अनासक्ति योग में ज्ञान- भक्ति- कर्म का समन्वय

February 1975

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गीता द्वारा प्रतिपादित ब्रह्मविद्या के प्रमुख आधार अनासक्ति - योग में दो शब्द हैं - एक अनासक्ति और दूसरा योग। अनासक्ति निषेधात्मक और योग विधेयात्मक पद हैं। विषयों के प्रति आसक्ति का निषेध अनासक्ति है। केवल निषेध या अस्वीकृति से योजना पूर्ण नहीं होती। एक के परित्याग द्वारा रिक्त स्थान की पूर्ति हेतु कुछ की स्वीकृति आवश्यक है। असत् की अस्वीकृति के साथ सत् की स्वीकृति की प्रक्रिया चल पड़ती है।

योग का अर्थ है जोड़ना। कुछ अवाँछित, अनावश्यक जीर्ण के ध्वंस के भूमिका पर नव-निर्माण स्वाभाविक है। इसी प्रकृति की प्रक्रिया के ज्ञानपूर्वक अनासक्त चित्त को भगवान में जोड़ने की प्रवृत्ति योग है।

वस्तुतः विषय-भोग से निवृत्ति की क्रिया के साथ विराट् भगवान् की ज्ञान-भक्ति, कर्मपरक प्रवृत्ति की क्रिया का कुशलतापूर्वक ताल-मेल बिठाना ही अनासक्ति योग है।

प्रायः अनासक्ति का नितान्त गलत मायना लगाया जाता है। प्रचलित धारण के मुताबिक संसार से अलग हो जाना वैराग्य या अनासक्ति है। इसी तरह पारिवारिक सामाजिक तथा लौकिक-साँसारिक दायित्व की पूर्ति हेतु किये गये कर्म को आसक्ति कह देते हैं। इस मान्यता से निष्क्रियता- अकर्मण्यता की स्थिति उत्पन्न होती है।

प्रश्न यह है कि हमारी विवेक-बुद्धि जिम्मेदारी निर्वाह निमित्तक कर्म को ‘आसक्ति’ कैसे मान लें ? इस विषय में श्रीकृष्ण का मत सही उत्तर देता है। गीता का ‘मा कर्म-फल हेतु र्भूः’ “कर्म-फल के प्रति आसक्ति का निषेध करता है। अकर्म बुरा है - मा ते संगोंऽस्त्वकर्मणि। अकर्म में आसक्ति न हो, लेकिन कर्म तो स्वाभाविक धर्म है। बिना कर्म किये मनुष्य एक क्षी नहीं रह सकता। अतः कर्म-त्याग की चर्चा ही अवैज्ञानिक है।

वास्तव में अनासक्ति का सही अभिप्रायः कर्म-फल के त्याग से ही है। तभी तो गीताकार भगवान कृष्ण महाभारत के युद्ध के सर्वाधिक सक्रिय तत्व होकर भी अनासक्त रहते हैं। जय-पराजय, मानापमान, सुख-दुख आदि के द्वन्द्वों से परे रहना भगवान की एक दिव्य स्थिति है। यही है संसार में रहते हुए साँसारिक विषयों से अप्रभावित रहने की कला ‘अनासक्ति’।

मानव जीवन का परम लक्ष्य है पूर्णता। ‘पूर्णता’ भगवत्-प्राप्ति का आधार और स्वरूप भी हैं। भगवान के गुणों को ग्रहण करते हुए उनके सदृश बन जाना ही उनकी प्राप्ति अथवा उनका साक्षात्कार कहलाता है। यह उपलब्धि अनासक्ति - योग से सम्भव है।

इस योग की सम्पूर्ण साधना में लोकहित के लिए कर्म करते हुए स्वयं को फलासक्ति के मोह का पूर्ण परित्याग करना पड़ता है। अनासक्ति को साधन और उसे ही साध्य मानकर समस्त कर्तव्य किये जाते हैं। यही कारण है कि महात्मा गाँधी कहा करते थे - ‘हमें भगवान की प्राप्ति नहीं करनी है, बल्कि भगवान बनना है। जब तक मनुष्य भगवान नहीं बन जाता तब तक शान्ति नहीं प्राप्त होती।”

जहाँ तक भगवान बनने का सम्बन्ध है वह तो विगत जमाने के तीन महापुरुष शंकर, रामानुज और तिलक के ज्ञान-भक्ति-कर्म के योगत्रय की समवेत साधना पूर्ण अनासक्ति की प्राप्ति से ही सम्भव है। ज्ञानयोग से वैराग्य रूपी वैचारिक अनासक्ति, भक्तियोग से भावनात्मक अनासक्ति और कर्मचोग से विषय विकारों सम्बन्धी अनासक्ति प्राप्त होती है।

अतएव अनासक्ति को परम लक्ष्य या साध्य इष्टदेव मानने वाला पूर्ण मंजिल तक पहुँचने के लिए अपना कर्तव्य सम्यक् प्रकारेण पहले निश्चित कर लेता है। तभी सबसे प्रेम, सबकी सेवा, आत्मवत् सर्वभूतेषु का प्रयोग, समाज एवं वसुधा को कुटुम्ब मानकर अपने सर्वस्व का उनके हित समर्पण ही उसके जीवन का सहज व्यवहार बन जाता है।

पर्याप्त काल पर्यन्त एक लक्ष्य के प्रति नियमितता और निरन्तरतापूर्वक जुटे रहने पर मंजिल नजदीक आने लगती है। एक राह पर सतत् चलते रहने की स्थिति मात्र एक विलक्षण रस का सृजन करती है। उस रस-सागर में मानसिक अवगाहन से ही परमानन्द पीयूष-पान के विशिष्ट स्वाद की सुखद अनुभूति मिलती है।

परन्तु इसी बीच कर्मफल अपना रंग दिखाता ह। साधना पथ पर आरुढ़ कर्मठ तपस्वी को और कुछ मिले या न मिले, मान- बड़ाई की वर्षा होने लगती है। यही सबसे बड़ा बाधा, विघ्न या खतरा है। आने वाली शेष आपत्तियों का यही मूलाधार बन जाती है। कंचन कामिनी के त्यागी को भी मान-बड़ाई का आकर्षण पतन के गर्त में धकेल सकता है। इसकी भूल-भुलैया में जो पड़ा, उसी फिर खैर नहीं। उसकी शान्ति अशान्ति में और स्थिरता अस्थिरता में बदल जाती है।

इससे सिद्ध होता है कि सेवा के बदले मेवा पाने की प्रवृत्ति ही फलासक्ति का प्रतीक है। स्वार्थमय लक्ष्य कर्मफल की आकाँक्षा किम्वा फलासक्ति को जन्म देती है। मनोविज्ञान के अनुसार चेतन सत्ता की प्रवृत्तियां बुद्धि, इच्छा और भाव हैं। इनको निर्मल करने के उपरान्त चैतन्य सत्ता ही शेष रह जाती है, जिसे ‘आत्मोपलब्धि’ भी कहते हैं।

ज्ञानयोग द्वारा बुद्धितत्त्व, कर्मयोग द्वारा इच्छा तत्व और भक्तियोग द्वारा भाव तत्व की प्रवृत्तियों को निर्मूल करने का विधान है। इससे कर्मफल की कामना मिट जाती है। तब सहज ही समग्र दृष्टि केवल लक्ष्य पर केन्द्रित हो जाती है। यही सहज लक्ष्य तो अनासक्ति है।

इसी अनासक्ति को निष्काम कर्मयोग के रूप में साधन कहा गया है किन्तु दूसरी ओर यही अनासक्ति साध्य भी है। ‘अनासक्ति’ इष्ट की प्राप्ति या भगवत् साक्षात्कार का द्योतक स्वरूप है। निर्वाण, मुक्ति व मोक्ष ‘अनासक्ति’ की पूर्णतम उपलब्धि का ही नाम है।


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