सामान्य अवस्था में सामान्य मानव सच्चा, सरल ईमानदार और उद्यमशील होता है। परन्तु जब प्रलोभन का अवसर आता है तो परीक्षा की उस घड़ी में बहुधा वह अपने सामान्य स्तर से फिसल कर नीचे आ जाता है।
उदाहरण के लिए सामान्य अवस्था में सभी व्यक्ति अपने श्रम और ईमानदारी का पैसा लेते हैं; परन्तु यदि महंगाई हो जाये, कोई रिश्वत दे, कहीं रुपया पड़ा मिले या चोरी का अवसर मिले तो इस स्थिति का लाभ न उठाने वाले और केवल अपनी मेहनत की कमाई पर सन्तोष करने वाले विरले ही होते हैं। वे सामान्य स्तर से ऊपर के व्यक्ति हैं।
सामान्य अवस्था में क्रोध नहीं आता; परन्तु यदि कोई अपने व्यवहार से उत्तेजित करे तो आत्म नियन्त्रण और मानसिक सन्तुलन कठिन हो जाता है। ऐसी अवस्था में सन्तुलन बनाये रखने वाला व्यक्ति असामान्य होता है।
इसी प्रकार सामान्य स्थिति में हम सब सुखी और सन्तुष्ट हैं। परन्तु यदि प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थिति में भी हम अपना सन्तुलन बनाये रह सकें, मृत्यु, पीड़ा, पराजय, भूख-प्यास में भी दुख का अनुभव न करें, अपने ज्ञान में दृढ़ आस्था बनाये रखें, अपने सिद्धान्त पर डटे रहें, अपनी भावनाओं पर काबू रखें तो समझा जायगा कि हम सामान्य स्तर से ऊपर के हैं।
काम, क्रोध, लोभ, मोह के विकारों का आवेश मनुष्य को अन्धा कर देता है। उसका विवेक ठीक काम नहीं करता, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य का उसे ध्यान नहीं रहता और वह उस प्रकार का व्यवहार कर बैठता है जिससे उसे स्वास्थ्य से हाथ धोना पड़ता है, समाज में अपयश होता है, दूसरों से सम्बन्ध खराब होते हैं और वह अविश्वास का पात्र बन जाता है।
सम्बन्धियों, धन और यश में आसक्ति वाला मनुष्य लेन-देन में पक्ष-पात करता है। चोरी, ठगी और बेईमानी करता है, दूसरों को धोखा देता है, झूठे वादे करता है और चालाकी से काम लेता है। वह भूल जाता है कि पक्षपात से समाज की व्यवस्था खराब होती है, चोरी और बेईमानी से असुरक्षा और भय की स्थिति पैदा होती है, जिसका प्रभाव स्वयं उसके ऊपर भी पड़ सकता है। झूठ और चालाकी से उसका नैतिक पतन होता है और उस अनीति से जो लाभ होता है वह स्थाई नहीं होता।
धर्म, नीति, श्रम और सदाचार के मार्ग से धन जुटाना कठिन है। इसीलिए हम इन्द्रिय सुख और सम्मान के लोभ में अनुचित साधनों का सहारा लेते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि अधर्म के मार्ग से हम समाज की श्रद्धा, आदर, विश्वास, प्रेम, सहयोग और सहानुभूति खोकर व्यक्तिगत रूप से घाटे में ही रहते हैं तथा इस तरह सामाजिक जीवन के अस्त-व्यस्त और विषाक्त हो जाने पर हमें भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है; जबकि धर्म के मार्ग से हम अपने को समाज में श्रद्धा और विश्वास का पात्र बनाकर समाज में सहयोग का वातावरण पैदा करते हैं।
हमारे संकुचित स्वार्थ और संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण ही धन-धान्य से सम्पन्न, प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर, सुजला, सुफला शस्यश्यामला धरती निराशा, नीरसता, चिन्ता, उद्विग्नता, भय और शंका का वास बनी हुई है। सुख-सुविधा और सम्पन्नता से हम वंचित ही हैं।
स्वर्ग और नरक कहीं और नहीं है। इन्हें मानव स्वयं इसी धरती पर बनाता है। जब मानव नीति, संयम, त्याग, सेवा, तप और सहानुभूति का जीवन जीते हैं तो समाज में स्वास्थ्य, सुख, शान्ति, बाहुल्य, सद्भावना, प्रेम, हंसी-खुशी और पारस्परिक विश्वास का कल्प-वृक्ष उगता है। यही स्वर्ग है। संकुचित स्वार्थ, असंयम, आलस्य, घृणा, द्वेष और दम्भ समाज में उत्पीड़न, भय, असन्तोष, अभाव और अविश्वास का वातावरण बना देते हैं। यही नरक है। हमारा चिन्तन, भावनाएं और कर्म ही स्वर्ग और नरक का निर्माण करती है। अपने लिए-समस्त संसार के लिए हम स्वर्ग का सृजन करें अथवा नरक का निर्माण करें यह हमारी इच्छा और चेष्टा पर पूर्णतया निर्भर हैं।