रोगमुक्ति दवाओं से नहीं प्रकृति की शरण में जाने से

February 1975

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रोगों का उपचार यही हो सकता है कि आहार-विहार की जिस विकृति के कारण वे उत्पन्न हुए हैं उसे बदल और सुधार दिया जाय। शरीर में रोग निरोधक शक्ति मौजूद है, वह बाहर से होने वाले विषाणुओं से भली प्रकार निपटने में समर्थ है और भीतर उत्पन्न होने वाले उपद्रवों को निकाल बाहर करने की क्षमता भी उसमें विद्यमान है। बीमारी के दिनों अनावश्यक श्रम से शरीर को बचाये रखे और प्रकृति को अपना काम करने दे। हो सके तो जल, मिट्टी, धूप आदि की सहायता प्रकृति की कुछ सहायता प्राप्त करें। घबराने की अपेक्षा रोग निवृत्ति में जो थोड़ा समय लगे उसे तितीक्षा बुद्धि से धैर्य पूर्वक सहन कर ले तो बीमारियों से सहज ही छुटकारा पाया जा सकता हैं

शरीर के भीतर रोग निरोधक शक्ति का विपुल भण्डार भरा पड़ा है जिसके द्वारा भीतर से उत्पन्न हुए अथवा बाहर से प्रवेश पाकर पहुँचे हुए रोग कीटाणुओं का विनाश निरन्तर होता रहता है।

आँख में कभी कोई विष कीटक जा पहुँचे तो तुरन्त आँसू निकलेंगे। इन आँसुओं में ‘लाइसोजीम’ नामक पदार्थ रहता है जिसकी निरोध शक्ति अद्भुत है। यदि एक गैलन पानी में एक बूँद आँसू डाल दिया जाय तो वह एक अच्छा खासा कीटाणु नाशक बन जाता है।

शरीर में ऐसे ही अन्य कितने ही रोग निरोधक तत्व विद्यमान है। यथा लेउकिन्स, लाइसिन्स प्लैकिन्स आदि। मुँह से स्रवित होने वाले रस, आमाशय से स्राव और आँतों से निकलने वाले पदार्थों में वह शक्ति पूरी तरह विद्यमान है कि बाहर से प्रवेश करने वाले किन्हीं भी रोग कीटाणुओं को नष्ट कर दें। नासिका की श्लेष्मा में रहने वाला ’नेटा’ साँस के साथ प्रवेश करने वाली विषाक्तता से निपट लेने में पूर्णतया समर्थ रहता है। शरीर में पाया जाने वाला ‘लिउकोसिट्स’ तत्व अपनी चुम्बकीय विशेषता के कारण कहीं भी जमे रोग कीटकों पर घेराबंदी आक्रमण करता है और उन्हें मारकर ही चैन नहीं लेता वरन् उनके कचूमर की चमड़ी में छेद करके बाहर निकालने में अन्त्येष्टि करने तक युद्ध कार्य में जुटा ही रहता है। रक्त में पाया जाने वाला प्लाज्मा इस लिउकोसिट्स के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर सहायता करता है। गामा ग्लोबूलिन भी कीटाणु विरोधी धर्म युद्ध में अपनी भूमिका प्रस्तुत करते हुए आश्चर्यजनक रीति से दो-दो हाथ दिखाता है।

थोड़े से कष्ट से घबराकर तत्काल जादुई परिणाम देखने के लिए उतावले लोग ऐसी दवाएं ढूंढ़ने के लिए दौड़ पड़ते हैं जो क्षण भर में चमत्कार उपस्थित करें। डाक्टर बीमार की इस कमजोरी को समझता है अस्तु वह वैसी ही दवाएं देता है। इन दवाओं में शरीर की रोग निवारक क्षमता की-कष्ट अनुभूति की ज्ञान-तन्तु प्रणाली को दुर्बल करने भर की क्षमता होती है। रोग कीटाणुओं को मारकर वे उग्र लक्षणों का भी शमन करती हैं, पर साथ ही छोड़ती जीवन रक्षक तत्वों को भी नहीं। वे मित्र शत्रु का भेद किये बिना शत्रु का भेद किये बिना शत्रुवध ओर आत्महत्या के दोनों मिलने पर भी अन्ततः रोगियों को इतनी अधिक चिरस्थायी हानि उठानी पड़ती है कि वह जादुई चिकित्सा उन्हें बहुत महंगी पड़ती है।

तीव्र औषधियों के दुष्परिणाम जब बड़े पैमाने पर सामने आते हैं और वावेला मचता है बत कहीं उन पर प्रतिबन्ध लगता है। इतनी अवधि में तो वे जनता को बहुत भारी क्षति पहुँचा चुकी होती है। न्यूनाधिक मात्रा में यही प्रभाव लगभग सभी एलोपैथिक दवाएं छोड़ती हैं। मन्द औषधियाँ अपना मन्द प्रभाव छोड़ती हैं। इसलिए उनके दुष्परिणाम भी उग्र नहीं होते और उनके विरुद्ध आन्दोलन भी बड़ा नहीं होता इसलिए वे चलती रहती है पर हानियाँ उनसे भी कम नहीं होती।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के चिकित्सा विशेषज्ञों ने संसार के विभिन्न से संग्रहित सूचनाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि प्रख्यात औषधि ‘पेन्सलीन’ का अन्धाधुन्ध प्रयोग नहीं होना चाहिए। उसकी प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। अकेले अमेरिका में उस औषधि की विपरीत प्रतिक्रिया के कारण पिछले ही दिनों एक हजार से अधिक व्यक्ति बेमौत मर रहें हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन में कहा गया है कि पेन्सलीन का उपयोग कुशल चिकित्सकों को बहुत सोच विचार कर ही करना चाहिए। जुकाम जैसी छोटी बीमारियों में उसे नहीं देना चाहिए और इस औषधि से बनी हुई मरहमों को भी निरापद नहीं मानना चाहिए।

अमेरिका में बुखार और दर्द दूर करने के लिए दो दवाएं बहुत दिनों से प्रचलित थीं। (1) एमिनोपाइसि (2) डाइपिरोन। इन्हें चिरकाल से धड़ल्ले के साथ प्रयोग में लाया जाता रहा पर पीछे उनकी प्रतिक्रियाएं जो सामने आई वे बहुत चिन्ताजनक सिद्ध हुई। काफी लम्बी और गहरी खोजबीन के बाद अमेरिका मेडिकल एसोसिएशन और यूनाइटेड स्ट्रेट्स फूड एण्ड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने खतरनाक घोषित कर दिया है और डाक्टरों को हिदायत ही है कि इसमें कोलीहटिस होने का डर रहता है इसलिये इनका प्रयोग बन्द कर दिया जाय। ब्रिटेन के स्वास्थ्य मन्त्रालय ने ब्रिटेन के समस्त डाक्टरों को चेतावनी दी है कि नेग्राम औषधि के कारण दृष्टि मन्दता, मति विभ्रम चर्म रोग की शिकायतें उत्पन्न होने और नाड़ी संस्थान पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के प्रमाण मिले हैं अस्तु इस औषधि के खतरे को पूरी तरह ध्यान में रखा जाय।

ब्रिटिश मेडिकल जनरल पत्रिका में दस्त साफ कराने के लिए आमतौर से प्रयुक्त होने वाली दवा ‘लिक्विड पैराफीन’ से होने वाली हानियों के विरुद्ध चेतावनी देते हुए छापा है कि उससे निमोनिया की पृष्ठभूमि बनती है। लंदन के सन्डे टाइम्स ने विश्व स्वास्थ्य संघ की उस चेतावनी को प्रमुख स्थान पर छापा था जिसमें कहा गया है पेन्सिलीन का उपयोग वे समझे-बूझे चाहे किसी पर न किया जाय। असावधानी के साथ उसका प्रयोग रोगी के लिए प्राणघातक हो सकता है। न्यू साइंटिस्ट पत्रिका ने एण्टी बायोटिक दवाओं के दुष्परिणामों को ध्यान में रखने के लिए डाक्टरों को विशेष रूप से सजग किया है।

कार्टिजोन, स्टेप्टो माइसिन, पेनसिलीन, क्लोरम फेनिकोला, क्लोरटेट्रा साइक्लीन, आक्सीट्रेंटा साइक्लीन आदि दवाओं के विरुद्ध योरोप के प्रमुख अखबारों में काफी कुछ छपता रहा है और वे तथ्य सर्व साधारण के सामने प्रस्तुत किये जाते रहे हैं। जिनसे सिद्ध होता है कि ये चमत्कारी समझी जाने वाली दवाएं निरापद नहीं है। तत्काल कुछ लाभ दिखा देने के बाद भी वे रोगी के शरीर को अन्य अनेक रोगों के लिए एक उत्पादक क्षेत्र बना देती हैं और तुरन्त लाभ के बदले रोगी को बहुत समय तक आये दिन कष्टग्रस्त रहना पड़ता है।

अमेरिका के हेरीजोन्स मेडिकल अस्पताल के चीफ मेडिकल आफीसर डा0 केनिथ ए॰ वर्के के नेतृत्व में चल रहे एक सर्वेक्षण से पता लगा है कि उस देश में प्रत्येक 14 में से एक बच्चा शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से विकृत उत्पन्न होता है। हर साल लगभग 550000 बच्चे इन जन्मजात अपूर्णताओं के कारण मृत्यु के मुख से चले जाते हैं ओर 250000 मरते तो नहीं पर जीवन भर अपनी जन्म जात अपूर्णताओं के कारण कष्ट उठाते हैं।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रेषित एक शोधकर्ता दल ने संसार के कुछ प्रमुख देशों का दौरा किया और उनके बड़े अस्पतालों में हुए प्रसवों के आधार पर यह पता लगाया कि अन्यत्र जन्म जात अपंग बालकों की दर क्या है ? दल ने जो रिपोर्ट दी उसके अनुसार एक अपंग बालक का औसत स्वास्थ्य बालकों के पीछे इस प्रकार था। जोहान्स वर्ग (अफ्रीका) 43 पीछे, मेलबोर्न (आस्ट्रेलियन) 53 पीछे, सायपालो (ब्राजील) 62 पीछे, मैड्रिड (स्पेन) 75 पीछे, जग्रिव (यूगोस्लाविया) 78 पीछे सिकन्दरिया (मिस्र) 68 पीछे, क्वालालपुर (मलेशिया) 95 पीछे और बम्बई (भारत) 116 पीछे।

यह केवल अस्पतालों की रिपोर्ट है। घरू प्रजनन ही पिछड़े देशों में अधिक होता है। उसका कोई विवरण ज्ञात नहीं इसलिए इन आंकड़ों से कुछ निश्चित निष्कर्ष तो नहीं निकलता पर आभास अवश्य मिलता है कि भारत जैसा पिछड़ा हुआ देश इस सम्बन्ध में अमेरिका जैसे सुसम्पन्न देश कहीं अधिक सौभाग्यशाली है। अन्य देशों से, धन में न सही - अपंग बालकों के सम्बन्ध में अधिक सुखी हैं।

गर्भावस्था में महिलाओं के पेट की खराबी तथा सिर दर्द आदि की शिकायत रहने लगती है उसके लिए वे आये दिन कुछ न कुछ दवाएं लेती है। ताकत बढ़ाने के नाम पर ‘टानिक’ निगलती है। प्रसव काल का दर्द कम करने के लिए भी कई नशीली दवाएं ली जाती है। नशे पीने की आदत ने केवल पुरुषों की होती है वरन् स्त्रियों में भी बढ़ रही है। इन सबका बुरा असर जितना गर्भवती पर होता है उसकी अपेक्षा कहीं अधिक घातक प्रभाव गर्भस्थ शिशुओं पर होता है।

लन्दन के प्रसिद्ध बाल चिकित्सक डा0 आरनेल्ड वैकेट ने कहा है कि तेज औषधियाँ गर्भवती महिलाओं को देना उनके गर्भस्थ शिशुओं के साथ अत्याचार करना है। ‘लासऐन्जल टाइम्स’ पत्र में कुछ चिकित्सकों का एक सम्मिलित मन्तव्य, लेख रूप में छपा है जिसमें कुमारी विवाहिता अथवा गर्भवती उन सभी महिलाओं को जो अगले दिनों गर्भ धारण करने की तैयारी कर रही है एक गम्भीर चेतावनी दी है। जिसमें कहा गया है कि वे नशेबाजी और बहुत दवाएं खाने की आदत से बाज आयें-अन्यथा उनकी सन्तान का इसका दुष्परिणाम भुगतना पड़ेगा। कुछ दवाओं का नाम तो इस संदर्भ में विशेष रूप से लिया गया है- थैलीमाईड, कोटीजोन, एस्प्रीन, सैलीसाइलटेस, इन्सुलिन, पेन्सलीन, स्टेप्टो माइसिन एड्रेनालीन आदि।

सिरदर्द नई सभ्यता की एक सुनहरी दैन है जिससे विकसित कहलाने वाले देश दिन-दिन अधिकाधिक क्षति होते चले जा रहे हैं। इसके प्रयुक्त होने वाली घरेलू दवा एम्परीन है। इसका असली नाम एसिटाई सेली सीलिक एसिड है। इसका काम उन चौकीदारों को लकवा ग्रस्त देना है जो हमारी अन्तःस्थिति का विवरण प्रकट करते हैं। दर्द तो ज्यों का त्यों बना रहता है केवल उसकी अनुभूति रुक जाती है।

अकेले अमेरिका में हर साल कम से कम 6000 टन एस्परीन खपती है। इसके उत्पादक सिरदर्द, जुकाम तथा दूसरे दर्दों को दूर करने वाली रामबाण दवा के रूप में विज्ञापन करते हैं। जो प्रत्यक्षतः बहुत कुछ सही भी है। इसका चमत्कारी लाभ तत्काल देखा भी जा सकता है।

किन्तु उसका लगातार प्रयोग करने पर कितने दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं यह तथ्य अब भली प्रकार स्पष्ट होता चला जा रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार एस्परीन के सेवन का हृदय पर बुरा असर पड़ता है। कान गूँजने लगते हैं। शरीर का तापमान गिर जाता है और एक नशीली अशक्तता का अनुभव होने लगता है। यह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले लक्षण हैं- उसके दूरगामी और मन्दगति से बढ़ते चलने वाले दुष्परिणाम और भी अधिक हैं। वे इतने कष्टकर हैं कि एक प्रकार से सिरदर्द, जुकाम आदि के मरीज इन बीमारियों से छुटकारा पाना तो दूर और कई प्रकार के स्नायु रोगों से ग्रसित बन जाता है।

ऐसे अनेक मूर्धन्य एलोपैथ डाक्टर है जिन्होंने गम्भीरता से औषधि प्रणाली की त्रुटियाँ और उनके द्वारा उत्पन्न होने वाली घातक प्रतिक्रियाओं को समझा है। उन्होंने ईमानदारी से जो कुछ समझा उसे सर्व साधारण के सामने व्यक्त किया और अपना हाथ दवाओं के उपयोग अथवा समर्थन से पूरी तरह खींच लिया।

न्यूयार्क के प्रो0 स्मिथ ने कहा है- रक्त में प्रवेश कराई गई दवाएं उतनी ही हानिकारक सिद्ध होती है जितनी कि उन रोग कीटाणु-जिन्हें मारने के लिए इंजेक्शन लगाया गया था। डाक्टर फ्रैंक ने कहा-हम विशेषाधिकार प्राप्त हत्यारों द्वारा हर साल हजारों उन निरीह लोगों को अटकल पच्चू दवाओं के द्वारा मौत के घाट उतार दिया करते हैं जो अपने कष्ट से राहत पाने के लिए हमारी शरण आये थे।

न्यूजीलैण्ड के रेडियम चिकित्सक डा0 उलरिक विलियम्स तो एकबार खीजकर अपने धन्धे के बारे में यहाँ तक कह बैठे थे कि औषधि विज्ञान और कुछ नहीं मात्र नई बीमारी को पुरानी बीमारी में बदल देने का गोरखधन्धा है।

लंदन के डेली हैरल्ड में डा0 चार्ल्सहिल का एक लेख छपा है जिसमें उनने कहा है- औषधियों की गोलियाँ बन्दूक की गोली की तरह घाव तो नहीं करती; पर मनुष्य को हानि लगभग उतनी ही पहुँचती हैं। न्यूयार्क टाइम्स में नार्थ वोर्स्टन युनिवर्सिटी की एक शोध रिपोर्ट का साराँश छपा है जिससे कहा गया है कि ताकत के नाम पर खरीदे और खाये जाने वाले विटामिन लाभ के स्थान पर हानिकारक सिद्ध होते हैं।

बाल रोग विशेषज्ञ डा0 हालेन ने कहा है कि -छोटे बच्चों पर प्रयोग की गई दवाएं उनकी शक्ति को बेतरह क्षीण करती है फलतः वे दुर्बलताजन्य अनेकानेक शिकायतों के चंगुल में फंसकर असमय में ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर जाते हैं।

लन्दन के प्रख्यात शरीर शास्त्री डा0 वेली ने कहा है- अब मेरा विश्वास दवाओं पर उठ गया है। क्योंकि दवाएं रोग मुक्ति में जितना सहारा देती हैं उससे कहीं अधिक रोगी की शक्ति को क्षीण और उसके रक्त को विषाक्त बनाती चली जाती हैं फलतः रोगी औषधियों से लाभ उठाने के स्थान पर घाटे में ही रहता है।

इंग्लैण्ड के मूर्धन्य डाक्टर जान एवरनेथी इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि डाक्टरों की वृद्धि के कारण भी उस देश में बीमारियाँ बढ़ी हैं।

अंग्रेज सर्जन सर एस्टले कपूर ने अपने धन्धे की अपूर्णता पर क्षोभ व्यक्त करते हुए कहा था- औषधि विज्ञान अटकलबाजियों से उत्पन्न हुआ है और हत्याओं के साथ विकसित हुआ है।

न्यूयार्क कालेज आफ फिजिशियन एण्ड सर्जन प्रो0 ए0एच॰ स्टीवन्स ने अपनी विस्तृत जानकारी के आधार पर कहा है- ज्यों-ज्यों डाक्टर बूढ़ा होता जाता है त्यों-त्यों उसका विश्वास औषधियों पर से उठता जाता है।

फिलाडलफिया के जेफरसन मेडिकल कालेज के प्रोफेसर एस॰ डी ग्रोस ने कहा बीमारियों के असली कारणों के सम्बन्ध में हमारी जानकारी नगण्य होती है और जिन दवाओं को हम उपयोग करते हैं उनकी प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में तो हम बहुत ही कम जानते हैं यद्यपि दावे हमारे बहुत लम्बे-चौड़े होते हैं।


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