते हैं जिनकी आयु 150 वर्ष और उससे भी अधिक समय की होती है। वैसे तो 100, 125 वर्ष की आयु के व्यक्ति कुछ देशों में विरले मिल जाते हैं। किन्तु दक्षिणी काकेशिया के छोटे से जार्जिया क्षेत्र में जरा- वैज्ञानिकों के दल द्वारा सर्वेक्षण करने से ज्ञात हुआ कि 100 या 100 से अधिक की आयु के 2100 व्यक्ति वहाँ थे। काकेशस पर्वत की मालाओं से घिरे रूस के सम्पूर्ण दक्षिणी प्रदेश में शतायु व्यक्तियों की कमी नहीं है। मखमूद बागीर ओगली श्वाजोव उत्तर पूर्व काकेशस के एक किसान थे वह 1959 में 150 वर्ष की आयु में चल बसे उनके 23 बेटे-बेटियाँ, 150 नाती-नातनियाँ, पोते-पोतियाँ थीं। मृत्यु के समय उनकी सबसे बड़ी लड़की 120 वर्ष की थी। उनकी कुल सन्तान 175 के लगभग थीं। इन सभी दीर्घ जीवन वालों का आखिर जीवन रहस्य क्या था ?

जीवन का आधार मन और शरीर की क्रियात्मक शक्ति का समन्वित रूप है। कहा है कि “मन के हारे हार है और मन के जीते जीत” इसका अर्थ यही है कि अपने मनोबल को क्षीण न होने दें। उसे उत्तम भावों से आपूरित रखें इससे वह आशावान् होता है। फिर वह परिस्थितियों पर प्रभाव डालता है। कठिन से कठिन परिस्थिति का उज्ज्वल पक्ष भी होता है। सब को देखता है साहस रखता है। इन सब का प्रभाव शरीर पर पड़ता है फिर वह भी स्वस्थ रहता है। चिन्ता करने वाले व्यक्ति का शरीर क्षीण और रोगों से ग्रसित रहेगा, इसलिए मन की प्रसन्नता शरीर की स्वस्थता में सहायक है।

शरीर के जिस अंग से कार्य न लिया जायेगा वही अंग निष्प्राण सा हो जावेगा। यदि मशीन के कल-पुर्जों से काम न लिया जावेगा तो उनमें जंग लग जायेगी। पानी के प्रवाह को रोका गया तो उसमें विकृति, गन्दगी उत्पन्न होने लगेगी। प्रकृति के इसी नियमानुसार मन और तन दोनों का यथाशक्ति सक्रिय रहना ही जीवन का लक्षण है।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक एडीसन जब किसी कार्य में असफल होता था तब वह असफल होने पर यह कहा करता था कि “मैंने एक और तरीका जान लिया है कि जिससे काम नहीं करना चाहिए” इस वाक्य से भाव विदित होता है कि उसका मन टूटता नहीं था धैर्य और आशावादिता ही उसके आन्तरिक जीवन का आधार था। शारीरिक जीवन की स्वस्थता के लिए उन दीर्घजीवी मानवों के रहन-सहन से पता चलता है कि पूर्ण सक्रिय रहते, सादा भोजन करते, दूध-दही फलों का आहार लेते, खुले आकाश में पूर्ण गहरी निद्रा लेते थे। शुद्ध आक्सीजन वायु का अधिक से अधिक सेवन करते थे। उसकी विधि गहरी साँस लेना है, जो बचपन से ही अभ्यास में लायी जा सकती है। उन दीर्घजीवी व्यक्तियों के मन और शरीर के समन्वय को देखकर यह विश्वास उत्पन्न होता है कि दीर्घजीवन जीने की यही कला है।

मन में क्षोभ, अशान्ति, चिन्ता न हो तो उसका प्रभाव शरीर पर न पड़ेगा। शारीरिक रोग तो मानसिक विक्षिप्ति का परिणाम है। पहले मनोजगत में विकृति उत्पन्न होती है फिर उसका घनत्व होता जाता है उसका इतना घनत्व बढ़ जाता है कि वह रोगों के विभिन्न रूपों में परिणत हो जाता है। वार्धक्य भी मनःस्थिति की परिणति है। यह किसी को देर में और किसी को शीघ्र घेर लेती है। यह मानसिक स्थितियाँ वंशानुक्रम से रक्त में प्रवाहित होती चली आ रही हैं।

शरीर का निर्माण सूक्ष्म परमाणुओं से होता है। जिन्हें वैज्ञानिक भाषा में जीवन कोषों का समूह है। इन जीवन कोषों में अर्द्ध तरल पदार्थ भरा रहता है जो जीवन रस कहलाता है। जब यह रस सूख जाता है तब शरीर नष्ट हो जाता है। जीवन रस का निर्माण प्रकृति के 23 मौलिक तत्वों से होता है। जीवन-कोष इन तत्वों को खाद्य पदार्थों से प्राप्त करते हैं। भोजन का सार ही जीवन रस में बदल जाता है इसकी वृद्धि से कोषों का आकार बढ़ता है वह जीवन कोष ‘सेल्स’ बंटकर दो हो जाता है शरीर की वृद्धि होती चलती है।

शरीर में जब तक तन्तुओं का संगठन ठीक रहता है तब तक वह स्वस्थ रहता है और जब वे निर्बल, जीर्ण-शीर्ण होने लगते हैं तभी वार्धक्य आक्रमण करता है। मूल इकाई जीव-कोष है। उनको स्वस्थ रखना, उनमें जीवन-रस प्रवाहित होना ही महत्व की वस्तु है जो भोजन के पदार्थों से प्राप्त होती है। भोजन सात्विक, पौष्टिक, शीघ्र पाचक ही लाभप्रद है।

इस वैज्ञानिक युग में जीव-कोष पोषण की एक विशेष पद्धति प्रचलित हुई है मानव मृत तभी कहा जाता है जब कि शरीर में रक्त संचार बन्द हो जाता है और चेतना लुप्त हो जाती है। किन्तु मानव शरीर पूर्ण रूपेण मृतक नहीं हो पाता है कभी कभी उसके जीव-कोष मृत्योपरान्त भी जीवित रहते हैं, कुछ जीव-कोष 120 घण्टे तक जीवित रहते हैं। वर्तमान नेत्रदान इसी का जीता-जागता उदाहरण हैं।

डा0 नाइन्हेस का कथन है कि पशु और मानव के भ्रूणों के जीव कोषों की रासायनिक क्रिया प्रतिक्रिया वयस्कों के जीव कोषों की प्रक्रिया से लाखों गुनी बलशाली होती है। इसके जीवन कोष मानवों में पहुँचाने पर शरीर की नष्ट हुई शक्ति पुनः लौट आती है इस प्रकार प्रवेश कराये गये जीव कोष कभी मरते नहीं इन्जेक्शन द्वारा प्रवेश करा देते हैं। डा0 कैरेल ने पहला प्रयोग फ्रांस में मुर्गी के बच्चों पर किया था फिर डा0 नाइन्हेस ने पौरुष हीन व्यक्तियों के शरीर में प्रजनन अवयवों के नये जीव कोष लगाकर उन्हें फिर से यौवन प्रदान किया। नाटों के रोग दूर किये। बोने को उन्होंने पशु की ग्रन्थि के जीव कोषों के इन्जेक्शन दिये जिससे 6 इंच ऊँचाई बढ़ गई। हृदय रोगों में जीव कोष भ्रूण के हृदय के जीव कोषों के इन्जेक्शन देने से रोगी का हृदय सामान्यावस्था में आ गया। आज के युग में हृदय को निकाल कर उसे पुनः जीवित फिट करने लगे हैं। अब ऐसा अनुभव होने लगा है कि शारीरिक त्रुटियों को तो आपरेशन से काट-छाँट कर अन्य पशुओं की सहायता से उन अंगों की पूर्ति हो सकती है। मेडिकल साइन्स की वर्तमान प्रगति से स्पष्ट हो रहा है कि शरीर में जीवन रस की कितनी प्रधानता है। यह प्राकृतिक भोजन से प्राप्त होता है और जीवन कोषों में समाहित होता है शरीर के संचालन का आधार है शरीर में चेतना की स्थिति ? अतः जीवन स्वस्थ शरीर और स्वस्थ चेतना का समन्वय है जो भौतिक प्राकृतिक भोजन और स्वस्थ विचारों से निर्मित होता है।


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