सरल और सहज की चाह तो हर किसी को रहती है, पर उसकी पूर्ति होना शक्य नहीं। प्रकृति चाहती है कि हर प्राणी को -संघर्ष की पाठशाला में पढ़कर शौर्य साहस की शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिले। सरल जीवन में सुविधा तो है, पर हानि यह है कि प्राणी की प्रखरता नष्ट हो जाती है उसकी प्रतिभा अविकसित रह जाती है। प्रतिकूलता से जूझे बिना जीवन के शस्त्र पर धार नहीं धरी जा सकती, चमक और पैनापन लाने के लिए उसे पत्थर पर घिसा ही जाता है। मनुष्य समर्थ, सबल और प्रखर बना रहे इसके लिए संघर्षरत रखने की सारी व्यवस्था प्रकृति ने कर रखी है। इसी व्यवस्था क्रम में एक भयंकर लगने वाली रोग कीटाणु संरचना भी है जो जीवन को मृत्यु में बदलने के लिए निरन्तर चुनौती देती रहती है।
आँखों से न दीख पड़ने वाले अत्यन्त सूक्ष्म रोग कीटाणु हवा में घूमते रहते हैं- प्रयोग में आने वाली वस्तुओं के सहारे रेंगते रहते हैं और अवसर पाते ही हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। उनकी वंश वृद्धि आश्चर्यजनक गति से होती है। उनकी विषाक्त एवं मारक शक्ति भी अद्भुत होती है। शरीर में साँस, जल या दूसरे किन्हीं आधारों पर वे प्रवेश कर जाते हैं और वहाँ पहुँच कर अपनी गतिविधियों से भयानक रोगों का सृजन करते हैं। उनके प्रतिरोध की प्रकृति ने व्यवस्था की है। रक्त में पाये जाने वाले श्वेत कीटाणु इन शत्रुओं से जूझते हैं। शरीर की गर्मी तथा विभिन्न स्थानों से निकलने वाले स्राव उन्हें मारते हैं। इस युद्ध में बहुधा मनुष्य की जीवनी शक्ति ही विजयी होती है तभी तो स्वास्थ्य रक्षा सम्भव होती है अन्यथा इन विषाणुओं के द्वारा होते रहने वाले अनवरत आक्रमण से शरीर का एक दिन भी जीवित रह सकना सम्भव न हो सके।
इन रोग कीटाणुओं की असंख्य जातियाँ हैं और उनके क्रिया-कलाप भी अद्भुत हैं। वर्तमान रोग परीक्षा पद्धति में यह पता लगाने का सर्वप्रथम प्रयत्न किया है कि रोगी के शरीर में किन रोग कीटाणुओं का आधिपत्य है। मल-मूत्र, कफ, रक्त आदि की परख करके इसकी जानकारी प्राप्त की जाती है तद्नुरूप उन्हें मारने की विशेषताओं वाली औषधियों का प्रयोग किया जाता है। विषाणुओं की अनेक जातियों के अनुरूप ही उनकी मारक औषधियाँ ढूँढ़ी गई हैं। इन्हें एंटी बायोटिक्स कहते हैं। इन दिनों इन औषधियों का निर्माण और उपयोग खूब हो रहा है। रोग निवारण का इन दिनों यह प्रमुख आधार है।
पेन्सिलीन- स्ट्रेप्टोमायसिन वर्ग की रोग कीट नाशक एंटी बायोटिक्स औषधियों में अब एक और चमत्कारी चरण जुड़ गया है वह है लैडरली लैबोरेटरी द्वारा प्रस्तुत किया गया रसायन डी. एम-सी.टी.। इसका पूरा नाम है- डिमिथाइल क्लोर टैटरासाइक्लिन, इन दवाओं की चमत्कारी औषधियों को ‘वन्डर ड्रग्स’ कहा जाता है। इनका मूल उद्देश्य है शरीर में उत्पन्न हुए या प्रविष्ट हुए रोग कीटाणुओं को निरस्त करना। विकृत बैक्टीरियों-वायरसों के उपद्रव ही विभिन्न रोगों के प्रधान कारण माने जाते हैं। यह मारक औषधियाँ इन कीटकों पर आक्रमण करती हैं- इन्हें मूर्छित करतीं और मारती हैं फलतः रोगों के जो कष्टकारक उपद्रव लक्षण थे वे शमन होते दिखाई देते हैं।
इन मारक रसायनों के प्रयोग का उत्साह इसलिए ठंडा हो जाता है कि वे विषाणुओं के मारने के साथ रक्षाणुओं को भी नहीं बख्शती। उनकी दुधारी तलवार बिना अपने पराये का, मित्र-शत्रु का भेद-भाव किये जो भी उनकी पकड़ परिधि में आता है उन सभी का संहार करती हैं। पेन्सिलीन के चमत्कारी लाभों की आरम्भ में बहुत चर्चा थी, पर जब देखा गया कि उसके प्रयोग से दानेदार खुजली जैसे कितने ही नये रोग उत्पन्न होते हैं और किसी-किसी को तो उसकी प्रतिक्रिया प्राणघातक संकट ही उत्पन्न कर देती है। तब वह उत्साह ठण्डा पड़ा। अब कुशल डाक्टर पेन्सिलीन का प्रयोग आँखें मूँदकर नहीं करते। उसके लिए उन्हें फूँक-फूँककर कदम धरना होता है। कुनैन से मलेरिया के कीटाणु तो मरते थे, पर कानों का बहरापन-नकसीर फूटना जैसे नये रोग गले बंध जाते हैं। इस असमंजस ने उसके प्रयोग का आरम्भिक उत्साह अब शिथिल कर दिया है। कुनैन का अन्धाधुन्ध प्रयोग अब नहीं किया जाता।
लन्दन के बारथोलोम्यूज का अस्पताल में विभिन्न स्तर की एण्टी बायोटिक औषधियों का प्रयोग परीक्षण 275 प्रकार के बैक्टीरियाओं से ग्रसित मरीजों पर उलट-पुलट कर किया गया। इन परीक्षाओं में नव-निर्मित डी. एम. सी. टी. इस दृष्टि से अधिक प्रशंसनीय मानी गई कि उसने विषाणुओं का जितना संहार किया उतनी चोट रक्षाणुओं को नहीं पहुँचाई। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह पूर्णतया हानि-रहित है। इससे केवल रोग ही नष्ट होते हैं जीवनी शक्ति को क्षति नहीं पहुँचती ऐसा दावा करना किसी के लिए भी सम्भव नहीं हो सका है।
हल्की खाँसी, तीसरे पहर बुखार की हरारत, भूख की कमी, वजन का घटना, रात्रि के अन्तिम पहर में पसीना आना जैसे सामान्य लक्षणों से क्षय रोग की सम्भावना का पता लगाया जा सकता है। इन चिन्हों के आधार पर क्षय का आक्रमण हो चला है।
वस्तुस्थिति का पता तो छाती का स्क्रीनिंग अथवा एक्सरे एवं रक्त थूक आदि का परीक्षण करने पर ही चलता है इसके लिए माँस मिनिएचर रेडियोग्राफी (एम.एम.आर.) की सरल परीक्षा पद्धति भी सामने आई है।
आमतौर से क्षय उपचार में लगातार दो-तीन महीने ‘स्टेप्टो माइसिन’ के इन्जेक्शन लगाये जाते हैं एवं आइसोनेक्स-पी.ए.एस. जैसी दवाओं का स्थिति के अनुरूप सेवन कराया जाता है।
बचाव उपचार में बी. सी. जी. (वेसीलस काल्मेटेग्वेरिन) के टीके लगाये जाते हैं। यह नामकरण उसके आविष्कर्त्ताओं के नाम पर ही किया गया है। 40 सुइयों की खरोंच वाला यह टीका आरम्भ में बहुत उत्साहवर्धक समझा गया था, पर अब उसकी प्रतिक्रिया संदिग्ध आशंका के रूप में सामने आ रही है। अब क्षय से सुरक्षा प्राप्त करने का यह टीका अमोघ उपचार नहीं राह वरन् उसके दुष्परिणाम पीछे किसी अन्य व्यथा को साथ लायेंगे ऐसा माना जाने लगा है।
आवश्यक नहीं कि आक्रमण बाहर से ही हों अपनी आन्तरिक दुर्बलता भी ग्रह युद्ध खड़ा कर देती है। ‘घर का भेदी लंका ढाये’ वाली कहावत भी बहुत बार सामने आती है। अवाँछनीय व्यवहार से रुष्ट होकर अपने उपयोगी तत्व विद्रोही बनकर आक्रमणकारी शत्रु का रूप धारण कर लेते हैं और उस अन्तः विस्फोट का स्वरूप भी विप्लवी गृह युद्ध जैसा बन जाता है। इस प्रकार उत्पन्न हुए रोगों और विषाणुओं की संख्या भी कम नहीं होती।
जब कारण वश शरीर के कुछेक जीवकोष विद्रोही हो जाते हैं तो सामान्य रीति-नीति की मान-मर्यादा तोड़कर उद्धत उच्छृंखल गतिविधि अपनाकर मनमर्जी की चाल चलते हैं। यह उद्धत विद्रोही ही केन्सर का मूल कारण हैं।
आमतौर से जीवकोष अपनी भूख तथा आवश्यकता तरल रक्त से प्राप्त करते रहते हैं किन्तु जब उनमें से कुछ असन्तुष्ट अपने मनमर्जी का वैभव चाहते हैं तो समीपवर्ती जीवकोषों पर टूट पड़ते और उन्हें लूट-खसोटकर अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाते हैं इतना ही नहीं वे अपने लिए निर्धारित क्षेत्र और कार्य की मर्यादाओं को तोड़कर रक्त प्रवाह में तैरते हुए किसी भी अंग में जा घुसते हैं और वहाँ भी कत्लेआम का दृश्य उपस्थित करते हैं। जहाँ भी उन्हें पैर टिकाने की जगह मिली वहीं के अधिकारी बनकर बैठ जाते हैं। यही है केन्सर की मूल प्रकृति।
केन्सर को उत्पन्न करने वाले उपकरण ‘कारसिनोज’ कहे जाते हैं। कोलतार, रेडियम, मादक द्रव्य इसी वर्ग में आते हैं। इनका गहरा प्रभाव शरीर पर पड़ेगा तो केन्सर की आशंका बढ़ेगी। अधिक आग तापने अथवा किसी अंग विशेष का अनावश्यक अतिघर्षण होते रहने से भी यह विपत्ति सामने आ खड़ी होती है। रतिक्रिया की सीमा एवं कोमलता का व्यतिक्रम होने से स्त्रियों की जननेन्द्रिय केन्सरग्रस्त हो जाती हैं।
एक ओर विषाणुओं की विभीषिका सामने खड़ी है और रुग्णता से लेकर भरण तक के साज संजो रही है वहाँ दूसरी ओर जीवन रक्षा की सेना भी कमर कसकर सामने खड़ी है । हमारे शरीर में ही एक विशालकाय महाभारत रचा हुआ है। कौरवों की कितनी ही अक्षौहिणी सेना जहाँ अपने दर्प से दहाड़ रही है वहाँ पाण्डवों की छोटी टुकड़ी भी आत्म-रक्षा के लिए प्राण हथेली पर रखकर युद्ध क्षेत्र में डटी हुई है। रक्ताणु हमारी जीवन रक्षा के अदम्य प्रहरी हैं वे विषाणुओं को परास्त करके जीवन सम्पदा को बचाने के लिए कट-कट कर लड़ते हैं अपने प्राण देकर के भी शत्रु का अपनी भूमि पर अधिकार न होने देने का प्रयत्न करते हैं। हमारे अन्तःक्षेत्र में, धर्मक्षेत्र में, कर्मक्षेत्र में चलती रहने वाली यह महाभारत जैसी पुण्य प्रक्रिया देखने समझने ही योग्य है।
रक्त को नंगी आँखों से देखें तो वह लाल रंग का गाढ़ा प्रवाही मात्र दिखाई देता है, पर अणुवीक्षण यन्त्र से देखने पर उसमें असंख्य रक्ताणु दिखाई देते हैं। इनकी आकृति-प्रकृति की अब अनेकों जातियाँ जानी परखी जा चुकी हैं। यह रक्ताणु भी कोशिकाओं की तरह ही जन्मते-मरते हैं। प्रायः उनकी आयु तीन महीने होती है। उनकी बनावट स्पंज सरीखी समझी जा सकती है जिसके रन्ध्रों में ‘होमोग्लोबिन’ नामक रसायन भरा होता है। यह रक्ताणु रक्त के साथ निरन्तर समस्त शरीर में भ्रमण करते रहते हैं और अपने तीन मास के स्वल्प जीवन काल में प्रायः तीन सौ मील का सफर कर लेते हैं।
होमोग्लोबिन कभी रक्त का प्रमुख रसायन माना जाता था। अब उसे चार श्रृंखलाओं में जुड़ा हुआ प्रायः 600 अमीनो अम्लों का समूह पाया गया है। नोबेल पुरस्कार विजेता लाइनस सी0 पलिंग ने अपने दो साथियों के साथ इन रक्ताणुओं की शोध में अभिनव जानकारियों की कितनी ही कड़ियाँ जोड़ी हैं।
कितने ही रोग इन रक्ताणुओं के साथ जुड़े होते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हैं। कुछ विशेष कबीलों में कुछ विशेष प्रकार के रक्ताणु पाये जाते हैं तद्नुसार उनकी शारीरिक स्थिति में अमुक रोग का प्रतिरोध करने की-अमुक रोग से आक्रान्त होने की विशेष स्थिति देखी गई है। शारीरिक ही नहीं मानसिक क्षेत्र में भी यह रक्त विशेषता जमी रहती है। कुछ परिवारों के लोग बहुत भोले और डरपोक पाये जाते हैं जबकि किन्हीं वर्गों में आवेश, उत्तेजना और लड़ाकू प्रवृत्ति का बाहुल्य रहता है। राजपूतों की लड़ाकू प्रवृत्ति और जुलाहों का डरपोकपन प्रसिद्ध है। सम्भवतः ऐसी विशेषताएं रक्ताणु की परम्परागत स्थिति के कारण उत्पन्न होती है।
पिछले पन्द्रह वर्षों में तीस से अधिक प्रकार के असामान्य होमोग्लोबिन वर्गों का पता लगाया जा चुका है। कैंब्रिज विश्व-विद्यालय के प्रो0 बर्नाव एम. इंग्राम ने इनके वर्गीकरण तथा क्रिया-कलापों की गहरी शोध करके यह पाया है कि शरीर एवं मन के रुग्ण एवं स्वस्थ होने में यह रक्त रसायन असाधारण भूमिका सम्पन्न करते हैं। अफ्रीका में कोई 80 हजार बच्चे इन रक्त रसायनों की विकृति के साथ जन्म लेने के कारण स्वल्प काल में ही मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं। इसी प्रकार उस महाद्वीप के एक कबीले में ऐसे रक्ताणु पाये गये जो मलेरिया के ‘प्लास्पोडियम फाल्सी पैरम’ कीटाणुओं से शरीर को तनिक भी प्रभावित नहीं होने देते। अन्य कबीलों के लोग उस क्षेत्र में आकर रहे तो तुरन्त मलेरिया ग्रसित हो गये किन्तु वहाँ के मूल निवासी मुद्दत से इन्हीं मच्छरों के बीच रहते हुए कभी बीमार नहीं पड़े।
स्वीडन के शरीर विज्ञानी प्रो0 फोलिंग इस बात पर जोर देते हैं कि विषाणुओं को मारने के लिए एन्टीबायोटिक अथवा दूसरी प्रकार की जो मारक औषधियाँ दी जा रही हैं उनका प्रचलन बन्द किया जाय और स्वस्थ रक्ताओं को अधिक समर्थ बनाने के प्रयोगों को प्राथमिकता दी जाय। रोगों का स्थायी निवारण और सुदृढ़ स्वास्थ्य का संरक्षण इसी नीति को अपनाने से सम्भव होगा।
मारक औषधियाँ मित्र शत्रु का-अपने पराये का भेद किये बिना अपनी अन्धी तलवार दोनों पक्ष के योद्धाओं को मारने के लिए प्रयुक्त करती है। विषाणु मरें, सो ठीक है, पर स्वस्थ कणों की सम्पदा खोकर तो हम इतने दीन-हीन बन जाते हैं कि वह दुर्बलता भी रुग्णता से कम कष्टकारक नहीं होती। उससे भी मन्द गति से दीर्घकाल तक चलती रहने वाली रुग्णता ही जम बैठती है।
प्रकृति ने जीवन की प्रखरता को संजोये रखने के लिए संघर्ष आवश्यक समझा और विषाणुओं, रक्ताओं में निरन्तर संघर्ष होते रहने की व्यवस्था बना दी ताकि हम युद्ध कौशल में प्रवीण होकर सच्चे अर्थों में समर्थ और प्रगतिशील बन सकें।
इस युद्ध से एक निष्कर्ष यह निकलता है कि शत्रु को मारने वाले से भी अधिक उपयोगी आत्म-पक्ष को सबल बनाने की है। संसार में फैली हुई अनीति के दमन के लिए आवेश में आकर उपयोगी-अनुपयोगी की परख किये बिना अन्धाधुन्ध तलवार चलाना हानिकारक है। लाभ इसमें है कि नीति पक्ष को परिपुष्ट किया जाय जिससे बिना कठिन संघर्ष के ही शत्रु पक्ष परास्त हो सके साथ ही आत्म-पुष्टि से चिरस्थायी स्वास्थ्य सन्तुलन की-शान्ति और प्रगति की अभिवृद्धि हो सके। हमारी जीवन नीति एवं सुधार व्यवस्था का संचालन इसी आधार पर होना चाहिए।